अगले दिनों निश्चित रूप से एक बहुत बड़ी घटना घटित होने वाली है। इतनी बड़ी जिसकी तुलना में इतिहास की पिछली सभी परिवर्तन चर्चायें फीकी पड़ जायेंगी। प्राचीन काल में विज्ञान का इतना विकास नहीं हुआ था। जनसंख्या की दृष्टि से मनुष्य इतने अधिक नहीं बड़े फैले थे और न यातायात की इतनी त्वरा सुविधायें थी जितनी आज हैं। आज तो सारा संसार एक नगर की गली-मुहल्ले जैसा हो गया है। उन दिनों विद्वान तो थे पर सर्व साधारण तक विचारशीलता की हवा नहीं पहुँची थी। थोड़े लोग शक्ति सम्पन्न होते थे इसलिये उन्हीं की हार-जीत संसार की - स्थिति बदल देती थी, पर आज स्थिति एवं शक्ति का स्रोत नागरिकों तक जा पहुँचा है। इसलिये अब हर क्षेत्र का दायरा बहुत बढ़ गया है। इसी दृष्टि से भावी परिवर्तन अब तक के सभी परिवर्तनों की अपेक्षा अधिक बड़ा अधिक व्यापक और अधिक उथल-पुथल भरा होगा।
क्या राजनैतिक, क्या दार्शनिक, क्या वैज्ञानिक, क्या समाज शास्त्री, क्या अर्थ विशेषज्ञ, क्या अध्यात्मवादी सभी एक स्वर से यह अनुभव करते हैं कि जिस रास्ते पर आज दुनियाँ चल पड़ी है वह गलत और अनुचित है। इसकी प्रतिक्रिया हमें हर बीसवें साल एक ऐसा महायुद्ध लड़ने के लिये विवश करती हैं जिसमें उत्तरोत्तर धन जन की अपार हानि होती है और नई-नई समस्यायें उलझनें और गुत्थियाँ उठ खड़ी होती हैं। इसके अतिरिक्त मानव जाति की वर्तमान विचारधारा जन साधारण के जीवन को दिन-दिन अधिक बोझिल अधिक अशान्त और अधिक जटिल, अधिक कष्टकर और अधिक असफल बनाती चली जा रही है। आज भी कम विपन्नता नहीं हैं, आज भी सर्व साधारण को इन परिस्थितियों के कारण बहुत असंतोष, बहुत रोष और बहुत कष्ट है फिर यदि यही वातावरण बना रहा और जैसी कि सम्भावना है अगले दिनों और भी बिगड़ा तो यह दुनियाँ मनुष्यों के रहने लायक न रह जायगी। उलझनें इतनी अधिक बढ़ेगी कि लोग उन्हीं से मर खप कर नष्ट हो जायेगे।
यह परिस्थिति हर विचारशील को यह सोचने के लिये विवश करती है कि आज की रीति-नीति को बदला जाना चाहिये। बदलाव के स्वरूपों और तरीकों में अन्तर है पर यह निष्कर्ष सर्व सम्मत है कि आदमी को नेक और उदार होना चाहिये तथा उसकी गतिविधियाँ ऐसी हों जो एक-दूसरे से टकराने की नहीं स्नेह सहयोग की स्थिति पैदा करें। साधनों को विनाश के लिये विकास के लिये प्रयुक्त किया जाय। यही युग की पुकार है यही महाकाल की आकांक्षा है पर दुनियाँ एक नशेबाज की तरह है, जिसे अपने पुराने ढर्रे के दोष विदित होते हुए भी उसे बदलने में बड़ी कठिनाई प्रतीत होती है। परिवर्तन की बात सुनकर उसका जी घबराता है, डर लगता है। जो है सो ठीक। जो ढर्रा चल रहा है उसी लकीर पर लुढ़कते रहने में लोग सुविधा सोचते हैं। विवेक एवं औचित्य के स्थान पर सर्व साधारण की रुचि पुराने ढर्रे पर चलते रहने की है। यदि इस रुचि को बदला न जाय, लकीर के फकीर बने रहने की रूढ़िगत परम्पराओं से चिपके रहने की आदतों को न सुधारा जाय तो फिर तेजी से सर्वनाश के निकट जा पहुँचना ही एक मात्र परिणाम शेष रह जायगा।
