महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

भावी देवासुर संग्राम और उसकी भूमिका

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        प्राकृत रूप से मनुष्य एक दुर्बल किस्म का पशु है। जिस प्रकार अन्य पशु पेट पालते, प्रजनन करते, और परिस्थतियों का भला-बुरा प्रभाव भोगते हुए जीवन यापन करते हैं वैसे ही मनुष्य भी पैदा होता, अपनी जिन्दगी के दिन गुजारता, बढ़ता और मरता है। इस स्तर के हर व्यक्ति को नर पशु कहा जा सकता है। न उसके सामने कुछ लक्ष्य, न आदर्श, न उद्देश्य, न कर्तव्य, जैसे बने वैसे दिन गुजारने भर की बात वह सोचता है और परिस्थतियों के जुए में जुता हुआ अन्य असंख्य मरणधर्मा प्राणियों की तरह मौत के मुख में चला जाता है। जनसंख्या में लगभग आधे इसी स्तर के पाये जाते हैं।

        नर-पशुओं के जीवन में जो थोड़ा-बहुत आकर्षण है वह उनके निजी स्वार्थ का है। वे अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति, आकांक्षाओं की तुष्टि, अभावों की निवृत्ति के लिये यत्किंचित पुरुषार्थ करते हैं। जिनके सामने यह आकर्षण भी नहीं होता वे भूख, अभाव, दण्ड, असहयोग, तिरस्कार आदि प्रताड़ना का भय मानकर ही थोड़ा बहुत पुरुषार्थ करते हैं अन्यथा यदि इस प्रकार की बाधायें न हों तो उन्हें जड़ जीवन बिताने में तनिक भी संकोच न हो। जिसने इस स्तर का जीवन बिताया उन्होंने अपने प्रति एक भारी अत्याचार किया, यही मानना होगा।

        यह स्वार्थपरता जब उद्धत, उच्छृंखल, दुष्ट एवं आक्रमणकारी हो जाती है और मनुष्य किसी को भी, किसी भी प्रकार सताकर अपना लाभ उठाने एवं अहंकार पूरा करने के लिये निर्लज्जतापूर्वक कटिबद्ध हो जाता है तब उसे  नर-पिशाच कहते हैं। यों मोटे तौर से हत्यारे, कसाई, आतातायी, झगड़ालू, गुण्डे, निर्दय, कूरकर्मा आदि लोगों के लिये नर-पिशाच शब्द का प्रयोग किया जाता है, पर अब इसका परिष्कृत संस्करण तैयार हो गया है। उसमें ऐसी प्रत्यक्ष दुष्टता करने, कानून की पकड़ में आने और निन्दा का पात्र बनने की जरूरत नहीं पड़ती। लोग बाहर से सज्जनता का लबादा ओढ़े रहते हैं और भीतर ही भीतर ऐसी छुरी चलाते  रहते हैं जिससे असंख्यों का सर्वनाश होता है। उदाहरण के लिये मादक द्रव्यों के उत्पादन, प्रसार एवं व्यवसाय में लगे मनुष्य बाहर से सीधे-साधे से लगते हैं पर उनका मस्तिष्क धन तथा पुरुषार्थ कितने लोगों का, किस बुरी तरह आर्थिक नैतिक शारीरिक नाश करता है इसका कोई लेखा- जोखा तैयार किया जाय तो प्रतीत होगा कि उन्होनें लाखों मनुष्यों के जीवन में दुष्प्रवृत्तियों का बीज बोकर पतन के लिये जो व्यापक पथ प्रशस्त किया उस हानि का विवरण कितना रोमांचकारी है। ऐसे-ऐसे उदाहरण संगठित एवं व्यक्तिगत प्रयासों के भरे पड़े हैं जिनसे प्रतीत होता है कि स्वार्थपरता यदि अनियंत्रित हो तो वह कितनी भयंकर हो सकती है। चोरी, जेबकटी के पुराने, फूहड़-गन्दे तरीके अब गँबारों के हिस्से में चले गये हैं। शिक्षित लोगों ने ऐसी तरकीबें खोज निकाली हैं जिससे होता वही सब कुछ है पर पता किसी को नहीं चलता। रिश्वतें अब एक दस्तूर बन गयी हैं। असली में नकली की मिलावट अब हेय नहीं मानी जाती वरन् उसे ‘‘व्यापार चातुर्य’’ कहा जाता है । व्यक्तिगत जीवन में लोग कितने नीरस कितने स्वार्थी कितने विश्वासघाती और कितने निर्लज्ज हैं इसका परिचय बाहर से तो नहीं मिलता पर उनके दाम्पत्य जीवन की, पारिवारिक सौहार्द की अथवा सम्बन्धित व्यक्तियों की अनुभूतियों का पता लगाया जाय तो इन तथाकथित सफेदपोशों की काली कालिमा सामने आती है। इन्हें नर-पिशाच नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ?

