वह शक्ति केन्द्र है, जिसके अन्तर्गत विश्व के सभी दैहिक,
दैविक, भौतिक छोटे- बड़े शक्ति- तत्वों का समावेश है। यह छोटे- बड़े शक्ति
तत्व अपनी- अपनी क्षमता और सीमा के अनुसार संसार के विभिन्न कार्यों का
सम्पादन करते है, इन्हीं का नाम देवता है। ये ईश्वरीय सत्ता के अन्तर्गत
उसी के अंश रूपी इकाइयाँ हैं, जो सृष्टि संचालन के विशाल कार्यक्रम में
अपना कार्य भाग पूरा करते रहते हैं। जिस प्रकार एक शासन- तन्त्र के
अन्तर्गत अनेक अधिकारी अपनी- अपनी जिम्मेदारी निबाहते हुए सरकार का कार्य-
संचालन करते हैं, जिस प्रकार एक मशीन के अनेक पुर्जे अपने- अपने स्थान पर
अपने- अपने क्रियाकलापों को जारी रखते हुए उस मशीन की प्रक्रिया को सफल
बनाते हैं, उसी प्रकार ये देव तत्व भी ईश्वरीय सृष्टि- व्यवस्था के विभिन्न
क्षेत्रों की विधि- व्यवस्था का सम्पादन करते हैं।
है
।। समस्त ब्रह्माण्ड के अन्तराल में वही संव्याप्त है ।। जड़ जगत् का
समस्त संचालन उसी की प्रेरणा एवं व्यवस्था के अन्तर्गत हो रहा है ।। अन्य
प्राणियों में उसका उतना ही अंश है, जिससे अपना जीवन निर्वाह सुविधा पूर्वक
चला सकें ।। मनुष्य में उसकी विशेषता है ।। यह विशेषता सामान्य रूप से
मस्तिष्क क्षेत्र की अधिष्ठात्री बुद्धि के रूप में दृष्टिगोचर होती है ।।
सुख सुविधाओं को जुटाने वाले साधन इसी के सहारे प्राप्त होते हैं ।।
असामान्य रूप से यह ब्रह्म चेतना प्रज्ञा है ।। यह अन्तःकरण की गहराई में
रहती है ।। और प्रायः प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है।। पुरुषार्थी उसे
प्रयत्न पूर्वक जगाते और क्रियाशील बनाते हैं ।। इस जागरण का प्रतिफल
बहिरंग और अन्तरंग में मुक्ति बन कर प्रकट होता है ।। बुद्धिबल से मनुष्य
वैभववान बनता है, प्रज्ञाबल से ऐश्वर्यवान् ।। वैभव का स्वरूप है- धन, बल,
कौशल, यश, प्रभाव अर्जित ऐश्वर्य का रूप महान् व्यक्तित्व है ।। इसके पाँच
वर्ग हैं ।। सन्त, ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि ।। पांच देवों का
वर्गीकरण इन्हीं विशेषताओं के अनुपात से किया है ।। विभिन्न स्वरूप,
विभिन्न क्षेत्रों में प्रकट होने वाले उत्कृष्टता के ही पाँच स्वरूप हैं
।। वैभव सम्पन्नों को दैत्य (समृद्ध) और ऐश्वर्यवान् महामानवों को दैव
(उदात्त) कहा गया है।।
आद्य- शक्ति गायत्री
एक ही है, पर उसका प्रयोग विभिन्न प्रयोजनों के लिए करने पर नाम- रूप में
भिन्नता आ जाती है और ऐसा भ्रम होने लगता है कि वे एक दूसरे से पृथक तो
नहीं है? विचारवान जानते है कि बिजली एक ही है ।। उद्देश्यों और प्रयोगों
की भिन्नता के कारण उनके नाम रूप में अंतर आता है और पृथकता होने जैसा आभास
मिलता है ।। तत्त्वदर्शी इस पृथकता में भी एकता का अनुभव करते हैं ।।
गायत्री भी एक प्रकार की ईश्वरीय चेतना है, वह नारी है न नर।
फिर भी शास्त्रों में उसे जननी और माता कहकर ही सम्बोधित किया गया है। यह
पढ़कर कुछ कौतूहल अवश्य होता है, पर इसमें गलत कुछ भी नहीं है। गायत्री
महाशक्ति के स्वरूप और रहस्य को समझने के बाद इस विभेद का अन्तर स्पष्ट समझ
में आ जायेगा। वैसे जो उस महाशक्ति की उपासना मानकर भी उस महाशक्ति से
लाभान्वित हो सकते हैं, उसमें न तो कुछ हानि है और न कुछ दोष। माता स्वरूप
मानकर गायत्री उपासना कुछ सरल अवश्य हो जाती है, इसलिए शास्त्रकार ने उस
आद्यशक्ति को माता का स्वरूप दिया है।
गायत्री महामन्त्र भारतीय तत्त्वज्ञान एवं अध्यात्मविद्या का मूलभूत आधार है।
