प्राण चिकित्सा ऋषि भूमि भारत की प्राचीन परम्परा है। वेदों, उपनिषदों एवं पुराण कथाओं में इससे सम्बन्धित कई कथानक पढ़ने को मिलते हैं। तप व योग की अनेकों ऐसी रहस्यमय प्रक्रियाएँ हैं, जिनके द्वारा विश्वव्यापी प्राण ऊर्जा से अपना सम्पर्क बनाया जा सकता है। इन प्रक्रियाओं द्वारा इस प्राण ऊर्जा को पहले स्वयं ग्रहण करके फिर इच्छित व्यक्ति में इसे सम्प्रेषित किया जाता है। फिर यह व्यक्ति दूर हो अथवा पास इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। प्राण विद्या का यही रूप इन दिनों ‘रेकी’ नाम से प्रचलन में है। रेकी जापानी भाषा का शब्द है। इसका मतलब है- विश्वव्यापी जीवनीशक्ति। रेकी शब्द में ‘रे’ अक्षर का अर्थ है विश्वव्यापी तथा ‘की’ का मतलब है जीवनीशक्ति। यह विश्वव्यापी जीवनीशक्ति समस्त सृष्टि में समायी है। सही रीति से इसके नियोजन एवं सम्प्रेषण के द्वारा विभिन्न रोगों का उपचार किया जा सकता है।
प्राण चिकित्सा की प्राचीन विधि को नवजीवित करने का श्रेय जापान के डॉ. मेकाओ उशी को है। डॉ. मेकाओ उशी जापान के क्योटो शहर में ईसाई विद्यालय के प्रधान थे। एक बार उनके एक विद्यार्थी ने उनसे सवाल किया कि ईसामसीह जिस प्रकार किसी को छूकर किसी रोगी को रोगमुक्त कर देते थे वैसा आजकल क्यों नहीं होता है? क्या आप वैसा कर सकते हैं? डॉ. उशी इस सवाल का उस समय कोई जवाब नहीं दे सके, लेकिन उन्हें यह बात लग गई। वे इस विधि की खोज में अमेरिका के शहर शिकागो पहुँचे, वहाँ उन्होंने अध्यात्म विद्या में डॉक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त की। किन्तु अनेकों ईसाई एवं चीनी ग्रंथों के पन्ने पलटने के बावजूद उन्हें इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिला। इसके बाद वे उत्तर भारत आये, यहाँ उन्हें कतिपय संस्कृत ग्रंथों में कुछ संकेत मिले।
इन सूत्रों व संकेतों के आधार पर साधना करने के लिए डॉ. उशी अपने शहर से १६ मील दूर स्थित कुरीयामा नाम की एक पहाड़ी पर गये। यहाँ इन्होंने अपनी आध्यात्मिक साधना की। इस एकान्त स्थान पर २१ दिन का उपवास रखकर ये तप साधना में लग गये। साथ ही उन संस्कृत मंत्रों का जप भी करते रहे। बीस दिनों तक इनको कोई खास अनुभूति नहीं हुई। लेकिन इक्कीसवाँ दिन इन्हें एक तेज प्रकाश पुञ्ज तीव्र गति से उनकी ओर बढ़ता हुआ दिखाई दिया। यह प्रकाश पुञ्ज ज्यों- ज्यों उनकी ओर बढ़ता था, त्यों- त्यों बड़ा होता जाता था। अन्त में वह उनके सिर के मध्य में टकराया। इन्होंने सोचा कि अब तो मरना निश्चित है। फिर अचानक उन्हें विस्फोट के साथ आकाश में कई रंगों वाले लाखों चमकीले सितारे दिखाई दिये। तथा एक श्वेत प्रकाश में उन्हें वे संस्कृत के श्लोक दिखाई दिये, जिनका वे जप करते थे। यहीं से उन्हें विश्वव्यापी प्राण ऊर्जा के उपयोग की विधि प्राप्त हुई, जिसे उन्होंने रेकी का नाम दिया।
रेकी शक्ति को पाने के बाद उन्होंने सबसे पहले अपने पाँव के अगूँठे की चोट को ठीक किया। यह इनकी पहली उपचार प्रक्रिया थी। इसके बाद ये जब पर्वत से उतरकर एक सराय में रुके तो उस समय सराय मालिक के पौत्री के दाँतों में कई दिनों से सूजन थी, दर्द भी काफी ज्यादा था। डॉ. उशी ने इसे छुआ और उसी समय उसका दर्द व सूजन जाता रहा। इसके बाद तो डॉ. उशी ने रेकी के सिद्धान्तों एवं प्रयोगों का विधिवत् विकास किया। और अपने शिष्यों को इसमें प्रशिक्षित किया। डॉ. चिजिरोहयाशी हवायो तफाता एवं फिलिप ली फूरो मोती आदि लोगों ने उनके बाद इस रेकी विद्या को विश्वव्यापी बनाया।