        जन-साधारण में असुर और देव के बारे में बड़ी भ्रान्त धारणायें जड़ जमाये बैठी हैं। असुरों के बारे में माना जाता है कि उनका मुँह काला होता है, दाँत बड़े होते हैं, पशुओं की तरह सींग उगे होते हैं। देवताओं के बारे में मान्यता है कि वे गौरवर्ण, आनन्दधाम, स्वर्ग के निवासी, भक्त की सहायता के दौड़ आने वाले होते हैं। यह वर्णन अलंकारिक है। किसी अन्तरिक्ष लोक में इस प्रकार के प्राणी पाये जाने की सम्भावना नहीं। न इस पृथ्वी पर ही ऐसे जीवों का अस्तित्व देखा जाता है न प्राचीनकाल में था। मनुष्य की आन्तरिक व्यवस्थाओं के आधार पर ही यह देवदानव चित्रण अलंकारिक रूप से किया गया है। मुँह काला अर्थात् कलंक कालिमा, अपयश, निन्दा से आच्छादित घृणित जीवन। बड़े दाँत अर्थात् अधिक खाने, अधिक भोगनेकी दुष्प्रवृत्ति। सींग अर्थात दूसरे के साथ दुष्टता का बरताव करने की, सताने, टोंचने, मर्माहत करने की आदत। यह दुर्गुण जिस भी मनुष्य में हों, उसे असुर कहना चाहिये, भले ही वह रंग का गौरवर्ण रूपवान् ही क्यों न हो। इसी प्रकार जिनमें उदारता, संयम, परमार्थ, सेवा जैसी सत्प्रवृत्ति बड़ी-चढ़ी हों उन्हें देव कहना चाहिये। देव सदा पूजे जाते हैं उनका यश गाया जाता है, उनके सेवापूर्ण कर्तृत्व से असंख्य प्राणियों के शोक-संताप में कमी होती है। यह विभाजन आज भी आत्म-निरीक्षण करने वाले को यह बता सकता है कि वह असुर है या देव। उनका समय, श्रम, धन, चिन्तन कितना स्वार्थ सँजोने में लगता है कितना परमार्थ प्रयोजन में ? इसका लेखा-जोखा हम स्वयं ही तैयार कर सकते हैं क्योंकि बाहर वालों को असलियत मालूम नहीं होती। हमारी अन्तरंग स्थिति ही हमें देव अथवा असुर वर्ग की पंक्ति में बैठा सकती है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि परिवर्तन की भावी घड़ियों में हमें महाकाल की ऐडी से कुचले जाने का दण्ड भोगना है अथबा ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में संलग्न पार्षदों की पंक्ति में खड़े होकर विजय का वरण करना होगा।

