महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

दो में से एक का चुनाव

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       युग परिवर्तन की घड़ियाँ निकट आती चली जा रही हैं। यह एक सुनिश्चित तथ्य और ध्रुव सत्य है कि जिस घुटन भरे युग में हमें आज दिन गुजारने पड़ रहे हैं वह अधिक समय टिका नहीं रह सकता, यदि टिका रहे तो संसार को-मानव-समाज को - आज जिन कष्ट-कठिनाइयों से भरे नर्क में समय काटना पड़ रहा है उससे भी हजारों गुनी लोमहर्षक विभीषिकायें उपस्थित होंगी और उस रौरवीय दावानल में मानव जाति के हर सदस्य को तिल-तिल करके जल मरना होगा। भगवान् अपनी परम प्रिय रचना इस भूलोक को और अपने परमप्रिय मनुष्य को इस सीमा तक दुर्दशाग्रस्त नहीं होने देना चाहते, वे इसका सर्वनाश नहीं देखना चाहते इसलिये वे समय रहते ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने जा रहे हैं, जिससे यह सम्भावना भयावह सर्वग्राही रूप धारण करने से पूर्व ही सरल हो जाय।

       पिछले दिनों जिस कुमार्ग पर मनुष्य जाति चलती रही है उसके दुष्परिणाम क्रमश: अधिक परिपक्व होते चले आये हैं और अब वह स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसे आगे भी देर तक चलने दिया जा सकना असम्भव हो गया है। इस स्थिति का आमूल-चूल परिवर्तन हुए बिना और कोई रास्ता अब रहा नहीं। दो ही विकल्प हैं-एक सर्वनाश, दूसरा परिवर्तन। परिवर्तन के लिये यदि हम तत्पर नहीं होते तो फिर सर्वनाश के लिये तैयार होना पड़ेगा। सर्वनाश से बचना है तो परिवर्तन का स्वागत करना होगा। बीच का कोई रास्ता नहीं।

      अगले दिनों दुनियाँ दो भागों में बँट जायेगी, जिनमें एक उदार होगा दूसरा अनुदार। एक विवेकवान् वर्ग होगा दूसरा मूढ़ताग्रस्त। एक को देव कहा जायगा, दूसरे को दानव। मूढ़ताग्रस्त लोगों ने अपनी बुरी आदतों, दुष्प्रवृत्तियों और संकीर्णताओं से ग्रस्त होने के कारण सारे संसार को नरक तथा देवोपम मानव जाति को नर-पिशाचों के रूप में परिणत कर दिया है। उसमें वे कुछ भी बुराई अनुभव न करेगे और न उसे बदलना चाहेगे। पुराने ढर्रे पर चलते रहने का उनका आग्रह होगा। समय के अनुरूप वदलना उन्हें रुचेगा नहीं। इतना ही नहीं वे परिवर्तन का विरोध करेगे और मरते समय पंख उगने वाले चींटे की तरह प्रतिरोध की उछल-कूद भी तीव्र कर देगे। इस समुदाय को उसी वर्ग में गिना जा सकता है, जिसके बारे में गीता के ११ दें अध्याय में अर्जुन ने कहा था-

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्रा करालानि भयानकानि।
केचिद्धलग्ना दशनान्तरेषु। संदृश्यन्ते चूर्णितेरुत्तमांगै:।।

‘‘भगवान्! आपके विकराल डाढों वाले भयानक मुख में वे लोग प्रवेश करते हैं और कितने ही चूर्ण-विचूर्ण हुए सिरों सहित आपके दाँतों में उलझे हैं।”
 
यथा प्रदीप्तम् ज्वलनम् पतंगा
विशन्ति नाशाय समृद्ध वेगा:।
 तथैव नाशाय विशन्ति लोका
स्तवापि वक्त्राणि समृद्ध वेगा:।।

