महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

भगवान् परशुराम द्वारा कोटि-कोटि अनाचारियों का शिरच्छेद

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अति प्रचीन काल में सहस्रबाहु नामक एक मदान्ध राजा हुआ है। कहते हैं उसकी हजार भुजायें थी, इसी से उसका नाम सहस्रवाहु पड़ा। हो सकता है भुजायें उसकी दो ही हों। पर पाँच सौ सहयोगी राजा उसके ऐसे रहे हों जो हर बात में उसका समर्थन करते हों, उनका बल-पराक्रम अधिनायक के साथ पूरी तरह जुड़ा हुआ हो और वह उनकी शक्ति को अपनी शक्ति उनकी भुजाओं को अपनी भुजा मानता हो। अलंकारिक भाषा की यह उपमा इसी प्रकार ठीक प्रतीत होती है। सहस्रबाहु चक्रवती राजा था। उसके सहयोगी एवं अधीन राजाओं का विशाल भूखण्ड पर शासन था।

    सहस्रबाहु की निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता का महर्षि जमदग्नि विरोध करते थे, वे उसे अनीति न करने के लिये और प्रजाजनों को अनीति न सहने के लिये समझाते थे। इस पर राजा बहुत क्रुद्ध हुआ उसने महर्षि जमदग्नि का अपमान ही नहीं किया वरन् उन्हें इतनी शारीरिक पीड़ा भी दी, जिससे उनका देहावसान हो गया। जमदग्नि के पुत्र परशुराम जी को यह समाचार मिला तो वे बड़े दुःखी हुए। क्रोध उन्हें बहुत आया। जिस देश के राजा इतने उद्धत हो जायँ कि साधु, ब्राह्मणों का, लोकसेवी बुद्धिजीवियों का सहयोग तो दूर सम्मान भी न कर सके तो उनसे प्रजा का हित सम्पादन कैसे होगा ? इतना ही नहीं जिस निरंकुश शासन में त्रषियों का निर्मम उत्पीड़न हो, उसका तो ईश्वर ही रक्षक है। राजा की निरंकुशता से भी अधिक परशुरामजी को दुःख इस बात का हुआ कि प्रजाजन इस अन्याय को चुप बैठे देखते-सुनते रहे अनीति के प्रतिरोध का भी साहस उनमें न रहा। जहाँ के नागरिक अनीति के विरुद्ध आवाज न उठा सकें, प्रतिशोध न सही, प्रतिरोध की भावना जिनमें न रहे, उन्हें मृतप्राय: ही कहना चाहिये।

    पिता की मृत्यु का युवक परशुराम को दुःख अवश्य था, पर इससे भी अधिक दुःख उन्हें इसका था कि शासन इतना उद्धत हो उठा कि औचित्य का प्रतिपादन करने वाले बुद्धिजीवी तत्व को सहन कर सकना उसके लिये सम्भव न हो सका। इसके अतिरिक्त उनके लिये यह भी कम कष्ट की बात न थी कि प्रजाजनों की प्रतिरोध शक्ति कुण्ठित हो गयी। अनीति को सहन करना प्रतिरोध के लिये कुछ न करना कायरता और भीरुता का चिन्ह है, जिस समाज में ऐसे लोगों का बाहुल्य हो जाय उसका भविष्य स्पष्टत: अन्धकारपूर्ण है। अपने पिता के अपमान और अवसान को वे व्यक्तिगत हानि मान चुप होने के लिये मन को समझाते तो भी उनकी आत्मा शासन की दुष्टता और प्रजाजनों की भीरुता को सहने के लिये तैयार न हुई। उनके अन्तर में एक आग जलने लगी, जो कहती थी कि संसार को प्रगतिशील और शान्ति युक्त रहना हो तो अनीति का उन्मूलन होना ही चाहिये। अपनी शक्ति नगण्य हो तो भी जितना सम्भव हो उतना तो करना ही चाहिये।

       असहनीय अवांछनीय दुष्काल को उलट-पुलट डालने वाले महाकाल के पास परशुराम जी गये और अनीति उन्मूलन की शक्ति उपलब्ध करने के लिये भगवान् शंकर की कठोर तपश्चर्यापूर्वक आराधना करने लगे। अस्थिर मति, भावावेश ग्रस्त, उतावले, अधीर और तनिक-सी कठिनाई आने पर लक्ष्य छोड़ बैठने वाले ओछे मनृष्यों की  देवता कोई सहायता नहीं करते। वे जानते हैं कि साहसी दृढ़ प्रतिज्ञ, उदार और आत्म-विश्वासी लोग ही कोई बड़ा काम कर सकते हैं। जिनमें यह गुण न हो उन्हें वरदान आशीर्वाद या सहायता देना व्यर्थ है। वे बड़ी बातें सोच तो सकते हैं, पर बड़े काम कर नहीं सकते, ऐसे लोगों को कोई वरदान देना अपने आशीर्वाद को भी उपहासास्पद बनाना है। इसलिये शंकर जी उनकी तपश्चर्या और दृढ़ता को बहुत दिन तक परखते रहे। जब उन्हें विश्वास हो गया कि आदमी जीवट का है तो परशुराम जी को बुलाया अपना स्वरूप दिखाया और कहा—“हे लोकमंगल की आकांक्षा करने वाले दृढ़ब्रती उठ, मेरा सहयोग तेरे साथ है। निस्वार्थ भाव से परमार्थ प्रयोजन में संलग्न हर निष्ठावान की मनोकामना पूरी करता आया हूँ तेरी भी पूरी करूँगा।’’

