लोकसेवियों के लिए दिशाबोध

दृष्टिकोण कैसा हो ?

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लोकसेवी का दृष्टिकोण कैसा हो ?

      किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण और जीवन की दिशा निर्धारित करने का काम क्षण भर में नहीं हो जाता। स्वयं अपना निर्माण भी अनवरत प्रयासों से कई फिसलनों और भटकावों के बाद हुआ है, तो अपने निकटवर्तियों से शीघ्रता की आशा कैसे की जा सकती है। खास तौर से उस स्थिति में जबकि लोकसेवी का अपना रुझान आदर्शों की ओर था, टीस भी थी। जबकि दूसरों में तो अभी लगन निष्ठा भी पैदा करनी है। इसके लिए क्रमबद्ध शिक्षण और धैर्यपूर्वक प्रयास आवश्यक हैं।   

    आदर्शों पर दृढ़ रहने की निष्ठा परिवार वालों में भी आदर्शों के वरण की ललक जगाती है। लोकसेवी द्वारा अपने आदर्शों की कीमत पर उन्हें प्रेरणा प्रदान करने का कार्य प्रभावशाली ढंग से सम्पन्न नहीं होता है। जैसे लोकसेवी पिता ने यह व्रत ले रखा है कि हम सूत या खादी के वस्त्र ही पहनेंगे। स्वयं तो वह नहीं खरीदेगा। लेकिन स्वावलम्बी और कमाऊ लड़के स्नेह- श्रद्धावश उसके लिए टेरीकाट या पोलिस्टर के कपड़े ले आयें तो असमंजस की- सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, पर जब अपना दृष्टिकोण परिवार वालों के सामने साफ न रहा हो। यदि स्वजन सम्बन्धियों को सादगी में शान समझने और व्यक्तित्व की उज्ज्वलता को गौरवास्पद अनुभव करने की प्रेरणा दी जाय, स्वयं अपना व्यक्तित्व भी उसी स्तर का रखा जा सके, तो ऐसी असमंजस पूर्ण स्थिति आ ही नहीं सकती। क्योंकि तब घर के लोग भी लोकसेवी की मान्यताओं और दृष्टिकोण के महत्त्व को समझने, स्वीकारने लगेंगे तथा वे भी उन्हीं आदर्शों को अपनाने, उस व्रत पर दृढ़ रहने की निष्ठा विकसित कर सकेंगे ।   

    अपने व्रत पर दृढ़ रहने की निष्ठा को प्रखर अभिव्यक्ति देने से लोग भले ही वैसा व्रत न अपनायें पर वे व्रत के महत्त्व को तो समझेंगे। परिवार के लिए लोगों को शिक्षित करने के लिए परिस्थिति के अनुसार इस प्रकार के कितने ही तरीके खोजे जा सकते हैं ।   

    परिवार के सदस्यों में उत्कृष्टता और सद्गुणों की अभिवृद्धि के साथ- साथ लोकसेवी को चाहिए कि वे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को और ज्यादा न बढ़ायें। प्राचीन काल में जिन्हें लोक सेवा का व्रत लेना होता था वे तो ब्रह्मचर्याश्रम से सीधे ही लोक सेवा के क्षेत्र में उतर पड़ते थे और गृहस्थ व्यक्ति यदि लोकसेवा करना चाहते तो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाते थे। इसका अर्थ यह नहीं कि घर परिवार छोड़कर संन्यासी हो जाते थे। लोक सेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए वे अपनी जिम्मेदारियों को इस प्रकार पूरा कर देते या ऐसी व्यवस्था कर देते थे, जिससे कि वे परिवार के प्रति कम से कम उत्तरदायी हों। उदाहरण के लिए बच्चे बड़े हो गये तो घर परिवार की व्यवस्था उनके हाथ में सौंप कर माता- पिता ने वानप्रस्थ ले लिया और निकल पड़े समाज सेवा के लिए। अथवा परिवार के उत्तरदायित्वों को इतना कम रखें कि उसके लिए अपना अधिकांश समय और श्रम न देना पड़े ।   

