लोकसेवियों के लिए दिशाबोध

जीवन नीति

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   लोकसेवी की जीवन नीति -

     लोकसेवा के लिए मन में उमंग और उत्साह उठने के तत्काल बाद उस ओर प्रवृत्त नहीं हुआ जा सकता। इसके लिए अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ता है। मान्यताओं में आवश्यक परिवर्तन करना पड़ता है तब कहीं जाकर सेवा- साधना सम्भव होती है। मनुष्य के पास थोड़ी- सी शक्तियाँ हैं और छोटा सा जीवन है। उसे लौकिक प्रयोजनों में लगा दिया जाय अथवा पारमार्थिक प्रयोजनों में, यह निश्चय स्वयं ही करना पड़ता है। अपने स्वार्थों के लिए हर कोई प्रयत्न करता है। लोक सेवी अपनी शक्तियों का सुनियोजन जन सेवा के लिए, परमार्थ कार्यों के लिए करता है अतः उसे अपनी आवश्यकताओं और सुविधाओं के लिए दूसरे से भिन्न दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और अपना जीवन स्तर, आवश्यकताओं तथा साधनों के उपयोग की रीति- नीति भिन्न रखनी चाहिए ।   

    प्रायः दृष्टिकोण न बदलने के कारण ही सेवा धर्म कठिन जान पड़ता है और उसका निर्वाह नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए आवश्यकताओं को ही लें। बहुत से व्यक्ति यह सोचते हैं कि सम्पन्नता और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य है और उसे प्राप्त करने में जो सफल हो गया वही धन्य है। लोक सेवी का दृष्टिकोण इससे भिन्न होना चाहिए। उसे साधनों की विपुलता नहीं, व्यक्तित्व की श्रेष्ठता को बड़प्पन का आधार मानना चाहिए। यदि ऐसा न हो सका, तो लोक सेवी उसी गोरखधन्धों  में उलझ कर रह जायेगा जिसमें कि दूसरे लोग उलझ जाते हैं। सर्वसाधारण की दृष्टि में सुविधायें और विलासिता के साधन ही जीवन की सार्थकता है। यद्यपि वे सभी को उपलब्ध नहीं होते परन्तु उसकी गतिविधियों का केन्द्रीय आधार वही रहता है। इच्छित स्तर की साधन सम्पन्नता हर कोई अर्जित नहीं कर पाता लेकिन लक्ष्य सभी का वही रहता है। लोक सेवी को सर्वसाधारण से भिन्न रीति- नीति अपनानी चाहिए।  

    अपने निर्वाह के लिए लोकसेवी कोकम से कम आवश्यकताएँ रखने का दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। समझा जाता है कि हम जितनी शान- शौकत और मौज- मजे में विलासितापूर्ण साधनों का उपयोग करेंगे उतना ही बड़प्पन मिलेगा। वस्तुतः यह सोचना गलत है। इसके लिए अपनी बड़प्पन की परिभाषा बदलनी चाहिए। बड़प्पन धन- सम्पत्ति या शान- शौकत से नहीं उत्कृष्ट और आदर्श व्यक्तित्व तथा महान् बनने वाले सद्गुणों से मिलता है। प्राचीन काल में लोक सेवी परम्परा के अन्तर्गत जितने भी संत, ऋषि, विचारक, मनीषी और महापुरुष हुए उन्होंने यही दृष्टिकोण अपनाया। ऋषियों के रहन- सहन की सादगी इतनी सुविख्यात है कि उस संबंध में कुछ भी कहना पुनरुक्ति ही कहलायेगा। चाणक्य- जिन्होंने भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने के लिए चन्द्रगुप्त का मार्गदर्शन किया, हमेशा एक कुटिया में रहे। यदि वे चाहते तो अपने लिए प्रचुर साधन सुविधायें जुटा सकते थे और सुविधा सम्पन्न जीवन व्यतीत कर सकते थे। लेकिन लोक सेवियों की आदर्श परम्परा की रक्षा के लिए उन्होंने न्यूनतम आवश्यकता की मर्यादा का ही पालन किया ।  

