लोकसेवियों के लिए दिशाबोध

सात प्रतिबन्ध

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प्रज्ञा परिजनों के लिए सात प्रतिबन्ध -

     जून १९७१ में जब पूज्य गुरुदेव अनिश्चित काल के लिए हिमालय यात्रा पर जा रहे थे और वन्दनीया माताजी ने भी मथुरा छोड़कर शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में रहने का निर्णय किया था, उस समय पूज्य गुरुदेव ने अपने अनुयायियों के लिए सात अनिवार्य प्रतिबन्ध घोषित किये थे। उन्हें युग निर्माण मासिक में भी प्रकाशित किया गया था तथा अलग से प्रपत्र छपवाकर भी वितरित किए गये थे। प्रति प्रतिबन्ध उसी रूप में यहाँ दिए जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें अनिवार्य अनुशासनों के रूप में जन- जन तक पहुँचाने से ही मर्यादाहीनता एवं भटकावों से बचा जा सकता है। सन् ७१ के बाद पूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीया माताजी द्वारा स्थूल देह त्याग तक की काल अवधि में उक्त अनुशासनों के स्वरूप में जो स्वाभाविक परिवर्तन हुए हैं, उन्हें अलग से टिप्पणियाँ देकर स्पष्ट किया गया है। नैष्ठिक परिजनों को इन पर खास ध्यान देना चाहिए तथा इस संदर्भ में पूरी जागरूकता बरतनी चाहिए कि इनका उल्लंघन किसी भी क्षेत्र में न किया जाये और न करने दिया जाये। पूज्य गुरुदेव द्वारा स्थापित अनुशासनों की जानकारी के अभाव में ही जनता भ्रमित होती है, ऐसी स्थिति यथाशक्ति न आने दी जाय।    

१. संगठन-

 युग निर्माण आन्दोलन के हर सदस्य और हर शाखा का सीधा सम्बन्ध केन्द्र से रहे। क्षेत्रीय प्रान्तीय संगठन अलग से खड़े न किये जायें, परस्पर सहयोग करना दूसरी बात है पर ऐसे मध्यवर्ती संगठन आमतौर से व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षा की पूर्ति और केन्द्र से प्रतिद्वन्द्वता करने के लिए ही बनते हैं। इन प्रयासों को पूर्णतया निरुत्साहित किया जाएँ।  केन्द्र को हम इतना समर्थ बनाये जा रहे हैं, भविष्य में बनाते रहेंगे कि वह भारत का ही नहीं समस्त विश्व का एक स्थान से समुचित सूत्र संचालन कर सकें।   तब से अब तक अपने मिशन के अनुयायियों की संख्या बहुत बढ़ गयी है। संगठन की तमाम क्षेत्रीय इकाइयाँ शाखाओं, मण्डलों एवं पीठों के रूप में स्थापित हो गई हैं। फिर भी यह तथ्य आज भी अपनी जगह स्थिर है कि कोई किसी के अधीन नहीं है। सबको केन्द्र से सीधा सम्पर्क बनाये रखने का अधिकार है। क्षेत्रीय परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार परस्पर सहयोग द्वारा संगठित होकर कार्य करने वाली इकाइयाँ श्रेय की पात्र कही जाती हैं। जगह- जगह समर्थ सहयोगी तंत्र भर खड़े करने के प्रयास करना अभीष्ट हैं।   

२. गुरुदीक्षा-

    समर्थ गुरुदीक्षा दे सकने योग्य अभी कोई अपना अनुचर हम नहीं छोड़ सके हैं। असमर्थ व्यक्ति यह महान् उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठावेंगे तो उनकी कमर टूट जायेगी और जो उनका आश्रय लेगा वह डूब जायेगा। इसलिए भविष्य में गायत्री मंत्र की गुरु दीक्षा लेनी आवश्यक हो तो लाल मशाल के प्रतीक को ही गुरु बनाया जाय। उस संस्कार संकल्प को कोई भी व्यक्ति करा सकेगा पर वह स्वयं गुरु न बनेगा ।  

    पूज्य गुरुदेव बहुत स्पष्ट कर गये हैं कि जैसे सिक्खों में ‘ग्रंथ साहब ’ तथा रा. संघ में ध्वज को ही गुरुरूप में स्वीकार किया गया है। उसी प्रकार गायत्री परिवार- युगनिर्माण अभियान के अन्तर्गत ‘ लाल मशाल ’ के प्रतीक को ही गुरुरूप में मान्यता दी जाये। युग शक्ति के रूप में अवतरित आदि शक्ति गायत्री की दीक्षा गुरुतत्त्व के इसी प्रतीक के माध्यम से दी जाती रहेगी। इस संदर्भ में यह सूत्र ध्यान देने योग्य हैं १. दीक्षा गायत्री महाविद्या की कही जायेगी। २. वेदमाता- देवमाता गायत्री को विश्वमाता के रूप में सबके लिए सुलभ बनाने वाले इस युग के विश्वामित्र वेदमूर्ति तपोनिष्ठ युगऋषि पं. आचार्य श्रीराम शर्मा इस विधा के आचार्य हैं। श्रद्धालुओं को उन्हीं की सूक्ष्म एवं कारण सत्ता का संरक्षण प्राप्त रहेगा और उन्हीं के प्राण, तप एवं पुण्य के अंश ही श्रद्धालुओं में दिव्य चेतना की कलम लगाने जैसे चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करेंगे। ३. स्थूल रूप से कर्मकाण्ड सम्पन्न कराने वाले- मंत्र दुहराने वाले परिजन इस विधा में योगदान करने वाले सम्माननीय सहयोगी भर कहे जायेंगे। लोक श्रद्धापूर्वक जो दान देते हैं, उन्हें लोक मंगल के उद्देश्यों में ही लगाया जाना चाहिए। व्यक्तिगत आवश्यकता पूर्ति के लिए दान लेने की परम्परा ने ही लोकसेवियों को श्रद्धा के पात्र के स्थान पर दया का पात्र बनाया है और उनकी साधना सदाशयता पर प्रश्नचिह्न लगाये हैं। उक्त अनुशासन को मानकर चलने से लोक सेवियों की प्रामाणिकता बनाये रखकर भी उनने निर्वाह की व्यवस्था सहज ही की जा सकती है। इस अर्थ प्रधान युग में अर्थानुशासन के इस सूत्र को विशेष जागरूकता के साथ अपनाया जाना चाहिए।