अस्तु भावनात्मक एवं क्रिया-पद्धति की वर्तमान रीति-नीति में साधारण सुधार नहीं भारी परिवर्तन आज की एक अनिवार्य आवश्यकता बनकर सामने आया है और वह पूरा होकर रहेगा। जन-मानस में यह अभिलाषा अव्यक्त रूप से काम कर रही है। वे स्वयं बदलना भले ही पसन्द न करें पर परिस्थितियों को जरूर बदला देखना चाहते हैं। ऐसी जन आकांक्षा को अध्यात्मवादी दैवी प्रेरणा के रूप में देखते हैं। विश्व की सूक्ष्म परिस्थितियों का ज्ञान रखने वाले तत्वदर्शी इस प्रवाह के पीछे परब्रह्म-परमात्मा की महा प्रेरणा को कर्म करता हुआ मानते हैं। महाकाल ऐसी ही ईश्वरी शक्ति है जो अवांछनीय परिस्थतियों में अवांछनीयता को बदल देने का अपना काम अनादिकाल से अभीष्ट अवसरों पर बड़ी खूबी के साथ सम्पन्न करती रही है। उसी महाशक्ति की हलचलों को इन दिनों हर तत्वदर्शी अनुभव करता है और भावी परिवर्तन को अवश्यम्भावी मानता है। स्वभावत: ऐसे व्यापक परिवर्तनों के अवसर पर अवांछनीय तत्व प्रतिरोध करते हैं, गड़बड़ फैलाते और बाधा डालते हैं। उन्हें इस उद्धतता का सबक सिखाने के लिये दैव-दण्ड के करारे प्रहार सहने होते हैं। जितने बड़े परिवर्तन होते हैं, उतने ही उसके प्रतिरोध भी खड़े होते हैं और उतने ही कड़े वज्र दण्ड बरसते हैं। पहले भी यही होता रहा है अगले दिनों भी यही होने वाला है। इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करता रहता है। अब फिर लगभग उसी आधार पर थोड़े हेर-फेर के साथ घटनाचक्र प्रवर्तित होने वाला है।
यह महत्वपूर्ण जानकारियाँ इसलिये प्रस्तुत की गयी हैं कि यदि सम्भव है तो समय रहते अपने को और दूसरों को बदलने की चेष्टा की जाय इससे महाकाल के कार्य में सरलता होगी, कष्टों से संसार को बहुत कुछ राहत मिल जायगी और उपद्रवों की उग्रता अनावश्यक विक्षोभ पैदा करने में रुक जायगी। जिम्मेदार, ईमानदार और थोड़े ऊँचे उठे हुए लोगों को करना भी यही चाहिये, आग को बुझाने के लिये दैनिक कार्यों और सुविधाओं को छोड़ना ही उचित है। इसी औचित्य का उद्बोधन इस रहस्योद्घाटन का लक्ष्य है। अगला समय कैसा आयेगा उससे बदली हुई रीति-नीति किस प्रकार की होगी, इससे भलीभाँति समझकर यदि हम अपनी सोचने की पद्धति बदलें व महाकाल के निर्धारणानुसार चले, इसी में हमारा कल्याण है।
यहाँ यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिये कि इस परिवर्तन प्रक्रिया की अभीष्ट पृष्ठभूमि तैयार करने की ईश्वरीय जिम्मेदारी कुछ विशेष आत्माओं पर सौंपी गयी है। उनमें से बहुत कुछ को गायत्री परिवार के अन्तर्गत संगठित कर दिया गया है। जो बाहर हैं वे भी अगले प्रवाह में साथ हो लेंगी। यों देखने में हम एक साधारण स्तर का जीवन जीते हैं और बाहर से कोई विशेषता अपने अन्दर दिखाई नहीं पड़ती, फिर भी ‘‘परमार्थ प्रयोजनों के लिये बहुत कुछ कर गुजरने की अभिलाषा’’ एक ऐसा तत्व है जिसे ईश्वरीय प्रकाश एवं पूर्व जन्मों के संचित उत्कृष्ट संस्कारों का प्रवाह कह सकते हैं। अपनी यही विशेषता है। जिसके भीतर जितनी ईश्वरीय प्रयोजनों में सहयोगी बनने की तड़पन है वह उतना हो दिव्य आत्मा है। तड़पन पानी के स्रोतों की तरह है जो पहाड़ जैसी कठोरता को चीर कर बाहर निकल आती है। साधारण परिस्थिति के लोग भी उपयुक्त अवसर पर अपनी तड़पन क्रियान्वित करने का साहस कर बैठते हैं, तब वह साहस ही ईश्वरीय अवतरण के रूप में उन्हें सूर्य, चन्द्रमा की तरह चमका देता है। तड़पन का फूट पड़ना इसी का नाम अवतरण है।