        ‘‘जैसे मोह ग्रसित पतंगे नष्ट होने के लिये प्रज्ज्वलित अग्नि में वेगपूर्वक प्रवेश करते हैं वैसे ही यह लोग भी अपने सर्वनाश के लिये आपके मुख में दौडते हुए जाते हैं।’’
जिन्हें मूढ़ता इस सीमा तक घेरे रहती है, उनकी संख्या इस संसार में कम नहीं। मरने के दिन अति निकट आ जाने और परिवार द्वारा पग-पग पर तिरस्कृत किये जाने पर भी अधिकांश वृद्धजन मोह-माया के दल-दल में अधिक गहरे फँसने के लिये कदम बढ़ाते रहते हैं। भविष्य को नहीं देखते, दुष्प्रवृत्तियों के परिणाम को नहीं सोचते वरन् आदतों से मजबूर पाप की गठरी ही सिर पर बोझिल बनाते चलते हैं। ऐसे लोग इस दुनियाँ में भरे पड़े हैं, उन पर न ज्ञान का असर होता है और न विवेक का प्रकाश पड़ता है। मदोन्मत्तों की तरह वे अपनी वेढंगी चाल चलते रहते हैं। इनका सुधारना कठिन देखकर महाकाल उनको गतिरोध का रोड़ा बनने देने से रोकने के लिये अपनी लात से कुचलकर रख देने को विवश होते हैं। खेत जोतते समय जो कड़े ढेले रह जाते हैं, किसी प्रकार उन्हें तोड़ने की किसान को व्यवस्था बनानी पड़ती है। युग-परिवर्तन के समय मूढ़ताग्रस्त वर्ग को अव्यवस्था से व्यवस्थित करने के लिये यही दैवी प्रकोप-चक्र गतिशील रहता है। अगले दिनों संसार में मानवीय और देवी स्तर पर जो उत्पीड़न होने वाले हैं उनका आधार यही है। दुष्टता से निपटने का यही सनातन मार्ग है। जहाँ ज्ञान को, विवेक को, तर्क को औचित्य को सफलता नहीं मिलती वहाँ दण्ड-प्रहार की करारी चोटें थोड़े ही समय में सब कुछ ठीक कर देती हैं। मनुष्य की चिर-संचित दुर्बुद्धि और हठवादिता बदली जानी आवश्यक है। इसी प्रयोजन के लिये ताण्डव नृत्य का सरंजाम जुटाना पड रहा है। दुष्टता के समर्थन में दुराग्रह करने वाले इन मोहान्त लोगों को कुचेष्टा ही वह विभीषिका है जिसके लिये दैवी और मानवी विग्रह विभिन्न रूपों में उत्पन्न होकर इस पुण्य धरित्री को रक्त-रंजित करेगे।

    इसी प्रतिपादन का एक दूसरा निष्कर्ष यह है कि इस सन्धि वेला में मानव जाति का सद्भावना सम्पन्न वर्ग विशेष रूप से सजग होगा और महत्वपूर्ण अवसर पर अपने विशिष्ट उत्तरदायित्वों को तन्मयता के साथ वहन करेगा। आपत्तिकाल में विवेकवान् व्यक्ति आपत्ति धर्म का पालन करते हैं। सामान्य स्थिति की साधारण गतिविधियों को वे कुछ काल के लिये रोक देते हैं और इस आपत्ति धर्म की पूर्ति के लिये विशिष्ट पुरुषार्थ करते हैं। उनकी यह दूरदर्शिता न केवल उनके यश, गौरव, आत्मसन्तोष, पुण्य एवं श्रेय-साधन का निमित्त बनती है वरन् उसके सत्प्रयोजनों से संसार की महती सेवा भी होती है। महाकाल को अपने पुण्य प्रयोजन में उपयुक्त सहायता भी इन्हीं पार्षदों से मिलती है।

