लोकसेवियों के लिए दिशाबोध

युग शिल्पी अहमन्यता के विषपान से बचे रहें -

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    (लोकसेवियों को सप्त महाव्रतों के पालन की प्रेरणा देने के साथ ही पूज्यवर ने दो पत्रक और जारी किये थे। एक में सेवा- साधना के बीच मिलने वाले आकर्षक विषों से बचने का तथा दूसरे में अध्यात्म क्षेत्र में वरिष्ठता प्रदान करने वाली सेवा की सहचरी विनम्रता को संकल्पपूर्वक विकसित करने का निर्देश दिया था। दोनों आलेख क्रमशः दिए जा रहे हैं। )   

    समुद्र मंथन में चौदह रत्न निकले पर उनमें सर्वप्रथम दो निकले- एक हलाहल विष, तदुपरान्त मद्य। हलाहल देखने में अत्यंत आकर्षक, नील वर्ण था। मद्य होठों तक पहुँचते- पहुँचते उन्मुक्त, विक्षिप्त कर देने वाला। फिर भी उसकी ललक ऐसी थी कि जिसको एक बार स्वाद लग जाता है फिर छूटने का नाम ही नहीं लेता। इस प्रथम उपलब्धि को पाने के लिए देव- दानव दोनों ही आतुर थे। पर प्रजापति ने दोनों को ही यह समझाने का प्रयत्न किया कि यह देखने और चखने में आकर्षक लगते हुए भी अन्ततः विनाश उत्पन्न करने वाला है। शिवजी ने हलाहल तो अपने कंठ में धारण कर लिया, पर मद्य के लिए आतुर दैत्यों ने हठपूर्वक उसको गटक लिया फलतः उनकी सामर्थ्य उद्धत प्रयोजनों में लगी और पतन- पराभव का कारण बनी।   

    लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले के सम्बन्ध में जन साधारण की श्रद्धा उमड़ती है। परमार्थ की साहसिकता अपनाने वाले पर सम्मान बरसता है। उसकी प्रशंसा होती है। प्रशंसा भी एक सम्पदा है। सम्पदाओं की उपयोगिता तो है पर उनके पीछे एक ऐसा आवेश भी रहता है जो हजम न हो सके तो लाभ के स्थान पर विनाश ही उत्पन्न करता है। धन हजम न हो तो दुर्व्यसन उत्पन्न करेगा। बुद्धि हजम न हो तो कुचक्र षड्यंत्र रचेगी। बल हजम न हो तो उद्दण्डता के रूप में प्रकट होगा। हजम न होने पर अमृत भी विष बन जाता है, यश हजम न हो तो ऐसा अहंकार बनता है जिसकी तुष्टि के लिए लोक सेवी को अपना चिंतन , चरित्र, व्यक्तित्व एवं भविष्य हेय स्तर का बनाकर उतना पतित बनना पड़ता है, जितना कि सेवा से सर्वथा दूर रहने वाले सामान्य श्रमिक भी नहीं गिरते। लोक सेवियों में से अधिकांश को अपने व्यक्तित्व और सेवा क्षेत्र में ऐसे विग्रह उत्पन्न करते देखा जाता है, जिसे दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहा जा सकता है और सोचना पड़ता है कि यदि यश हजम कर सकने में असमर्थ लोग, लोक सेवा के क्षेत्र में न आया करें तो वे अपनी और समाज की अधिक सेवा कर सकते हैं ।   

    मनुष्य को पतन- पराभव के गर्त में गिरा देने वाली तीन दुष्प्रवृत्तियाँ हैं, वासना, तृष्णा और अहंता। शिश्नोदर परायण नर पशु वासना, तृष्णा के लोभ में जकड़े रहकर किसी प्रकार कोल्हू के बैल की तरह नियति चक्र में परिभ्रमण करते हुए दिन गुजार लेते हैं। पर अहंता को चैन कहाँ? वह सारी प्रशंसा, सारा बड़प्पन, सारे अधिकार अपने ही हाथ में रखना चाहती है। दूसरे की साझेदारी उसे सहन नहीं। इसी विडम्बना ने सर्वाधिक विग्रह उत्पन्न किए हैं। लगता तो यह है कि लालच के कारण अपराध होते हैं, पर वास्तविकता यह है कि अहंता ही जहाँ- तहाँ टकराती और प्रतिशोध से लेकर आक्रमण, अपहरण, उत्पीड़न के विविध अनाचार उत्पन्न करती है। अन्याय के अवरोध तो कहने भर की बात है, वह तो जहाँ- तहाँ, जब- तब ही दृष्टिगोचर होते हैं। वास्तविकता यह है कि सामन्तवादी अनाचारों का कारण भी यही है, वहाँ अहंता ही उद्धत बनी और टकराई है। अनाचारों का विश्व इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि अभाव या अन्याय के विरुद्ध नहीं अधिकांश विग्रह और युद्ध मूर्धन्य लोगों ने अहंता की परितृप्ति के लिए खड़े किये है। कंस, रावण, हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, सहस्रबाहु, जरासन्ध जैसे पौराणिक और सिकन्दर, नेपोलियन, चंगेजखान , आल्हा-ऊदल जैसे बर्बर लोगों ने जो रक्तपात किए उनके पीछे उनकी दर्प तुष्टि के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं था ।   

    यह चर्चा इन पंक्तियों में इसलिए की जा रही है कि युग शिल्पियों के द्वारा आरम्भिक उत्साह में जो कार्य अपनाया जा रहा है, उसमें लोक मंगल का परमार्थ प्रयोजन दृष्टव्य होने के कारण श्रेय, सम्मान एवं यश तो स्वभावतः मिलना ही है। यह पचे नहीं और उद्धत हो चले तो पागल हाथी की तरह अपना, साथियों का तथा उस संगठन का विनाश करेगा, जिसके नीचे बैठकर अपनी स्थिति बनाई है। हाथी पागल होता है तो अपनों पर ही टूटता है। इसी प्रकार लोकेषणा जब पागल होती है, तो सर्वप्रथम वह साथियों को मूर्ख, छोटा, अनुपयुक्त, दुष्ट सिद्ध करने का प्रयत्न करती है, ताकि तुलनात्मक दृष्टि से वह अपनी विशिष्टता सिद्ध कर सके। समान साथियों में मिल- जुल कर रहने में महत्त्वाकाँक्षी का अपना वर्चस्व कहाँ उभरता है। इसलिए उसे साथी पेड़- पादपों का सफाया करना पड़ता है ताकि समूचे खेत में एक अकेला ही कल्पवृक्ष होने की शेखी बघार सके।
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