      परशुराम ने महाकाल के चरणों में मस्तक झुका दिया और विनयपूर्वक कहा-“प्रभो! यदि मैं व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये रत्ती जितनी याचना भी आपसे करूँ तो मुझे घृणित कुत्ते की तरह आप दुत्कार दें, पर मैं तो लोकमंगल के लिये आपसे कुछ मांगने आया हूँ सो आप प्रसन्न हैं तो मुझे वह दें जिससे उन मस्तिष्कों का उच्छेदन कर सकूँ जो पाप और अन्याय से, अविवेक और अज्ञान से ग्रसित होकर अपना और संसार का विनाश कर रहे हैं।”

     महाकाल ने प्रसन्नता व्यक्त की और एक प्रचण्ड परशु उस युवक के हाथ में थमा दिया। वह अजेय था, अमोघ भी। इसे पाकर परशुराम बड़े प्रसन्न हुए। अब उन्होने उन दुर्दान्त दैत्यों को चुनौती देना आरम्भ कर दिया जिन्होनें कि उस समय की सज्जनता, प्रखरता और सुख-शान्ति को कुचल कर रख दिया था। जगह-जगह संघर्ष आरम्भ हुए। संघर्ष छोटे भी थे और बड़े भी। एक ओर सशस्त्र साधन सम्पन्न सेनायें थीं, दूसरी और परशुराम का परशु। संघर्ष हर स्तर पर हुए पर पुराणकारों के अनुसार विजयी अन्तत: परशुराम का परशु ही हुआ। अनाचारियों के उतने सिर कट-कट कर जमीन पर गिरे कि एक बार समस्त संसार में से अनाचारियों का पूरी तरह सफाया ही हो गया। कहते हैं कि छिपे दुष्टों की भी खोज चलती रही और वे छद्म वेश में जहाँ भी पाये गये उनके शिर काटे गये। कथा है कि इक्कीस बार ऐसे प्रयत्न हुए और उस समय की दुर्बुद्धि का पूर्णतया सफाया हो गया।

कथा में से तथ्य निकाला जाय तो स्पष्टत: यही है कि व्यापक अनाचार का निवास है मानवीय मस्तिष्क। रावण के दश सिरों में एक गधे का भी था। गधा अर्थात्-मूर्ख। वह समझदार तो था पर मूर्खता भी कम न थी। इसी तथ्य को अलंकारिक रूप में कहने के उद्देश्य से उसका एक शिर गधे जैसा दिखा कर प्रतिपादित किया गया है। सभी अनाचारियो के शिर परशुरामजी न काट डाले, इसका अलंकार यह है कि उनके शिरों का, दिमागों का आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। जो अनाचारी थे उन्हें सदाचारी बना दिया गया। यह अभियान २१ बार चलाया गया, ताकि विष वेलि का कोई अंकुर कहीं छिपा न रह जाय। भावनात्मक एवं बौद्धिक दुर्बुद्धि मनुष्य में गुप्त रूप से छिपी रहती है तो उसके बरसाती घास की तरह फिर उग आने और फैलने-फूलने लगने की आशंका बनी रहती है। इसलिये उसका २१ बार, बार-बार उन्मूलन करना ही उचित है। परशुराम जी ने वही किया भी।

        परशु का अर्थ हैं-प्रबल प्रचार। समर्थ ज्ञान यज्ञ। प्रभावी लोक-शिक्षण जन-मानस परिवर्तन के लिये सुनियोजित अभियान आवश्यक था। परशुराम जी ने इसी शस्त्र का उपयोग किया और महाकाल भगवान् सदाशिव ने उन्हें दिया भी वही था, यह शस्त्र धातुओं का बना भले ही न हो पर उसकी सामर्थ्य बज्र से बढ़कर थी। इन्द्र का लौह वज्र राज दण्ड जब कुण्ठित हो गया था तब तपस्वी दधीचि की अस्थियों का मानवीय ‘अणुबम’ प्रयोग किया गया था। वृत्रासुर जैसा अपराजेय असुर उसी से मरा था। पिछले दिनों इस शस्त्र का कितने ही लोग सफल प्रयोग करते रहे हैं। ईसाइयों के मजहब को जन्मे दो हजार वर्ष भी नहीं हुए कि उन्होंने अपने प्रभावी प्रचार के बलबूते संसार की एक-तिहाई जनता को एक अरब मनुष्यों को अपने धर्म में दीक्षित कर लिया। साम्यवाद का जन्म हुए एक शताब्दी भी पूरी नहीं हुई कि उसने डेढ़ अरब लोगों के मस्तिष्कों पर कब्जा कर लिया। इसी का नाम सच्चे अर्थों में सिर काटना है।

