साधारण गृहणी एवं अपने पति के प्रति समपत श्रमशील महिला के रूप में देखने
वाली माताजी का असाधारण स्वरूप अंदर ही अंदर पकता तो रहा, परन्तु उभर कर तब
आया, जब आचार्यश्री सन् १९५९ में दो वर्ष के प्रवास पर हिमालय तप-साधना के
लिए गये । माताजी के जीवन का यह अकेलापन कठिनाइयों भरा था, परन्तु
उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, अपितु अपने वर्तमान दायित्वों का निर्वाह करते
हुए उन्होंने अखण्ड ज्योति पत्रिका का लेखन, सम्पादन एवं पाठकों का
मार्गदर्शन आदि वे सभी कार्य बड़ी कुशलता से करना शुरु किया, जो आचार्यश्री
छोड़कर गये थे । संपादन के प्रति उनके सूझबूझ भरे दृष्टिकोण ने दो ही वर्ष
में अखण्ड ज्योति के पाठकों की संख्या कई गुना बढ़ा दी । अखण्ड ज्योति,
युग निर्माण योजना, युग शक्ति गायत्री, महिला जागृति अभियान सहित कुल १३
पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक १४ लाख पाठकों
का व्यक्तित्व निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण एवं राष्ट्र-विश्व
निर्माण संबंधी मार्गदर्शन करती रहीं ।
सन् १९७१ में युग तीर्थ
शांतिकुंज हरिद्वार की स्थापना हो चुकी थी । गायत्री परिवार लाखों से
करोड़ों की संख्या में पहुँच रहा था । माताजी ने जहाँ कुशल संगठक के रूप
में इस परिवार की बागडोर सँभाला, वहीं उन्होंने नारी जागरण आन्दोलन द्वारा
देश-विदेश में नारियों को पर्दाप्रथा, मूढ़मान्यताओं से निकालकर उन्हें न
केवल घर, परिवार समाज में समुचित सम्मान दिलाया, अपितु धर्म-अध्यात्म से
जोड़कर वैदिक कर्मकाण्ड परंपरा में दीक्षित एवं पारंगत करके उन्हें
ब्रह्मवादिनी की भूमिका संचालित करने योग्य बनाया । आज उन्हीं के पुरुषार्थ
से देश-विदेश की लाखों नारियाँ यज्ञ संस्कारों का सफल संचालन कर रही हैं ।
विकट
से विकट परिस्थितियों में भी माताजी संघर्ष पथ पर डटी रहीं । जून १९९० में
आचार्य श्री के महाप्रयाण के बाद की घड़ियाँ कुछ ऐसी ही कठिन थीं ।
विक्षोभ की व्याकुलता तो थी, परअसीम संतुलन को बनाये रखा । अपने करोड़ों
परिजनों एवं हजारों आश्रमवासियों को ढाँढस बँधाया और संगठन की मजबूती एवं
विस्तार के साथ उसके उद्देश्य को सम्पूर्ण मानवता तक पहुँचाने के लिए
अक्टूबर ९० में ही शरद पूणमा कोनये शंखनाद की घोषणा की । १५ लाख लोगों के
विराट् जन समूह को आश्वस्त करते हुए कहा- 'यह दैवी शक्ति द्वारा संचालित
मिशन आगे ही बढ़ता जायेगा । कोई भी झंझावत इसे हिला नहीं सकेगा ।
देवसंस्कृति-भारतीय संस्कृति, विश्व संस्कृति बनेगी ।'
इसी के बाद
माताजी अपने नवीन कार्यक्रम में जुट गयी । जहाँ एक ओर पूरे विश्व में
सम्प्रदायवाद, जातिवाद दहाड़ रहा था, वहीं उन्होंने तथाकथित धर्माडम्बरियों
को ललकारते हुए कुशल सूझबूझ से २६ अश्वमेध यज्ञों के माध्यम से गायत्री
(सत्चिन्तन),यज्ञ (सत्कर्म) के निमित्त वातावरण बनाया, सभी मतों, धर्मों,
जातियों के लोगों को एक मंच पर लाकर समाज के लिए सोचने हेतु संकल्पित कराया
और सभी को छुआछूत के भेदभाव से ऊपर उठकर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने पर
सहमत किया ।
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