अखण्ड ज्योति संस्थान, घीयामण्डी, मथुरा में स्थित है । परमपूज्य गुरुदेव सीमित साधनों में अपने अखण्ड दीपक के साथ आगरा से आकर यहीं रहने लगे । यहीं से क्रमश: आत्मीयता विस्तार की जन- जन तक अपने क्रांतिकारी चिंतन के विस्तार की प्रक्रिया ''अखण्ड ज्योति'' पत्रिका, जो आगरा से ही आरंभ कर दी गई थी, इसकी ''गायत्री चर्चा'' स्तंभ व अन्यान्य लेखों की पंक्तियों के माध्यम से संपन्न होने लगी । व्यक्तिगत पत्रों द्वारा उनके अंतस्तल को स्पर्श कर एक महान स्थापना का बीजारोपण होने लगा । यही वह स्थान है, जहाँ आकर अगणित दुखी, तनाव ग्रसित व्यक्तियों ने गुरुदेव के स्पर्श से नए प्राण पाए तथा उनके व परम वंदनीया माताजी के हाथों से भोजन- प्रसाद पाकर उनके अपने होते चले गये ।

हाथ से बने कागज पर छोटी टेड्रिल मशीनों द्वारा यहीं पर अखण्ड ज्योति पत्रिका छापी जाती थी । छोटी- छोटी पुस्तकों द्वारा लागत मूल्य पर उसे निकालने योग्य खरच निकलता था । बगल की एक छोटी- सी कोठरी में जहाँ अखण्ड दीपक जलता था, वहीं पर आज भी पूजाघर विर्निमित है । पूरी बिल्डिंग को खरीदकर एक नया आकार व मजबूत आधार दे दिया गया है किंतु यह कोठरी अंदर से वैसी ही रखी गई है, जैसी पूज्यवर के समय ११४२ -४३ में रही होगी । तब से लेकर आगामी ३० वर्ष का साधनाकाल- लेखनकाल पूज्यवर का इसी घीयामण्डी के भवन में छोटी- छोटी दो कोठरियों में गहन तपश्चर्या के साथ बीता । तपोभूमि निर्माण की पृष्ठभूमि यहीं बनी, १९५८ के सहस्र कुण्डीय यज्ञ की आधारशिला यहीं रखी गई, यहीं सारी योजनाएँ बनी एवं विधिवत गायत्री परिवार बनता चला गया ।

रोज आने वाले पत्रों को स्वयं परम वंदनीया माताजी पढ़ती जातीं एवं पूज्यवर इतनी ही देर में जवाब लिखते जाते, यही सूत्र संबंधों के सुदृढ़ बनने का आधार बना । हर परिजन को तीन दिन में जवाब मिल जाता, शंका समाधान हो पत्र चला जाता । देखते- देखते एक विराट गायत्री परिवार बनता चला गया । गायत्री महाविज्ञान के तीनों खण्ड जो आज संयुक्त रूप से छापा गया है, युग निर्माण परक साहित्य, आर्षग्रंथों के भाष्य को अंतिम आकार देने का कार्य यहीं संपन्न हुआ । जन सम्मेलनों, छोटे- बड़े यज्ञों एवं १००८ कुण्डीय पाँच विराट यज्ञों, विदाई सम्मेलन की पूज्यवर ने यहीं से रूपरेखा बनाई । स्थायी रूप से इस घर से ११७१ की २० जून को विदा लेकर हरिद्वार शांतिकुंज चले गए । इस संस्थान के कण- कण में ऋषियुग्म की चेतना संव्याप्त है । पुस्तकों का प्रकाशन, कठोर तपश्चर्या, ममत्व विस्तार तथा पत्रों द्वारा जन- जन के अंतस्तल को छूने की प्रक्रिया यहीं से प्रारंभ हुई । परम वंदनीया माताजी जिन्हें भविष्य में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अपने आराध्य इष्ट अपने गुरु के लिए निभानी थी, उन्होंने यहीं भाव भरे आतिथ्य से सबको अपना बनाया । हर दुखी- पीड़ित को सांत्वना देकर ममत्व भरे परामर्श से गायत्री परिवार का आधार खड़ा किया, इसमें कोई संदेह नहीं है । विचार- क्रांति के बीज इसी भूमि में ऋषियुग्म ने बोए और सींचे हैं । भावात्मक क्रांति में ऋषियुग्म के असीम स्नेह को परिजन आज भी नहीं भूल पाते हैं ।

आज १० लाख से अधिक संख्या में अखण्ड ज्योति पत्रिका के प्रकाशन, विस्तार, डिस्पैच आदि का एक विराट तंत्र स्थापित है। इस स्थान पर दर्शनार्थी परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी के सूक्ष्म रूप में उपस्थित होने का अनुभव करते हैं । परमपूज्य गुरुदेव द्वारा लिखा गया, बोला गया एक- एक शब्द यहाँ से प्रकाशित ७० बड़े ग्रन्थों में वाङ्मय का प्रकाशन एवं प्रसार- वितरण यहीं से हो रहा है । पीड़ित और गरीब की सेवा के लिए यहाँ एक औषधालय चलाया जाता है । जहाँ आयुर्वेदिक, होमियोपैथिक, एलोपैथिक, यज्ञचिकित्सा, योग- प्राणायाम, फिजियोथैरेफी, मनोचिकित्सा आदि की व्यवस्था से सैकड़ों पीडि़तजन यहाँ से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते हैं ।

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