        तलवार से या फरसे से किसी का शिर काटने मात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इससे घृणा, द्वेष, रोष, असन्तोष और प्रतिशोध पनपता है। क्रिया की प्रतिक्रिया, प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया का कुचक्र शान्ति का नहीं अशान्ति का सृजन करता है। सिर काटने का सही तरीका किसी के विचार बदल देना ही है। वाल्मीकि, अँगुलिमाल, अजामिल, विल्वमंगल जैसे दुराचारी संत बन जाँय तो इस मस्तिष्क परिवर्तन को सिर काटना ही कहा जायगा। शिरफिरों के सिर सही करने के लिये कभी-कभी तलवार और फरसों की भी आवश्यकता पड़ सकती है पर वेहतर तरीका विचारों के बदलने का ही है। परशुरामजी ने यही अभियान चलाया था महाकाल ने उन्हें सफलता का आशीर्वाद वरदान दिया और सहयोग का प्रतीक प्रचण्ड परशु भी। उनकी रचनात्मक और संघर्षात्मक शक्तियाँ निर्धारित दिशा में लगीं तो लोक-मानस पर उसका प्रभाव पड़ा ही। तेजस्वी और निखरे हुए व्यक्तित्व, निस्वार्थ भाव से जिस लोक-कल्याण कार्य को हाथ में लेते हैं तो उसमें ईश्वर की सहायता भी मिलती है, और सफलता का पथ प्रशस्त होने में भी देर नही लगती।

     वर्णन है कि दैत्य सहस्रबाहु की हजार भुजाओं में से परशुराम जी ने अपने कुल्हाड़े के प्रहारों से ९९८ भुजायें काट दीं। वेचारे की कुल दो बाँहें ही शेष रह गयीं। अनीति के समर्थक तभी तक साथी बने रहते हैं जब तक इस साझेदारी में निर्बाध रीति से लाभ ही लाभ दीखता है। जब उन्हें लगता है कि प्रतिरोध प्रचण्ड हो रहा है और अपने को लांच्छित एवं लज्जित होने के साथ-साथ परास्त भी होना पड़ेगा तो उन्हें अनीति का साथ छोड़ते देर नहीं लगती। सहस्रबाहु अन्तत: अकेला दो भुजा वाला ही बचा।

     आज भी इतिहास उस प्राचीन कथा-गाथा की पुनरावृत्ति कर रहा है। पाप के सहस्रबाहु के अनेक साथी सहचर मिल रहे हैं और अपना योगदान देकर उसे समर्थ बना रहे हैं। अन्याय को, अविवेक को जब सफलता मिलती है तो वह मदान्ध हो जाता है। प्रबुद्धता उसे रोकती-टोकती है तो उसे तिरस्कृत ही नहीं करता प्राणघातक चोट भी पहुँचाता है। सहस्रबाहु ने जमदग्नि के साथ जो दुर्व्यवहार किया उसकी तुलनात्मक घटनायें पग-पग पर, पल-पल पर देखी जा सकती हैं। सहस्रबाहु को अजेय होने का अभिमान था आज की भौतिक सभ्यता भी कुछ ऐसा ही अहंकार साधे बैठी है।

    पाप का प्रतिरोध मानवता की पुकार है, वह पुकार किसी न किसी परशुराम के सिर पर चढ़ कर बोलती और अपना काम करती है। भगवान् का आशीर्वाद सहयोग और साधन परशु उसे मिलता है। फलत: तेजस्वी ईश्वरीय प्रतिनिधि वह काम कर सकने में समर्थ होते हैं जो दीखने में कठिन ही नहीं असम्भव जैसे प्रतीत होते हैं। समस्त पृथ्वी पर बिखरे हुए अनाचारियों के शिर काट डालना सो भी एक बार नहीं २१ बार यह एक अत्युक्ति लगती है पर यदि अज्ञान के विरुद्ध समर्थ संगठित सुनियोजित एक ऐसा सद्ज्ञान अभियान आरम्भ किया जाय जो जन-मानस को समुद्र मन्थन की तरह मथ डाले तो उससे सूर्य जैसा तेज, चन्द्रमा जैसा आरोग्य कल्पवृक्ष जैसी विपुलता, कामधेनु जैसी तृप्ति और अमृत जैसी पूर्णता उपलब्ध हो सकती है। लगता है इन दिनों यही सब कुछ हो रहा है। युग निर्माण के लिये प्रतिष्ठापित किया हुआ ज्ञान-यज्ञ लगता है अज्ञान और अनाचार से सम्बद्ध इस विश्व वसुन्धरा पर अमृतमयी शान्ति की घटायें बरसाने में सफल होगा और कोई परशुराम अपने महाकाल प्रदत्त के द्वारा अनाचार से उद्विग्न कोटि-कोटि शिरों को काटकर उनके पर गणेश जैसे पूज्य शिरों को प्रतिष्ठापित करेगा। इतिहास तेरी पुनरावृत्ति सफलतापूर्वक सम्पन्न हो।
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