सच्चे अध्यात्मवाद में निहित विलक्षण शक्ति

 व्यक्तिगत लाभ तक अपने को सीमाबद्ध कर लेने वाला व्यक्ति अपनी संकीर्णता में इतना अधिक लिप्त हो जाता है कि उसकी दूसरी दुष्प्रवृत्तियाँ इसी आधार पर पनपती हैं। अध्यात्म क्षेत्र में भी जो लोग इसी रीति- नीति को अपनाते हैं, उनकी गरिमा भी एक प्रकार से समाप्त प्राय: हो जाती है। अपने लिए स्वर्ग मुक्ति, ऋद्धि- सिद्धि चमत्कार प्रदर्शन, लोगों से पुजापा बटोरना, अपने को देवताओं का एजेण्ट बताकर उनके द्वारा ओछे लोगों की ऐसी मनोकामनाएँ पूरी कराने का आश्वासन देना जो उनकी पात्रता से बाहर है, ऐसी बातें जिनके मनोरथों में सम्मिलित हो जाएँ, समझना चाहिए कि उनका पूजा- पाठ भजन- कर्मकाण्ड ओछे स्तर का है। उससे अध्यात्म पक्ष की गरिमा बढ़ेगी नहीं वरन् घटेगी ही। ईश्वर के निकटवर्ती संबंधी बनना, उनको दर्शन देने के लिए बाधित करना, उनकी कचहरी के दरबारी बनकर सामीप्य- सान्निध्य जैसी मुक्ति का मजा लूटना, औरों से अपने को वरिष्ठ होने की मान्यता बनाना- ऐसा ओछापन है जो किसी भी वास्तविक भगवद् भक्त का अनुगामी बनने वाले को तनिक भी शोभा नहीं देता। यह सब लगभग ऐसा ही है जैसा कि सेठ, साहूकार, राजनेता, पंचतारा होटलों में मौज मजा करने वालों की मन:स्थिति होती है। अमीर लोग भी सेवक, चाकर, चारण और चमचों को इनाम- इकराम बाँटते रहते हैं। ईश्वर की हैसियत उन्हीं लोगों के समतुल्य बना देने का मनोरथ न तो किसी के अध्यात्मवादी होने का प्रमाण है और न ऐसे व्यक्ति को साधक- उपासक ही कहा जा सकता है।

    वस्तुतः: सच्चा अध्यात्मवादी लोकसेवी ही हो सकता है। जन साधारण की समस्याओं के समाधान में यदि अध्यात्म का प्रयोग नहीं होगा, तो श्रेष्ठता कैसे पनपेगी और दुष्टता कैसे निरस्त होगी? फिर भगवान् का उद्यान सूखता, कुम्हलाता और नष्ट- भ्रष्ट होता ही दीख पड़ेगा। यदि मूर्धन्यजन लोक मंगल को अपने कर्तव्य क्षेत्र में सम्मिलित न करेंगे, तो फिर उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, सुख- शान्ति और प्रगति के लिए नितान्त आवश्यक सहयोग, सद्भाव, संयम, सदाचार का वातावरण ही न बन सकेगा। आज तो प्रत्यक्षवाद और बढ़े हुए वैभव से जो अनाचार बढ़ा है, उस पर अंकुश लगाने के लिए अध्यात्म तत्त्वज्ञान के पक्षधरों को अगले मोर्चे पर ही खड़ा होना चाहिए। उस दिशा में यदि वे उपेक्षा बरतें तो यही कहा जाएगा कि उनकी गणना विलास- वैभव जैसी महत्त्वाकांक्षाओं से पीड़ित ओछे जनों से तनिक भी बढ़कर नहीं हो सकती। उन्हें ऋषिकल्प योगी, तपस्वियों के स्तर की मान्यता किसी भी प्रकार नहीं मिल सकती।

    यह तथ्य अपने मार्गदर्शक ने उसी समय समझा दिए थे जबकि इस दिशा में बढ़ने का आदेश दिया था और उसकी शक्ति असाधारण होने का संकेत दिया था। सैद्धान्तिक तत्त्वज्ञान की दृष्टि से तो यह समझा जा सकता है कि आदर्शवादिता के अभिवर्धन में अध्यात्म सहायक है, पर उससे यह सिद्ध नहीं होता कि उसमें कोई असाधारण शक्ति भी है, जो बुराइयों से निपटने और अच्छाइयों को बढ़ाने के लिए असाधारण परिवर्तन लाने में समर्थ हो सके। यदि वह विशेषता सिद्ध न की जा सकी तो उससे धर्मनिष्ठा के अतिरिक्त और कोई बड़ा प्रयोजन साधने की आशा नहीं की जा सकती। विशेषतया तब जबकि इन दिनों बढ़ते हुए पतनोन्मुख प्रवाह को रोकने और उसे उतनी प्रचण्डता के साथ सृजन प्रयोजनों के लिए नियोजित करना नितान्त आवश्यक प्रतीत हो रहा है। वैयक्तिक प्रखरता उपलब्ध करने के लिए भी ऐसी ही शक्ति चाहिए। वह शक्ति इन दिनों पर्याप्त नहीं मानी जा सकती जो मात्र परलोक की, परोक्ष जगत की ही चर्चा करे और इस लोक को सुधारने, सँभालने, उठाने और सुख- शान्तिमय बनाने में काम न आ सके। इन दिनों तो विशेषतया ऐसी ही भक्ति की आवश्यकता है जो शक्ति से भी परिपूर्ण हो।

अपने मन में भी असमंजस बना ही रहा कि भक्ति का सम्बन्ध मात्र भाव- संवेदनाओं तक ही सीमित तो नहीं है? क्या उसकी पूर्णता शक्ति से संयुक्त होने में ही है? जाँच- पड़ताल इसकी भी करनी चाहिए कि उसमें इतनी शक्ति है क्या? जो भौतिक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली उपलब्धियों की तुलना कर सके और साथ ही अब तक की विकृतियों को उलट कर उसके स्थान पर उपयोगी वातावरण प्रस्तुत कर सके। उपासना क्षेत्र में कदम बढ़े, पर यह अदम्य अभिलाषा भी बनी रही कि जैसा कहा जाता है, वैसी शक्ति भी अध्यात्म में होनी ही चाहिए, अन्यथा पटरी से उतरे इंजन को उठाकर फिर से यथास्थान रख सकने जैसा प्रयोग बन कैसे पड़ेगा?

    मार्गदर्शक ने उत्सुकता के औचित्य को समझा, साथ ही अपने निजी उत्कर्ष को भी उसमें जोड़ा कि समय का प्रवाह बदल सकने वाली किसी ऐसी शक्ति का उद्भव होना चाहिए, जो महाक्रान्ति स्तर का युग बदलने जैसा महान परिवर्तन प्रस्तुत कर सके। सोचने वालों ने सोचा होगा कि किसी को तो आगे करना ही होगा। फिर जिसके पास जन्म- जन्मान्तरों की सुसंस्कारिता संचित है, उसे ही क्यों न पूर्ण विश्वासी बनाया जाए। उसी का उदाहरण प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इस प्रत्यक्षवादी वातावरण की अनास्था को आस्था में बदलने की आवश्यकता को पूरा किया जाए। जिज्ञासु की उत्कण्ठा और शक्ति स्रोत की सहमति का समन्वय बन जाने से ऐसे कदम उठे और ऐसे प्रयोजन सिद्ध हुए, जिनके आधार पर भविष्य निर्माण की दिशा में कोई बड़ा प्रयोजन सधने की आशा किरणें उदय होने लगीं।

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