       नर-पशुओं और नर-पिशाचों का बाहुल्प जब कभी भी संसार में होगा तो विपत्तियाँ आयेंगी और अगणित प्रकार की विभीषिकायें उत्पन्न होंगी। यह अभिवृद्धि जब चिन्ताजनक स्तर तक पहुँच जाती है तो ईश्वर की इस परमप्रिय सृष्टि के लिये सर्वनाश का खतरा उत्पन्न हो जाता है। इसी को बचाने के लिये उन्हें हस्तक्षेप करना पड़ता है, अवतार लेना पड़ता है। गीता में इस तथ्य का भगवान् ने स्पष्टीकरण किया है- “जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की अभिवृद्धि होती है तब साधुता का संरक्षण और दुष्टता का उन्मूलन करने के लिये मैं आत्मा का सृजन करता हूँ।”

अनैतिकता की दुरभिसन्धि का उन्मूलन करने के लिये एक व्यक्ति नहीं वरन् एक वर्ग ही समर्थ हो सकता है। इसलिये इन विषम परिस्थितियों में सदा ही एक ऐसे वर्ग को सतेज होना पड़ता है, जिसे अध्यात्म-भाषा में देव अथवा नर-नारायण और बोलचाल की भाषा में परमार्थ-परायण, सज्जन महापुरुष, नर-रत्न कहते हैं। यों इस वर्ग का अस्तित्व सदा बना रहता है। पृथ्वी धर्मात्माओं, सज्जनों, परमार्थियों और ईश्वर भक्तों से कभी रहित नहीं होती, पर देखा यह जाता है कि असुरता की बाढ़ में यह दैवत्व शिथिल पड़ जाता है। ग्रीष्म के आतप से जैसे दूब घास जल जाती है उसी प्रकार प्रोत्साहन न मिलने के कारण देवत्व की प्रवृत्ति भी सूख जाती है किन्तु जब भी सन्तुलन को स्थापित करने के लिये महाकाल का अभियान आरम्भ होता है तो यह विश्रृंखलित मूर्छित एवं उपेक्षित देव- श्रद्धा वर्षा के जल से हरी हुई दूब की तरह पुन: सजीव होकर अपना अस्तित्व सिद्ध करने लगती है।

       असुरता के अभिवर्धन को नियन्त्रित करने के लिये समय-समय पर देवत्व को सक्रिय एवं संघर्षरत होना पड़ा है। पौराणिक उपाख्यानों में इस तथ्य का पन्ने-पन्ने पर प्रतिपादन है। १८ पुराणों और १८ उपपुराणों में देवासुर संग्राम की सहस्रों कथायें विद्यमान हैं। छल-बल में असुर तगड़े पड़ते हैं फिर भी ईश्वरीय सहायता देव-वर्ग को मिलती है और अन्तत: वही जीतता है। असुरता को हर इतिहास में पराजय का ही मुँह देखना पड़ा है। दुष्टता के पास छल-बल से एकत्रित साधन बहुत होते हैं इसलिये कुछ उसका आतंक ऐसा छाया रहता है कि सर्वसाधारण को प्रतिरोध का साहस नहीं होता। किन्तु यह स्थिति देर तक नहीं रहती, सृष्टि का सन्तुलन न बिगड़ने देने में सतर्क भगवान् यथासमय देव-वर्ग को सजग करते हैं उसमें प्राण फूँकते हैं और देखते-देखते सामान्य प्रतीत होने वाले मनुष्य असामान्य उत्कृष्टता की भूमिका प्रस्तुत करने लगते हैं। निराशा, आशा में बदल जाती है। इन दिनों भी यही सब कुछ होने जा रहा है। पौराणिक देवासुर संग्राम की महती श्रृंखला में एक कड़ी अब और भी जुड़ने वाली है। अगले ही दिनों एक ऐसा बवण्डर सामने आने वाला है, जिससे असुरता का उन्मूलन और देवत्व का अभिवर्धन जो आज असम्भव लगता है कल की बदली हुई परिस्थितियों में पूर्ण सम्भव दीखने लगेगा।

