आद्य शक्ति गायत्री की समर्थ साधना

एक आध्यात्मिक प्रयोग

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यह युगसन्धि की वेला है। बीसवीं सदी की यज्ञाग्नि ही अवांछनीयताओं का समापन एवं इक्कीसवीं सदी के साथ उज्ज्वल भविष्य के आगमन एवं सतयुग की वापसी का वातावरण विनिर्मित करने जा रही है। दोनों शताब्दियों की मध्यवर्ती अवधि वाली युगसन्धि इन्हीं दिनों चल रही है। इस प्रयोजन के लिए जहाँ व्यावहारिक प्रत्यक्ष प्रयासों को क्रियान्वित किया जा रहा है, वहाँ एक करोड़ याजकों द्वारा एक लाख गायत्री यज्ञ इन्हीं दिनों सम्पन्न किये जा रहे हैं और आशा की जा रही है कि भागीरथी गंगावतरण जैसा अभिनव सुयोग एक बार फिर उतरेगा। गायत्री मंत्र के साथ यज्ञ- ऊर्जा जुड़ जाने से अभीष्ट उद्देश्य का विस्तार उसी प्रकार होता है, जैसे पतली- सी आवाज लाउडस्पीकर के साथ जुड़ जाने पर दूर- दूर तक सुनी जा सकने योग्य बनती है। रेडियो- प्रसारण और दूरसंचार- उपक्रम में भी यही विधा काम करती है। यज्ञाग्नि की बिजली गायत्री मंत्र की शब्द शृंखला के साथ समन्वित होकर अभीष्ट धर्मकृत्य को स्थानीय नहीं रहने देती, वरन् व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करती है। उससे असंख्य लोग अनेकानेक प्रकार से लाभान्वित होते हैं।

    बैट्रियाँ बहुत बड़ी- बड़ी भी होती हैं और इतनी छोटी भी कि सामान्य- सी घड़ी के बीच बैठकर उस यंत्र को साल भर तक चलाती रह सकें। गायत्री यज्ञ बड़े आकार के भी हो सकते हैं और दीपयज्ञ स्तर के छोटे आकार वाले भी। चिनगारी छोटी होती है, फिर भी उसमें ज्वालमाल दावानल बनने की सम्भावना विद्यमान रहती है।

    गायत्री मंत्र के साथ जुड़ी हुई ऊर्जा ऐसे ही चमत्कार उत्पन्न करती है, भले ही वह आकार में छोटी ही क्यों न हो ।। साधन सामग्री की महँगाई, लम्बा समय और पुरोहितों की दान- दक्षिणाओं का भार सहन न कर पाने की वर्तमान उपेक्षा को देखते हुए दीपयज्ञों के रूप में गायत्री मंत्र के अभिनव प्रयोग चल पड़े हैं और उनका प्रतिफल भी उच्चस्तरीय एवं व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करते हुए देखा गया है।

    युग सन्धि की वर्तमान दस वर्षीय अवधि में शान्तिकुञ्ज से दो अत्यन्त प्रचण्ड सङ्कल्प उभरे हैं। एक- दीप यज्ञीय माध्यम से एक लाख सृजन- साधक खड़े करना। दूसरा- उभरे प्रयास में सहभागी बनने के लिए एक करोड़ व्यक्तियों को जुटाना। दोनों प्रयोजन जिस गति से सम्पन्न होते चलेंगे, उसी अनुपात से नवयुग की, सतयुग की वापसी के अनुरूप वातावरण बनता चला जाएगा। इसमें प्रयोग और प्रयास के सफल होने की सम्भावनाएँ अभियान का आरम्भ करते- करते ही दीख पड़ रही है। भविष्य के सम्बन्ध में आशापूर्वक विश्वास किया गया है कि नवयुग के अवतरण की महती सम्भावना नियत समय पर होकर रहेगी। पुरुषार्थ अपनी जगह और परमार्थ अपनी जगह। दोनों के समन्वय से, एक और एक के अंक बराबर रखने पर, दो नहीं वरन् ग्यारह बन जाते हैं, इस कथनी की यथार्थता वर्तमान दीपयज्ञ समारोहों से फलित होती देखी जा सकती है। एक लाख संगठित आध्यात्मिक प्रयोग और एक करोड़ व्यक्तियों द्वारा अपनाए गए सृजन- पुरुषार्थ दोनों मिलकर नवयुग का अवतरण सम्भव बनाएँ और उसे मत्स्यावतार की तरह विश्वव्यापी बनाएँ तो इसमें किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

    यह मान्यता सभी विचारशीलों एवं सभी युग मनीषियों द्वारा स्वीकारी गई है कि इन दिनों व्यक्ति और समाज के सामने जो संकट और विग्रहों के घटाटोप छाये हुए हैं, उनका मुख्य कारण बुद्धि का भटकाव है। भ्रष्ट चिन्तन से दुष्ट आचरण और उसके फलस्वरूप अनर्थों की बाढ़ आई हुई है। उसका निराकरण करने के लिए विचारक्रान्ति ही एकमात्र उपचार है। जनमानस को परिष्कृत किये बिना विग्रहों के अनेकानेक स्वरूपों का निराकरण सम्भव नहीं हो सकेगा। विचारक्रान्ति अपने युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसे सम्पन्न करने के लिए गायत्री यज्ञ में सन्निहित तत्त्वज्ञान जनमानस में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए, साथ ही यह भी आवश्यक है कि आद्यशक्ति व समग्र शक्ति के रूप में जानी जाने वाली गायत्री- उपासना को भी प्रश्रय दिया जाये। यह पर्याप्त न होगा कि कुछ ही लोग उसकी कठोर तपश्चर्या सम्पन्न करके कर्तव्य की इतिश्री कर लें; वरन् आवश्यक यह भी है कि इसके साथ- साथ जन- जन की प्राण- चेतना का समन्वय हो। अधिकाधिक लोग एक स्तर की साधना- पद्धति अपनाएँ और उसके सहारे बन पड़ने वाली सामूहिक प्राण- ऊर्जा का विस्तार करते हुए प्रक्रिया सम्पन्न करें, जिसे सीमित रखने से काम नहीं चलेगा। वरन् उसकी, व्यापकता, बहुलता ही अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति वाला लक्ष्य पूरा कर सकेगी।

    अनेक प्रयोजनों के लिए गायत्री- उपासना के अनेक विधि- विधान हैं। उनका विस्तृत वर्णन साधना विज्ञान से सम्बन्धित शास्त्रों, अनुभवों और निष्णातजनों से प्राप्त किया जा सकता है। उपयुक्त गुरु चुनते हुए उनके मार्गदर्शन में की गई साधना अगणित फलदायी होती है। मानसिक जप कहीं भी करते रहने में कोई आपत्ति नहीं, किन्तु यदि किसी प्रयोजन- विशेष से एक संकल्पित अनुष्ठान यदि किया जाना है तो विधि- विधान विस्तार से जानकर ही उसे आरम्भ किया जाना चाहिए। यहाँ यह भ्रान्ति भली−भाँति मिटा लेनी चाहिए कि गायत्री की उपासना किसी साधक को किसी प्रकार की हानि पहुँचाती है, वस्तुतः: गायत्री- साधना कभी किसी प्रकार की कोई क्षति साधक को नहीं पहुँचाती, क्योंकि यह तो सद्बुद्धि अवधारणा की साधना है।
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