३. सम्मेलन- यज्ञ- 
  युग निर्माण सम्मेलन कितने ही विशाल क्यों न ही किये जायें पर उनके साथ जुड़े हुए गायत्री यज्ञ आमतौर से ९ कुण्ड से बड़े न किये जाने चाहिए। जहाँ कोई विशेष कारण हो, अधिक बड़ा यज्ञ करना अनिवार्य हो तो उसे माता भगवती देवी की विशेष स्वीकृति से ही किया जाय। बड़े यज्ञों के जहाँ बड़े लाभ हैं, वहाँ उनमें बड़ी गड़बड़ियाँ भी देखी गई हैं। इसलिए यह थोड़े कुण्डों का मध्यवर्ती मार्ग अपनाना ही दूरदर्शिता पूर्ण है।    

    यज्ञायोजनों के पीछे पूज्य गुरुदेव के कुछ सुनिश्चित उद्देश्य रहे हैं, जैसे-

    १. यज्ञीय ज्ञान एवं विज्ञान को लुप्त होने से बचाकर जनोपयोगी बनाना।  
    २. यज्ञायोजनों के माध्यम से जीवन के यज्ञीय अनुशासनों का जन सामान्य को परिचय एवं प्रशिक्षण देना।
    ३. यज्ञों के साथ जन सम्मेलन करके ज्ञानयज्ञ के माध्यम से विचार क्रान्ति का विस्तार करना।    

    सामूहिक यज्ञायोजनों से उक्त उद्देश्यों की पूर्ति तो होती रहती है। इसलिए पूज्य गुरुदेव ने अन्ततः समाज को यज्ञीय प्रेरणाएँ देने के लिए दीपयज्ञों सहित सम्मेलनों की परिपाटी चलाने का निर्देश दिया। दीपयज्ञों द्वारा यह उद्देश्य कुण्डीय यज्ञों की अपेक्षा अधिक प्रभावी ढंग से सम्पन्न होते हैं। कुण्डीय यज्ञों को केवल सामूहिक साधनाओं की पूर्णाहुति के रूप में साधकों द्वारा अपने ही साधनों द्वारा सम्पन्न करने की मर्यादा वे स्थापित कर गये हैं। इन अनुशासनों को ध्यान में रखकर चलने से अवांछनीय प्रतिक्रियाओं से बचते हुए यज्ञीय जीवन दर्शन का लाभ जन- जन तक पहुँचाया जा सकेगा।    
    ४. यज्ञाचार्यों का अलग पद न रहे। युग निर्माण सम्मेलनों सहित हो जा यज्ञ होंगे उनका सूक्ष्म रूप में हम संरक्षण करेंगे। फिर इसके लिए किसी यज्ञाचार्य- ब्रह्मा आदि की जरूरत न रहेगी। जिन्हें विधि विधान ठीक तरह आते हों उनमें से कोई भी उस कृत्य को प्रसन्नतापूर्वक करा सकता है।    
    ५. जलयात्रा, विसर्जन आदि के जुलूसों में गायत्री माता, लाल मशाल के प्रतीकों को ही सुसज्जा के साथ निकाला जाय। व्यक्तियों का जुलूस न निकले। इस प्रतिबन्ध से अनावश्यक अहंकार एवं ईर्ष्या, द्वेष को प्रश्रय न मिलेगा।  
    ६. आशीर्वाद वरदान देने माँगने का सिलसिला व्यक्तिगत रूप से न चलाया जाय। ईश्वर और व्यक्ति के बीच में कोई मध्यस्थ न बने। जिनमें सामर्थ्य नहीं है वे यदि वरदान आशीर्वाद का सिलसिला चलाते हैं तो यह एक ठगी ही होगी। हमारे अनुयायियों में से कोई ऐसा मिथ्या प्रलोभन लोगों को देकर उन्हें भ्रमित करने का प्रयत्न न करे।    

७. दान दक्षिणा-
    व्यक्तिगत रूप से कोई दान- दक्षिणा न ले। जिन्हें आवश्यकता है वे संघ के माध्यम से लें और जिन्हें देना हो वे व्यक्ति को न देकर संघ को दें। इस प्रथा से भिक्षा वृत्ति, परिग्रह, दीनता, तंगी आदि अनेक दुष्प्रवृत्तियाँ पनपने से रुक जायेंगी।    

    लोक श्रद्धापूर्वक जो दान देते हैं, उन्हें लोक मंगल के उद्देश्यों में ही लगाया जाना चाहिए। व्यक्तिगत आवश्यकता पूर्ति के लिए दान लेने की परम्परा ने ही लोकसेवियों को श्रद्धा के पात्र के स्थान पर दया का पात्र बनाया है और उनकी साधना सदाशयता पर प्रश्नचिह्न लगाये हैं। उक्त अनुशासन को मानकर चलने से लोक सेवियों की प्रामाणिकता बनाये रखकर भी उनने निर्वाह की व्यवस्था सहज ही की जा सकती है।
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