    आज की स्थिति में युवा लोकसेवियों को चाहिए कि वे सन्तान की संख्या न बढ़ायें। अच्छा तो यही है कि लोकसेवा के क्षेत्र में रहते हुए सन्तानोत्पादन से बचा जाय। सन्तान आखिर ममता और वात्सल्य भावना की अभिव्यक्ति के लिए ही तो आवश्यक समझी जाती है। ममता और वात्सल्य लुटाने के लिए समाज में बहुत से बच्चे हैं। यह कोई आवश्यक नहीं है कि बच्चा अपनी ही सन्तान हो। जो विवाह की आवश्यकता अनुभव न करते हों वे अविवाहित ही रह लें और जो विवाह करना चाहें उन्हें तो सन्तान की आवश्यकता ही नहीं समझनी चाहिए या जिनके बच्चे हैं वे वहीं तक सीमित रखें। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को हल्का रखने से लोक सेवा के लिए अधिक समय बच सकेगा और अपनी प्रतिभा तथा योग्यता का अधिकाधिक लाभ समाज को दे सकेंगे। जापान के गाँधी कागावा की तरह वे भी विवाहित किन्तु सन्तान उत्पन्न न कर सारे समाज का उत्तरदायित्व सँभाल सकेंगे ।   

    सेवा के अनेक क्षेत्र हैं और उसके व्यापक स्वरूप को पूरी तरह स्पर्श कर सकना सम्भव नहीं है। यह सोच कर लोग अन्तःकरण में सेवा की उमंग उठते हुए तथा सेवा धर्म के लिए हर दृष्टि से योग्य होते हुए भी पीछे हट जाते हैं। वे सोचते हैं संसार में इतनी विकृतियाँ हैं, समस्या इतनी विकराल हैं या हजारों लोग बाढ़ की चपेट में आ गये हैं हम क्या कर सकते हैं ? सेवा कार्य तो आरम्भ हुआ नहीं कि उसके परिणाम पर दृष्टि पहले गयी। यदि अन्य लोग

    जो सार्वजनिक समस्याओं के समाधान के लिए घर से निकलते हैं, वे सभी ऐसा सोच लें तो संसार में सेवापरक गतिविधियाँ चलेंगी ही नहीं? परिणाम क्या होगा, यह सोचे बिना अपनी सामर्थ्य और स्थिति के अनुसार प्रयास प्रारम्भ कर देना सेवा भाव की पहली शर्त है। गिलहरी जानती थी कि रीछ वानरों को, समुद्र पर पुल बनाने में कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं दे सकती। फिर भी उसने सागर में डुबकी लगाना और रेत पर लोटने के बाद फिर सागर में डुबकी लगाना जारी रखा। उसका योगदान परिणाम की दृष्टि से भले ही न्यून रहा हो पर भगवान् का कार्य करने वालों में उस गिलहरी को अग्रणी स्थान मिला । 
 
    व्यावहारिक दृष्टि से भी एकाकी योगदान निष्फल नहीं जाते। रीछ वानर जानते थे कि हमारी शक्ति कितनी है फिर भी उन्होंने लंका विजय की योजना बनाई और उस पर काम किया। साधनहीन और शक्तिहीन रीछ- वानरों ने समर्थ शक्तिशाली प्रतिपक्ष को किस प्रकार परास्त किया, उदाहरण सामने है। इन्द्र के क्रोधित होने पर जब ब्रज का डूबना लगभग निश्चित लगने लगा तो कृष्ण ने गोप- बालों के सामने गोवर्द्धन पहाड़ उठाने की योजना रखी। कहाँ गोप- बाल और कहाँ गोवर्द्धन पर्वत का उठाना। कार्य की गुरुता के आगे सभी अपने को असमर्थ मान रहे थे फिर भी पीछे नहीं हटे और गोवर्द्धन पर्वत उठाकर ही रहे। लोकसेवी की उमंग अनुभव करने और उस मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले को चाहिए कि वह बूँद- बूँद से घट भरने की बात सोचे।  
   