अपने परिवार में एक से एक बढ़कर उत्कृष्ट स्तर की आत्मायें इन दिनों मौजूद हैं। वे जन्मी भी इसी प्रयोजन के लिये हैं। ऐसे महान् अवसरों पर उत्कृष्टता सम्पन्न सुसंस्कारी आत्मायें ही बड़ी भूमिकायें प्रस्तुत करने का साहस करती हैं। आंतरिक साहस उनकी सांसारिक सुविधाओं को मकड़ी के जाले की तरह तोड़-फोड़ कर रख देता है और लगता है यह व्यक्ति अपनी बिषम परिस्थितियों के कारण कोई कहने लायक काम न कर सकेगा। देखा जाता है कि वही ऐतिहासिक महापुरुष स्तर के काम करता है। यह और कुछ नहीं उत्कृष्ट सुयोजनों के लिये दुस्साहस कर बैठने की हिम्मत ही है जिसे ईश्वरीय प्रेरणा के रूप में परखा जा सकता है। हममें से अनेकों परिजन अभी अपनी ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत करने की बात सोच रहे हैं। कई उसके लिये कदम बढा रहे हैं। कई दुस्साहसपूर्वक अग्रगामी होने की स्थिति को छू रहे हैं। यह शुभ लक्षण हैं। यह इस बात के प्रमाण हैं कि जो कार्य हमें सौंपा गया है, जिसके लिये अपना यह महत्वपूर्ण जन्म है, अब उसकी पूर्णता के लिये अभीष्ट प्रकाश एवं साहस अपने अन्दर उत्पन्न हो चला और वह करने का समय आ गया, जो इन्हीं दिनों करना आवश्यक है।
इतिहास अपनी पुनरावृत्ति कर रहा है। अपना परिवार एक ईश्वरीय महान प्रयोजन की पूर्ति में सहायक बनने के लिये पुन: आ इकट्ठा हुआ है। अच्छा हो हम अपने को पहचानें और अतीत काल की सूखी स्मृतियों को फिर हरी कर लें। निश्चित रूप से हम एक अत्यन्त घनिष्ठ और निकटवर्ती आत्मीय परिवार के चिर आत्मीय सदस्य रहते चले आ रहे हैं। समय आने पर इसका रहस्य भी खुल जायगा, पर अभी वह समय नहीं आया। हम लोग इसकी हल्की सी झाँकी इस रुप में पा सकते हैं कि परस्पर हम में से किसका क्या सम्बन्ध रहा है और कितने समय पूर्व, किसने, किस प्रकार की दिव्य भूमिकायें सम्पादित की थी। थोड़ा-सा प्रयत्न करने पर यह अनुभव आसानी से हो सकते हैं। ऐसी जानकारी आत्मज्ञान की दृष्टि से श्रेयस्कर एवं सहायक ही होगी। रात्रि के अन्तिम भाग में प्राय: अन्तःचेतना स्पष्ट एवं निर्मल होती है। उस समय आँख खुलने पर बिस्तर में पड़े-पड़े ही अन्तःकरण को सामान्य विचारों से खाली करके इस अनुभव के लिये खुला छोड़ देना चाहिये कि अपने अतीत जन्मों एवं क्रिया-कलापों की हलकी-सी अनुभूति उससे प्रस्फुटित हो। कई दिन ऐसा प्रयास करते रहने से अनुभव में स्थिरता आ जायगी। हिलते हुए पानी की लहरों में प्रतिबिम्ब ठीक से नहीं दीखता पर जैसे-जैसे पानी का हिलना स्थिर होता जाता है प्रतिबिम्ब स्पष्ट दीखने लगता है। ठीक उसी प्रकार एक-दूसरे से भिन्न प्रकार के-परस्पर विरोधी एवं विसंगत अनुभव भी आयेगे पर थोड़े ही दिनों में कुछ अनुभूतियों बार-बार, अधिक स्पष्ट और अधिक वास्तविक प्रतीत होने लगेंगी। वे कई जन्मों की होंगी। इस प्रकार की अनुभूतियों को नोट करते रहा जाय तो स्थिति की बहुत कुछ सफाई हो सकती है।