वट वृक्ष की समस्त विशालता उसके नन्हे से बीज में जिस प्रकार सन्निहित
रहती है, उसी प्रकार के के वेदों में जिए अविच्छिन्न ज्ञान- विज्ञान का
विशद वर्णन है, बीज- रूप से गायत्री मन्त्र में पाया जा सकता है।
भारतीय धर्म में प्रचलित उपासना- पद्धतियों में सर्वोत्तम गायत्री ही है।
उसे अनादि माना गया है। देवता, ऋषि, मनीषी उसका अवलम्बन लेकर आत्मिक प्रगति
के पथ पर आगे बढ़े हैं और इसी आधार पर उन्होंने समृद्धियाँ, सिद्धियाँ एवं
विभूतियाँ उपलब्ध की हैं। हमारा प्राचीन इतिहास बड़ा गौरवपूर्ण है। इस गौरव-
गरिमा का श्रेय हमारे पूर्व पुरुषों द्वारा उपार्जित आत्म- शक्ति को ही
है। कहना न होगा कि इस दिव्य उपार्जन में गायत्री महामन्त्र का ही
सर्वोत्तम स्थान है।
पुराणों में गायत्री महाशक्ति का निरूपण ब्रह्माजी की पत्नी के रूप में हुआ। ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म- पत्नी, अर्धांगिनी, अर्थात् क्षमता।
पौराणिक उपाख्यान के अनुसार अलंकार यह है कि ब्रह्माजी की दो पत्नी थीं,
एक गायत्री दूसरी सावित्री। गायत्री अर्थात् चेतन जगत् में काम करने वाली
शक्ति। सावित्री अर्थात् भौतिक जगत् को संचालित करने वाली शक्ति। भौतिक
विज्ञान सावित्री की उपासना कर विधान प्रस्तुत करता है। विभिन्न प्रकार के
वैज्ञानिक आविष्कार एवं उपकरण सावित्री शक्ति की अनुकम्पा के ही प्रतीक
हैं। गायत्री वह शक्ति है जो प्राणियों के भीतर विभिन्न प्रकार की
प्रतिभाओं, विशेषताओं और महत्ताओं के रूप में परिलक्षित होती है। जो इस
शक्ति के उपयोग का विधान- विज्ञान ठीक तरह जानता है वह उससे वैसा ही लाभ
उठाता है जैसा कि भौतिक जगत् के वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं, मशीनों तथा
कारखानों के माध्यम से उपार्जित करते हैं।
भारतीय तत्त्वदर्शियों ने इस ब्रह्म- चेतना की
सत्ता चिर अतीत में ही जान ली और उस शक्ति के मानव- जीवन में उपयोग करने की
प्रक्रिया का एक व्यवस्थित विधान बनाकर मानव- प्राणी के नगण्य अस्तित्व को
इतनी महत्तम स्थिति में परिणत किया था, जिससे स्वयं तक ब्रह्मभूत हो सकें।
इस विज्ञान का नाम ‘अध्यात्म’ रखा गया। अगण्य दृष्टिगोचर होने वाला अणु
आत्मा जिस प्रक्रिया का अवलम्बन करने से विभु बन सके, नर से नारायण के रूप
में विकसित हो सके- परम आत्मा, परमात्मा बन सके, उस विद्या का नाम अध्यात्म
अथवा ब्रह्म विद्या रखा गया । ब्रह्म अपने आप में दृष्टा मात्र है। वह ऐसा
है तो सही पर अपनी महत्ता एवं गरिमा के अनुरूप उत्पादन एवं व्यवस्था की
प्रक्रिया का भी निर्धारण करता है। उसकी सक्रियता- शक्ति यद्यपि उसी का
अङ्ग है तो भी उसकी क्रिया प्रणाली की भिन्नता देखते हुए उसे ब्रह्म की
पूरक सामर्थ्य भी कहा जा सकता है।
गायत्री का सबसे बड़ा जो गुण है, जिसके ऊपर गायत्री शब्द ही रखा गया है- '' गय ''। गायत्री किसे कहते हैं?' गय '' कहते हैं प्राण को
संस्कृत में। प्राण को मजबूत बनाने वाली, प्राण को ताकत देने वाली, प्राण
का त्राण करने वाले को गायत्री मंत्र कहते हैं। प्राण किसे कहते हैं? प्राण
कहते हैं, बेटे! हिम्मत को, प्राण कहते हैं, जीवट को और प्राण कहते हैं,
साहस को। दुनिया में जितने भी उन्नतिशील लोग हुए हैं, सब आदमियों के पास और
कोई गुण रहा हो, चाहे नहीं रहा हो, विद्या रही हो, चाहे नहीं रही हो,
शारीरिक बल रहा हो, चाहे नहीं रहा हो, पर एक चीज जरूर रही है- अच्छे कामों
के लिए साहस।