लोकसेवियों के लिए दिशाबोध

लोक व्यवहार

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लोकसेवी का लोक व्यवहार कैसा हो -

         लोकसेवी को दूसरों से सम्पर्क करते समय, उन्हें सत्प्रेरणाएँ प्रदान करते समय निन्दा, आलोचना से हमेशा बचना चाहिए। हो सकता है वह आलोचना सुधार की भावना से की गयी हो, पर सुनने वाले के मन पर उससे उलटी ही प्रतिक्रिया होती है। वह अपना अपमान समझने लगता है और बैर को बाँध लेता है जैसे किसी से कहा जाय ‘ आप बड़े गलत आदमी हैं ऐसे काम क्यों करते हैं ? ’  तो उस वाक्य में व्यक्ति के प्रति घृणा की भावना ही व्यक्त होती है। कहने वाला भले सदाशयी हो पर वह अपने मन में शत्रुता की गाँठ बना लेना। यदि सुधार की भावना से कहना था, तो यों कहना ज्यादा ठीक रहता कि- ‘ इस काम में तो हानियाँ हैं। ये दोष हैं, ये दुष्परिणाम हैं। आपने भूल के कारण ऐसा कर लिया भविष्य में बचें तो अच्छा है, ताकि इससे होने वाली हानियाँ न उठानी पड़ें। ’ आवश्यक लगने पर इस भूल को सुधारने के लिए मार्गदर्शन भी दिया जा सकता है।   

    लेकिन ऐसे सुझाव भी किसी के सामने दिये जाएँ तो वह भी सुनने वाले को ठेस पहुँचायेंगे, इसलिए निन्दा आलोचना तो की ही न जाय, सुधार के उद्देश्य से त्रुटियाँ भी अकेले एकांत में जहाँ लोकसेवी और वह व्यक्ति हो, ऐसे स्थान पर बतायी जायें। निन्दा आलोचना से बचते हुए समीक्षा और सुझाव एकान्त में दिये जायें पर प्रशंसा- सराहना करने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने दिया जाय। सेवा कार्यों में जो भी व्यक्ति कोई सहयोग देने के लिए आते हैं, उनमें अच्छे तत्त्वों की, परमार्थ निष्ठा की मात्रा रहती ही है। प्रशंसा करने पर व्यक्ति के कार्यों और उसकी निष्ठा को सराहा जाने पर उसे अच्छे तत्त्वों के विकास की प्रेरणा मिलती है, प्रशंसा सबके सामने की जाय, पर उस प्रशंसा के साथ यह सतर्कता कि व्यक्ति में मिथ्याभिमान न आने लगे।   

    अनावश्यक प्रशंसा से व्यक्ति में मिथ्याभिमान भी उत्पन्न होता है और वह प्रशंसा चापलूसी के स्तर की बन जाती है। प्रशंसा और चापलूसी में वही अन्तर है जो अमृत और विष में। प्रशंसा से व्यक्ति को प्रोत्साहन मिलता है और वह अपना उत्कर्ष करने की ओर बढ़ने लगता है जबकि चापलूसी व्यक्ति में मिथ्याभिमान जगा देती है जो उसे पतन के गर्त में धकेल देती है और दिग्भ्रमित कर देती है। प्रशंसा और चापलूसी की एक कसौटी है। जब किसी व्यक्ति के गुणों को सराहा जाता है, उसके कार्यों के साथ ही उसकी निष्ठा भावना को भी सम्बोधित किया जाता है तो वह प्रशंसा होती है। उसे साधारण से साधारण व्यक्ति भी यह अनुभव करने लगता है कि हमें इन गुणों के कारण प्रशंसा मिल रही है अतः इन गुणों का विकास करना चाहिए। चापलूस व्यक्ति के स्वर में प्रायः हीनता का भाव रहता है तथा वह जिसकी प्रशंसा की जा रही है उसकी तुलना उसी स्तर के व्यक्ति से भी करता है और तृतीय पुरुष को हर दृष्टि से घटिया सिद्ध करने की चेष्टा करता है।   

    प्रशंसा से प्रोत्साहन तो मिले पर उसके कारण अहंकार न जागे इसलिए प्रशंसित व्यक्ति की न किसी से तुलना की जाय और न ही उसके दोषों को गुणों के रूप में बखान किया जाय। इस तरह की प्रशंसा व्यक्ति को अभीष्ट दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। कमियाँ और विशेषताएँ सभी में होती हैं। स्वयं लोकसेवी भी पूर्णतः निर्दोष या समस्त विशेषताओं से युक्त नहीं होता। अपनी कमियों को हम जिस प्रकार दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, साथ ही यह भी पसन्द नहीं करते कि उनकी चर्चा सार्वजनिक रूप से चर्चित होना या सबके सामने सुनना पसन्द नहीं करता। जहाँ तक हो सके अपनी ओर से उन्हें व्यक्तिगत लक्ष्य कर न कहा जाय तो ही अच्छा रहता है। सामान्य सिद्धान्त के रूप में उनका विशेषण अलग बात है, अन्यथा व्यक्तिगत टीका- टिप्पणी के रूप में उनकी चर्चा करना सम्बन्धित व्यक्ति के मन में कटुता उत्पन्न कर देता है। कार्यकर्त्ताओं को अपने दोषों को सुधारने के साथ गुणों के विकास को प्रोत्साहन दिया जाय, तो लोकसेवी की सुधार चेष्टा में और भी प्रखरता आ जाती है।   

    जनसम्पर्क के समय शिष्ट और शालीन व्यवहार तथा प्रशंसा और प्रोत्साहन के साथ- साथ लोकसेवी को चर्चा संवाद में धैर्यवान् भी होना चाहिए। लोकसेवी को निश्चित रूप से लोगों तक अपनी बात पहुँचानी है, व एक सन्देश लेकर पहुँचना है पर लोग उसे अपने प्रतिनिधि तथा मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं। इसलिए वे अपनी समस्याओं और कठिनाइयों को उसके सामने रखना चाहते हैं और लोकसेवी से यह आशा करते हैं कि वह उनकी बातों को धैर्यपूर्वक सुनेगा, उसकी कठिनाइयों पर ध्यान देगा तथा उनका समाधान सुझाएँगा। इस जन- अपेक्षा की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए तथा न ही अपनी बात कहने के लिए उतावलेपन से काम लिया जाय। लोकसेवी जन सामान्य के पास एक सन्देश लेकर पहुँचता है, सन्देश सुनाया जाय, अपनी बात कही जाय पर करने की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब सुनने वाला सुनने के लिए तैयार हो।

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