    इस युग में भी न्यूनतम आवश्यकताओं को रखते हुए जीवन व्यतीत करने वाले महापुरुष हुए हैं और उन्हें भरपूर श्रद्धा मिली है। गोपालकृष्ण गोखले, महर्षि अरविन्द, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, गाँधी आदि मनीषी महामानवों का जीवन तो तीस- चालीस वर्ष पूर्व की ही बात है। उन्होंने अच्छी सम्पन्न स्थिति में रहते हुए भी न्यूनतम साधनों का उपयोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया। गोपालकृष्ण गोखले अच्छी सम्पन्न स्थिति के थे और आमदनी भी उन्हें पर्याप्त होती थी। पर उन्होंने अपने लिए यह मर्यादा बना ली थी कि परिवार के लिए तीस रुपये से अधिक खर्च नहीं करेंगे। उन्होंने आजीवन इसी मर्यादा का पालन किया। महर्षि अरविन्द जब इंग्लैण्ड़ से शिक्षा प्राप्त कर लौटे, तो उनकी नियुक्ति बड़ौदा के एक कॉलेज में ५०० रुपये माहवार पर हुई। चाहते तो वे अच्छा ठाठ- बाठ का जीवन व्यतीत कर सकते थे। लेकिन उन्होंने निश्चय किया कि पचहत्तर रुपये में अपना गुजारा चलायेंगे और वास्तव में उन्होंने अपने निश्चय के अनुसार ही जीवन स्तर रखा। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को पाँच सौ रुपये प्रतिमास मिलते थे लेकिन उन्होंने अपने लिए पचास रुपये की ही व्यय सीमा रखी और आजीवन उसी स्तर को कायम रखते हुए सेवा धर्म का पालन करते रहे ।  

    महात्मा गाँधी एक सस्ता- सा कपड़ा- धोती ही पहनते थे और सादे से सादा भोजन करते थे। इसी में उन्हें संतोष की अनुभूति होती थी और जन साधारण से निकट की आत्मीयता की अनुभूति भी प्राप्त होती रही थी। अपने बीच का अपनी स्थिति का व्यक्ति मानकर लोगों ने उन्हें जो सम्मान दिया वह बीसवीं शताब्दी में शायद ही किसी व्यक्ति को मिला है।

    यहाँ दो- चार महापुरुषों की ही चर्चाएँ की गयी हैं। अन्यथा संसार में जितने भी महान् व्यक्तित्व हुए हैं उन्होंने आवश्यकताओं के सम्बन्ध में अनिवार्यता का दृष्टिकोण अपनाया। सुकरात के सम्बन्ध में कहते हैं जब भी वे कोई वस्तु खरीदते या कोई नया साधन जुटाते, तो उसके पहले अपने आप से यह प्रश्र करते कि क्या इस वस्तु के बिना मेरा काम नहीं चल सकता है? यदि उत्तर हाँ में मिलता तो वे खरीदते अन्यथा उस विचार को छोड़ देते थे। कम साधनों में निर्वाह, गौरव और गरिमा की बात है यह दृष्टिकोण विकसित किया जा सके, तो न अभावों की समस्या रह जाती है और न किसी बात की कमी होने की शिकायत रह जाती है ।   

    यह समझा जाता है कि यदि साधारण स्तर का जीवन व्यतीत किया जाय तो लोग हमें घटिया, दरिद्र या कंजूस समझेगें ।  लोगों की मान्यताएँ बनती और बिगड़ती रहती है। अन्यथा न सादगी का कभी अपमान हुआ है और न उसके प्रति किसी में घृणा उत्पन्न हुई है। बल्कि सादगीपूर्ण कम आवश्यकताओं में ही अपना गुजारा चला लेने वाले व्यक्तियों को असाधारण सम्मान मिला है। महात्मा गाँधी खद्दर की एक धोती भर पहनते थे और जन साधारण जिन्हें अनुपयोगी और निम्नस्तरीय साधन उपकरण समझते हैं, उनका प्रयोग करते थे। लेकिन इससे उनके सम्मान में कोई कमी नहीं आयी। अपितु सर्वसाधारण भी उन्हीं  साधनों को अपनाने में गौरव अनुभव करने लगें ।   

    सामान्य रूप से लोग फूहड़पन और गन्दे रहन- सहन को जरूर घृणा की दृष्टि से देखते हैं, किन्तु सादगी को सम्मान देते हैं। छोटे तबके के लोगों को लोग गिरी हुई निगाह से इसलिए नहीं देखते कि उनके पास पर्याप्त वस्त्र नहीं होते अथवा और दूसरे साधनों का अभाव रहता है। उनके प्रति असम्मान की भावना तब उभरती है जब वे आलसी होने के कारण गन्दे और मूर्ख होने के कारण अव्यवस्थित रहते हैं। कम वस्त्र या कम साधन होने से कोई छोटा या गिरा हुआ नहीं हो जाता। गिरावट आती है अस्वच्छता और अव्यवस्था से। इस प्रकार लोकसेवी को बड़प्पन की मान्यता परिष्कृत करनी चाहिए। अपना जीवन स्तर सादा, स्वच्छ तथा सुव्यवस्थित रखना चाहिए। सादगी पूर्ण वेशभूषा और न्यूनतम आवश्यकताएँ, यह सिद्धान्त अपने जीवन में समाविष्ट कर लेना चाहिए। सुरुचिपूर्ण सादगी को ही अपनी गौरव गरिमा समझने की दृष्टि विकसित की जानी चाहिए ।   