            नर-पशुओं को भी यों असुरों में ही गिना जाता है क्योंकि वे उपद्रव की शक्ति न रखते हुए चलते अशिष्टता की राह पर हैं। मनुष्य जीवन के कुछ कर्तव्य हैं और कुछ उत्तरदायित्व। उन्हें पूरा न करके जानवरों की तरह पेट पालने और प्रजनन करने वाली नीति को अपनाये रहना मनुष्यता को कलंकित करता है। नियन्त्रण के अभाव में पशुता के जितने कदम आगे बढ़ते हैं वे कुमार्ग की ओर ही होते हैं। इसलिये इस वर्ग की गणना भी धरती के बोझ वर्ग में ही की जाती है।

        नर-पिशाच और नर-पशु दोनों मिलकर एक असुर-वर्ग बनता है और यही संसार में सब प्रकार के संकट उत्पन्न करने के लिये जिम्मेदार है। जिस प्रकार नगर भर की गंदगी को स्वच्छ करने का पवित्र उत्तरदायित्व हरिजन वर्ग उठाता है उसी प्रकार असुरता के द्वारा उत्पन्न की गयी समस्त विकृतियों और विपत्तियों के निवारण करने का भार देव-वर्ग पर रहता है। इस कार्य को यों वे सदा ही करते रहते हैं, न करें तो पाप के पहाड़ जमा हो जायें और दस-बीस वर्ष में ही यह दुनियाँ रहने के लायक न रहे। पर इस सफाई की भारी आवश्यकता तब युद्ध स्तर पर करनी पड़ती है, जब नगर में हैजा, प्लेग, चेचक, मलेरिया जैसे संक्रामक रोग फैलने का खतरा सामने प्रस्तुत होता है, उन दिनों तो चौगुने-सौगुने उत्साह से यह सफाई का कार्य पूरा किया जाता है। सेना के प्रहरी यों सदा ही सतर्क रहते हैं पर जब कभी शत्रु के आक्रमण का खतरा सम्मुख होता है, तब सीमा रक्षक सैनिकों को चौगुनी सतर्कता एवं जिम्मेदारी का परिचय देना पड़ता है। इन दिनों हैजा फैलने और शत्रु के आक्रमण से भी भयंकर खतरा मानव समाज के सम्मुख उपस्थित है। असुरता के उपदेश की प्रतिक्रिया संसार के कोने-कोने में कुहराम उत्पन्न किये हुए है। इस अवांछनीय स्थिति का निराकरण करने की जिम्मेदारी देव-वर्ग की है, उन्हें ही उठानी होगी। अनादि काल से यही होता चला आया है। असुरता के उपद्रवों का समाधान करने के लिए देवता सजधज के साथ मैदान में आते रहे। इसी के फल से देवासुर संग्राम हुए हैं और फलत: ईश्वरीय संरक्षण में देवताओं की विजय के साथ ‘‘परित्राणाय साधूना विनाशाय च दुष्कृताम्’’ का प्रयोजन पूर्ण ही हुआ है। यही अब फिर से होने जा रहा है।

        असुरता तब बढ़ती है जब उसकी प्रतिरोधी दैवी प्रकृति शिथिल पड़ जाती है। रात्रि तब आती है जब सूर्य अस्त हो जाता है। जहाँ प्रकाश होगा वहाँ अन्धकार कहाँ टिक सकेगा। इसी प्रकार आदर्शवादी उत्कृष्ट भावनायें जब मनुष्य के भीतर तीव्र लहरें उठाती रहती हैं तब असुरता को पैर टिकाने का अवसर नहीं मिलता। पशुता के लिये कोई अवसर नहीं रहता। देवत्व को प्रबल परिपुष्ट बनाने से वह वातावरण स्वत: तैयार होता है जो असुरता का उन्मूलन करके रख दे। इसमें संघर्ष के अवसर भी आते हैं। चींटी के पंख मरते समय ही उगते हैं तब वह दीपक को बुझाने के लिये उस पर आक्रमण करती है और इस दुष्प्रयत्न में स्वयं ही जल मरती है। देवत्व के प्रबल परिपुष्ट होने पर आसुरी तत्व भी ऐसे ही आक्रामक बनते हैं अन्ततः अपनी कुचेष्टाओं के फलस्वरूप विनाश के गर्त में गिर कर नष्ट हो जाते हैं।