डॉ. मेकाओ उशी ने रेकी चिकित्सक के लिए पाँच सिद्धान्त निश्चित किये थे। १. क्रोध न करना, २. चिंता से मुक्त होना, ३. कर्तव्य के प्रति ईमानदार होना, ४. जीवमात्र के प्रति प्रेम व आदर का भाव रखना एवं ५. ईश्वरीय कृपा के प्रति आभार मानना। इन पाँचों नियमों का सार यह है कि व्यक्ति अपनी नकारात्मक सोच व क्षुद्र भावनाओं से दूर रहे, क्योंकि ये नकारात्मक सोच व क्षुद्र भावनाएँ ही हैं, जिनसे न केवल देह में स्थित प्राण ऊर्जा का क्षरण होता है, बल्कि विश्वव्यापी प्राण ऊर्जा के जीवन में आने के मार्ग अवरुद्ध होते हैं। ये सभी नियम रेकी साधक को विधेयात्मक बनाते हैं, जिनकी वजह से प्राण प्रवाह नियमित रहता है।
प्राण चिकित्सा की इस रेकी प्रक्रिया में अन्तरिक्ष में संव्याप्त प्राणशक्ति का उपयोग किया जाता है। यह सच तो हम जानते हैं कि प्राण ऊर्जा अन्तरिक्ष में व्याप्त है। पृथ्वी के लिए इसका मुख्य स्रोत सूर्य है। सूर्य से अलग- अलग तरह की तापीय एवं विद्युत चुम्बकीय तरंगे निकलकर धरती पर अलग असर डालती हैं। ठीक इसी तरह प्राण शक्ति भी एक जैव वैद्युतीय तरंग है। जो धरती में सभी जड़ चेतन एवं प्राणी- वनस्पतियों में प्रवाहित होती है। इसी की उपस्थिति के कारण सभी क्रियाशील व गतिशील होते हैं। इसी वजह से धरती में उर्वरता आती है और वनस्पतियाँ तथा जीव- जगत् स्वस्थ व समृद्ध बने रहते हैं। यह सभी कुछ प्राण शक्ति का चमत्कार है। मनुष्य भी अपनी आवश्यकतानुसार इसी प्राण शक्ति को ग्रहण करता है। इसमें अवरोध व रुकावट से ही बीमारियाँ पनपती हैं। रेकी चिकित्सा के द्वारा इस रुकावट को दूर करने के साथ व्यक्ति के अतिरिक्त प्राण शक्ति दी जाती है। इस प्राण शक्ति को ग्रहण कर वह व्यक्ति फिर से अपना खोया हुआ स्वास्थ्य पा सकता है।
प्राण चिकित्सा की इस विधि से न केवल मनुष्य, बल्कि पशुओं का भी उपचार किया जा सकता है। वनस्पतियों की भी प्राण ऊर्जा बढ़ायी जा सकती है। भारतवर्ष में इन दिनों रेकी विधि का प्रचलन बढ़ चुका है। प्रत्येक शहर में कहीं न कहीं रेकी मास्टर मिल जाते हैं। इनसे मिलने वालों के अपने- अपने अलग- अलग अनुभव हैं। इनमें से कई अपने परिजन भी हैं। इनकी अनुभूतियाँ बताती हैं कि गायत्री साधना करने वाला अधिक समर्थ रेकी चिकित्सक हो सकता है। इसका कारण यह है कि रेकी में ली जाने वाली प्राण ऊर्जा का स्रोत सूर्य है। वही यहाँ गायत्री मंत्र का आराध्य देवता है। गायत्री साधना में साधक की भावनाएँ स्वतः ही सूर्य पर एकाग्र हो जाती हैं और उसे अपने आप ही प्राण ऊर्जा के अनुदान मिलने लगते हैं।
गायत्री साधना के साथ रेकी को जोड़ने पर एक अन्य लाभ भी देखने को मिला है। और वह यह है कि गायत्री साधक के सभी चक्र या शक्तिकेन्द्र स्व गतिशील हो जाते हैं। उसे किसी अतिरिक्त विधि की आवश्यकता नहीं पड़ती। चक्रों के सम्बन्ध में यहाँ एक बात जान लेना चाहिए, क्योंकि अधिकाँश रेकी देने वाले इस बारे में भ्रमित देखे जाते हैं। रेकी विधि में चक्रों को केवल क्रियाशील बनाने की बात है, न कि इनके सम्पूर्ण रूप से जागरण का। क्रियाशील होने का मतलब है कि हमें आवश्यक प्राण ऊर्जा ब्रह्माण्ड से मिलती रहे। इस प्रक्रिया में जो अवरोध आ रहे हैं वे दूर हो जायें। जबकि योग विधि जागरण होने पर योग साधक का सम्बन्ध चक्रों से सम्बन्धित चेतना के अन्य आयामों से हो जाता है और उसमें अनेकों रहस्यमयी शक्तियाँ प्रवाहित होने लगती हैं। प्राण चिकित्सा के रूप में रेकी आध्यात्मिक चिकित्सा की प्राथमिक कला है। इसमें गायत्री साधना के योग से इसकी उच्चस्तरीय कक्षाओं में स्वतः प्रवेश हो जाता है। इस सम्बन्ध में विशिष्ट शक्ति व सामर्थ्य अर्जित करने के लिए नवरात्रि काल को उपयुक्त माना गया है।