    लोकसेवियों को अपने स्वरूप की गौरव गरिमा का ध्यान रखने के लिए उज्ज्वल चरित्र और धवल व्यक्तित्व की आवश्यकता अनुभव करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में यह मान्यता बनायी और अपनायी जाय कि हम जो कुछ भी करना चाहें, जो कुछ भी शिक्षा दें वह वाणी से कम और व्यक्तित्व से अधिक उद्भूत हो। कहने का अर्थ यह है कि लोकसेवी अपनी गरिमा को समझें और उसे अक्षुण्ण बनायें। अपने स्वरूप और वेष के गौरव को प्राचीन काल में साधु, ब्राह्मण लोक सेवियों की परम्परा में ही मानते थे, किन्तु आजकल ये शब्द रूढ़ हो गये हैं और वर्ग विशेष का अर्थ बोध कराते हैं, क्योंकि इस नाम से सम्बोधित व्यक्तियों ने भी वही रीति- नीति अपनाना आरम्भ कर दिया जिसे कि सर्वसाधारण अपनाता रहा। बल्कि इस दृष्टि से तो उनकी रीति- नीति और भी विकृत हो गयी। कारण कि यह वर्ग जन श्रद्धा का भी दोहन करने लगा। अन्यथा एक समय था जबकि साधु वेश का अर्थ ही निस्पृह, अपरिग्रही और सेवाभावी व्यक्ति समझा जाता था। उस बहुरूपिये की कहानी प्रसिद्ध है जिसने एक राजा के कहने पर कोई बड़ा कमाल दिखाने और बड़ा इनाम लेने की बात कही थी। उस कमाल के लिए बहुरूपिया साधु बन कर बैठ गया था और राजा ने उस साधु के सामने सिक्के, अशर्फियों तथा मुहरों का ढेर लगा दिया पर साधु बने बहुरूपिये ने उस ओर आँख तक उठा कर नहीं देखा। बाद में जब रहस्य खुला और राजा ने पूछा- तुम्हारे सामने इतनी सम्पदा का ढेर लगा हुआ था, यदि तुम चाहते, तो उसे ले सकते थे, अब तुम्हें कितना इनाम मिल सकता है? इनाम की तुलना में तो वह भेंट कई गुना ज्यादा थी ।   

    बहुरूपिये ने तब यही उत्तर दिया था कि- ‘ यदि मैं वह भेंट स्वीकार कर लेता तो उससे साधु वेश की मर्यादा समाप्त हो जाती और अब लोगों के हृदय में साधु के प्रति जो श्रद्धा है वह कम हो जाती।’ कहने का अर्थ यह कि साधु, ब्राह्मण- लोकसेवा ही जिनका जीवन लक्ष्य था अपनी मर्यादाओं और नियमों के प्रति इतनी दृढ़ निष्ठा रखते थे कि जन सामान्य उस वेश को देखकर ही श्रद्धानन्द हो उठता था। लोकसेवी को भी अपना स्वभाव, अपना रहन- सहन और अपना आचरण इस स्तर का रखना चाहिए कि उसे देखकर ही लोगों में लोकसेवी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो ।   

    इसके लिए आत्म निर्माण की साधना करनी पड़ेगी। अपनी कमियों को खोजना और दूर करना, दुष्प्रवृत्तियों को हटाना तथा सत्प्रवृत्तियों को अपने स्वभाव का अंग बनाना होगा। व्यक्तित्व की दृष्टि से लोकसेवी को अपना विकास इतना प्रखर और उच्च करना चाहिए कि उसकी वाणी से अधिक उसके कर्म प्रेरक बनें ।   

    व्यक्तिगत रूप से अपने दृष्टिकोण को साफ करने और उसमें उज्ज्वलता, धवलता का समावेश करने के साथ ही परिवार के सम्बन्ध में भी अपने दृष्टिकोण और रीति- नीति को परिष्कृत कर लेना चाहिए। कहा जा सकता है कि हम तो कष्ट साध्य जीवन जी लेगें, लेकिन परिवार के लिए तो पर्याप्त साधन चाहिए। लोकसेवा का व्रत ग्रहण करने के नाते अपनी आवश्यकताओं को तो कम किया जा सकता है, लेकिन बच्चों की सुविधाओं में तो कटौती नहीं की जानी चाहिए।