    जब गाँव के छम्परों में आग लग रही हो तो बुद्धिमान् लोग अपनी सुरक्षा की दृष्टि से भी और परमार्थ की दृष्टि से भी उस आग को बुझाने के लिये निजी सब काम छोड़कर जुट पड़ते हैं। पुराने युग के पलटने और नये युग के प्रवेश करने का मध्यान्तर एक ऐसी ही सन्धि वेला है जैसी कि रात्रि के विदा होने और प्रभात के आगमन के अवसर पर होती है। इन घड़ियों में लोग साधारण काम-काज करने की अपेक्षा दैवी सम्बन्ध स्थापित करने की, पूजा-उपासना करने की, व्यवस्था करते हैं। उपयुक्त अवसर पर उपयुक्त कार्य का विशेष महत्व होता है। बीज ठीक समय पर बोया जाय तो अच्छी फसल उगने की सम्भावना अधिक स्पष्ट रहती है प्रबुद्ध आत्मायें इतनी अन्तःचेतना अपने भीतर धारण किये रहती हैं, इतना प्रकाश उनके अन्दर बना रहता है कि उपयुक्त अवसर को पहिचाने और विशेष आयोजन के लिये विशेष अवसर पर प्रस्तुत की गयी ईश्वरीय पुकार को सुनें और इस दैवी निर्देश के अनुरूप अपनी गतिविधियाँ मोड़ दें।

   ऐसी अन्तःप्रेरणा जिन्हें मिलती है वे अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व की उपेक्षा नहीं कर सकते। जीवन-यापन के सामान्य क्रम में व्यवधान सहकर भी आपत्ति कालीन युगधर्म को निबाहने के लिये तत्पर होते हैं। देश की सीमा सुरक्षा के लिये समय पर अगणित बलिदानी वीर सैनिक मोरचों पर जा पहुँचते हैं। जिनके भीतर ईश्वरीय प्रकाश की किरणें विद्यमान हैं वे युग परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर संकीर्ण स्वार्थों में हानि पड़ने की बात सोचकर अपना बचाव कर करने के लिये बहाने नहीं ढूँढ़ते। बिगुल बजने पर सैनिक कमर कसने के अतिरिक्त और कुछ सोचता ही नहीं संकटकाल में अवकाश प्राप्त सैनिक ड्यूटी पर लौट आते हैं। ऐसे विशिष्ट अवसर जैसा कि ऐतिहासिक सन्ध्याकाल इन दिनों उपस्थित है, सजग व्यक्तियों के लिये अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करने की चुनौती उपस्थित करते हैं और वे बिना अनुनय के सहर्ष स्वीकर कर लेते हैं।

   मूढ़तावादी मोहग्रस्त असुर-वर्ग और लोकमंगल की भूमिका सम्पादित करने में संलग्न देव वर्ग इन दोनों को ही अगले दिनों अपनी रीति-नीति की श्रेष्ठता-निकृष्टता प्रस्तुत करने का अवसर मिलेगा। दोनों को गतिविधियों के सत्परिणाम और दुष्परिणाम उपस्थित होगे और उनको देख- समझकर भावी पीढ़ी को यह निश्चय करने का अवसर मिलेगा कि उपरोक्त दोनों पद्धतियों में से कौन उपयुक्त और कौन अनुपयुक्त है। इनमें से किसे ग्रहण किया जाय और किसे त्यागा जाय ?

    अगले दिनों हमें इनमें से किसी एक वर्ग में सम्मिलित होना होगा, बीच में नहीं रहा जा सकता। महाकाल के विधान में प्रतिरोध प्रस्तुत करने वाले मूढ़तावादी लोगों में सम्मिलित रहना हो तो खुशी-खुशी वैसा करें और कराल-दण्ड के प्रहार सहने को तैयार रहें। यदि यह अभीष्ट न हो तो ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में सहायक बनकर चलना ही उचित है। तब हमें अपनी गतिविधियाँ अभी से बदलनी होंग़ी और उस पुण्य प्रक्रिया को अपनाना होगा जिसमें आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण दोनों का ही समान रूप से समन्वय हो।

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