देवत्व का जागरण एवं पोषण करने की तैयारी ही वह प्रयत्न है जिसके फलस्वरूप वर्तमान असुर-अन्धकार का निराकरण होगा। परिपुष्ट देवत्व से वह व्यापक प्रभाव उत्पन्न होगा जिससे प्रभावित होकर लोग पशुता और पिशाच वृत्ति का दुष्परिणाम समझ सकने योग्य विवेक एवं उन दुष्प्रवृत्तियों को त्याग सकने योग्य साहस कर सकें। देवत्व की बढी़ हुई प्रखरता मानवीय मन पर आच्छादित समस्त कषाय कल्मषों को धोकर रख देगी और यही आज नरक बनी हुई धरती कल स्वर्गीय सुख-शान्ति से सुसज्जित होगी।

       अगले दिनों देवासुर संग्राम होने वाला है उसमें मनुष्य और मनुष्य आपस में नहीं लडे़गे वरन् आसुरी और दैवी प्रवृत्तियों में जम कर अपने-अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष होगा। असुरता अपने पैर जमाये रहने के लिये देवत्व अपनी स्वर्ग सम्भावनायें चरितार्थ करने के लिये भरसक चेष्टा करेगे। इस विचार संघर्ष में देवत्व के विजयी हो जाने पर वे परिस्थतियों उत्पन्न होगीं, जिनमें हर व्यक्ति को उचित न्याय, स्वातन्त्र्य, उल्लास, साधन और सन्तोष मिल सके।

     असुरता इन दिनों अपने पूर्ण विकास पर है। देवत्व, सुषुप्त और विश्रृंखलित पड़ा है। आवश्यकता इस बात की है कि देवत्व जगे, संगठित हो तो युग की आवश्यकता एवं ईश्वरीय आकांक्षा की पूर्ति के लिये कटिबद्ध हो।  जिन आत्माओं में दैवी प्रकाश का आवश्यक अंश विद्यमान है  उनकी अन्तरात्मा में युग की पुकार सुनने और अपने पुनीत  कर्तव्य की दिशा में अग्रसर होने की अन्त: पुकार उठ रही है,  पर अभी वह इतनी धीमी है कि प्रोत्साहन की आवश्यकता अनुभव  को जा रही है। युगनिर्माण योजना के अन्तर्गत यही प्रयोजन पूरा किया जा रहा है।

       आशा करनी चाहिये कि वह दिन हम लोग अपनी इन्हीं आँखों से इसी जीवन में देखेंगे जबकि अगणित देव प्रवृत्ति के व्यक्ति अपने-अपने स्वार्थों को तिलांजलि देकर विश्व के नव-निर्माण में ऐतिहासिक महापुरुषों की तरह प्रवृत्त होगे और इन दिनों जिस पशुता एवं पैशाचिक प्रवृत्ति ने लोक-मानस पर अपनी काली चादर बिछा रखी है उसे तिरोहित करेगे। अनाचार का अन्त होगा और हर व्यक्ति अपने चारों ओर प्रेम, सौजन्य, सद्भाव सहयोग, न्याय, उल्लास, सुविधा एवं सज्जनता से भरा सुख शान्तिपूर्ण वातावरण अनुभव करेगा।

        उस शुभ दिन को लाने का उत्तरदायित्व देव वर्ग का है। उसी को जगना है, उसी को संगठित होना है, उसी को अविवेक के विरुद्ध संघर्घ में तत्पर होना है। वे जितने कम समय में अपना उत्तरदायित्व वहन करने को तत्पर हो सके उतना ही शीघ्र नवयुग का स्वर्णिम प्रभात उदय होते हुए हम देखेगे और धन्य होगे।
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