प्रत्यक्ष देखने पर सेवा कार्य में घाटा जान पड़ता है जबकि वस्तुतः ऐसा नहीं है। कृषि विज्ञान से एकदम अनभिज्ञ व्यक्ति किसी किसान को खेत में बीज डालते देखकर यह सोचने लगे कि किसान बीजों को यों ही गँवा रहा है तो कोई आश्चर्य नहीं पर उसके परिणाम हमेशा सुखद लगते हैं। सेवा साधना के परिणाम भी सामाजिक सुव्यवस्था और व्यक्तिगत आत्मसंतोष एवं आनन्द के रूप में प्राप्त होते हैं। वह अनुभूति आन्तरिक है- लेकिन जिनकी दृष्टि बाहरी परिणामों पर ही टिकी रहती है वे सेवा को घाटे का सौदा समझते हैं।    समाज में यह स्थिति सदैव बनी रहने वाली है। जन साधारण स्थूल दृष्टि से ही हर वस्तु का मूल्यांकन करते हैं। इसीलिए सेवा साधना के असाधारण लाभों को समझ नहीं पाते और उसके लिए आगे आने में, सहयोग देने में झिझकते हैं। जब कोई साहसी लोकसेवी उस क्षेत्र में पहल करता है, प्रसन्नतापूर्वक अकेला ही आगे बढ़ता जाता है तो लोगों का भ्रम दूर होता है। सेवा- साधना के लाभ सबको दिखने लगते हैं और लोकसेवी को सम्मान से लेकर सहयोग समर्थन तक दिया जाने लगता है।  
 
    परन्तु यदि लोकसेवी का दृष्टिकोण शुद्ध तथा प्रखर नहीं है, तो वह बीच में मिलने वाली उपेक्षा और कठिनाइयों से विचलित हो जाता है। उसे लगता है कि सेवा का लाभ सारे समाज को मिलता है, फिर भी समाज उसके लिए सहयोग नहीं देता, तो हम ही क्यों मरें- खपें? और यह भाव आते ही लोकसेवी की प्रखरता घटने लगती है ।   

    यह चिन्तन उभरने का अर्थ है- ‘ लोकसेवी का दृष्टिकोण खो जाना । ’ ऐसा चिन्तन उस मस्तिष्क में ही उभरेगा जो सेवा कार्य को कर्तव्य नहीं किसी पर किया गया अहसान मानता है। सेवा भाव से सन्तोष बढ़ता है और अहसान के भाव से अहंकार पनपता है। उसके बढ़ने पर पतन निश्चित है। अस्तु सेवाभावी का दृष्टिकोण सेवा के प्रति शुद्ध रहना ही चाहिए। वह सेवा कार्य को कर्तव्य परायणता का, सामाजिक ऋण से मुक्त होने का, भगवान् का प्रेम पाने का एक अलभ्य अवसर मानता है। उसे खोना नहीं चाहता। उसे सौभाग्य मानकर अपनाने के लिए दौड़ पड़ता है। कोई साथ आ रहा है या नहीं यह देखने की उसकी इच्छा ही नहीं होती। यदि कोई आ गया तो प्रसन्नतापूर्वक उसके सहयोग से कार्य को और भी प्रखर कर देता है। सहयोगी के अभाव में उसका मनोबल नहीं घटता है- और सहयोगी के आने पर उसे यह भी नहीं लगता कि कोई उसके श्रेय में हिस्सा बटाने क्यों आ गया। उसकी दृष्टि तो सेवा कार्य को अधिक से अधिक कुशलता से करने पर रहती है। इसलिए उसकी प्रखरता एवं उसे मिलने वाले सन्तोष में जरा भी कमी नहीं आने पाती ।    
    अस्तु सेवा क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाले हर व्यक्ति को अपना दृष्टिकोण शुद्ध एवं प्रखर बनाकर रखना चाहिए, तभी वह सही अर्थों में अपनी शक्ति उस कार्य में लगा सकेगा। आत्मोत्कर्ष एवं समाजोत्कर्ष का संयुक्त लाभ इसी आधार पर प्राप्त हो सकेगा ।                       
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