    यदि यह दृष्टिकोण अपनाया गया तो सादगी नाम मात्र की चिह्न−पूजा बनकर रह जायेगी। सेवा- साधना के लिए सादगी जिन कारणों से आवश्यक है वे कारण भी पूरे नहीं हो सकेंगे- जैसे सादगी के कारण जन साधारण में अपनत्व की भावना जागती है। कहना नहीं होगा कि लोग, लोक सेवी के साथ- साथ परिवार के सम्पर्क में भी आयेंगे। परिवार के सम्पर्क में आने पर जब ठाठ- बाट और वैभव- विलास ही दिखाई देगा तो लोकसेवी की निष्ठा पर लोगों को संदेह होने लगेगा और वे लोकसेवी के रहन- सहन को नाटकीय समझने लगेंगे। यह भी हो सकता है कि वे सोचें- अपने और अपने परिवार के लिए तो इन्होंने सारे साधन जुटा लिए हैं और हमें सादगी से रहने का उपदेश दे रहे हैं ।    

    वैसे भी परिवार के लिए साधन सम्पत्ति इकट्ठी करना या पर्याप्त सुविधायें जुटाना अनावश्यक है। न केवल अनावश्यक वरन् अनेक दृष्टि से तो घर के बच्चों और स्वजनों के संस्कार बिगाड़ने जैसा है। उदाहरण के लिए आज परिवार में इतनी सम्पत्ति है या इतना धन इकट्ठा कर लिया गया कि बच्चों को कभी पैदल चलने की जरूरत ही न पड़े। साइकिल, रिक्शा या स्कूटर जैसे साधन जुटा दिये गये, सभी सुविधायें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने से एक तो बच्चे को शरीर श्रम से जी चुराने की आदत पड़ेगी। दूसरा कभी संघर्ष पूर्ण परिस्थितियाँ आयीं तो उन परिस्थितियों में निर्वाह बड़ा मुश्किल हो जायेगा ।    
    परिवार के लिए सुविधा साधन जुटाने और धन- सम्पत्ति इकट्ठी करने के स्थान पर घर के सदस्यों में सद्गुणों का संवर्धन और उत्कृष्टता का अभिवर्धन किया जाय, तो अधिक श्रेयस्कर है। धन संचय और सम्पत्ति संग्रह कर घर के बच्चों को निकम्मा और आलसी बना देने की अपेक्षा अच्छा है कि उन्हें परिश्रमी, पुरुषार्थी और जीवट वाला तथा सद्गुणी बनाया जाय। संतान सुयोग्य हो या अयोग्य, दोनों ही स्थिति में उनके लिए धन सम्पत्ति एकत्रित कर छोड़ जाना व्यर्थ है। किसी संत ने इसी को लक्ष्य कर कहा है-

    पूत सपूत तो क्यों धन संचय ।  
    पूत कपूत तो क्यों धन संचय ॥    

    अर्थात्- संतान यदि सुयोग्य है तो उसके लिए सम्पत्ति संग्रह की क्या आवश्यकता, क्योंकि अपने निर्वाह लायक उपार्जन तो वह अपनी योग्यता द्वारा ही कर लेगी और संतान यदि अयोग्य है, तो उसके लिए भी सम्पत्ति संग्रह व्यर्थ है क्योंकि वह सारी सम्पत्ति अपनी अयोग्यता के कारण शौक- मौजों में नष्ट कर देगी।   

    अपना आदर्श, परिवार के लिए भी प्रेरक बनता है। प्रायः अभिभावक स्वयं अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर बच्चों के लिए सुविधा- साधन एकत्रित करते हैं। यदि बच्चों को अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने की चेष्टा की जाय, उनके व्यक्तित्व को परिष्कृत और संस्कारित बनाने के लिए प्रयास किये जायें, तो उसके सुखद भविष्य की संभावना अधिक रहती है। धन सम्पत्ति से नहीं, गुण और योग्यताओं से ही भविष्य का निर्माण होता है। इस दृष्टि से परिवार के सदस्यों को परिमार्जित करने में समय लग सकता है। उसके लिए मूर्तिकार सा धैर्य रखना चाहिए। एक साधारण से पत्थर को मूर्ति का रूप देने में मूर्तिकार लम्बे समय तक परिश्रम करता है और मनोकल्पित स्वरूप को साकार हुआ देखने के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता है। लोकसेवी को चाहिए कि वह अपनी संतान को, परिवार के सदस्यों को आदर्शों के साँचे में ढालने के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता रहे, स्वयं भी वैसा जीवन जिए एवं घर में भी वैसा वातावरण विनिर्मित करता रहे।
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