आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

आसन, प्राणायाम, बंध एवं मुद्राओं से उपचार

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हठयोग की विधियाँ जीवन के प्राण प्रवाह को सम्वर्धित , नियंत्रित व नियोजित करती हैं। अध्यात्म चिकित्सा के सभी विशेषज्ञ इस बारे में एक मत हैं कि प्राण प्रवाह में व्यतिक्रम या व्यतिरेक आने से देह रोगी होती है और मन अशान्त। इस असन्तुलन के कारण शारीरिक हो सकते हैं और मानसिक भी, पर परिणाम एक ही होता है कि हमारा विश्व व्यापी प्राणऊर्जा से सम्बन्ध दुर्बल या विच्छिन्न हो जाता है। यदि यह सम्बन्ध पुनः संवर सके और देह में प्राण फिर से सुचारू रूप से संचालित हो सके तो सभी रोगों को भगाकर स्वास्थ्य लाभ किया जा सकता है। इतना ही नहीं प्राण प्रवाह के सम्वर्धन से देह को दीर्घजीवी व वज्रवत बनाया जा सकता है। नाड़ियाँ व स्नायु संस्थान के विद्युतीय प्रवाह अधिक प्रबल किए जा सकते हैं।

          हठयोग की प्रक्रियाएँ आरोग्य व प्राण बल के सम्वर्धन की सुनिश्चित गारंटी देती है। क्योंकि इस विद्या के जानकारों को यह ज्ञान है कि यदि जीवन में प्राणों की दीवार अभेद्य है तो कोई भी रोग प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए इन प्रक्रियाओं का सारा जोर प्राणों के सम्वर्धन, परिशोधन व विकास पर है। हमारे जीवन में प्राण प्रवाह का स्थूल रूप श्वास है श्वास के आवागमन से देह में प्राण प्रवेश करते हैं और अंग- प्रत्यंग में विचरण करते हैं। आसन, प्राणायाम, बंध एवं मुद्रा आदि प्रक्रियाओं के द्वारा इन पर नियंत्रण स्थापित करके इनके प्रवाह को अपनी इच्छित दिशा में मोड़ा जा सकता है। यही वजह है कि हठयोगी अपने स्वास्थ्य का स्वामी है। रोग उसके पास फटकते भी नहीं। किसी तरह की बीमारियाँ उसे प्रभावित नहीं कर पाती।

          ये प्रभाव हठयोग की विधियों के हैं, जिनमें सबसे प्रारम्भिक विधि आसन है। शरीर के विभिन्न अंगों को मोड़- मरोड़ कर किए जाने वाले ये आसन अनेक हैं। और प्रत्यक्ष में ये किसी व्यायाम जैसे लगते हैं, किन्तु यथार्थता इससे भिन्न है। व्यायाम की प्रक्रियाएँ कोई भी हो, कैसी भी हो इनका प्रभाव केवल शरीर के प्रत्येक अवयव में प्राण को क्रियाशील करके उसे सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करता है। प्रभाव की दृष्टि से सोचें तो इनके प्रभाव शारीरिक होने के साथ मानसिक व आध्यात्मिक भी हैं।

          शारीरिक दृष्टि से देखें तो आसनों से शरीर की सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तःस्रावी ग्रन्थि प्रणाली नियंत्रित एवं सुव्यवस्थित होती है। परिणामतः सभी ग्रन्थियों से उचित मात्रा में रस का स्राव होने लगता है। ध्यान देने की बात यह भी हे कि मांसपेशियां, हड्डियाँ, स्नायु मण्डल, ग्रन्थिप्रणाली, श्वसन प्रणाली, उत्सर्जन प्रणाली, रक्त संचरण प्रणाली सभी एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। वे एक दूसरे के सहयोगी हैं। आसन के अनेक प्रकार शरीर को लचीला तथा परिवर्तित वातावरण के अनुकूल बनाने के योग्य बनाते हैं। इनके प्रभाव से पाचन क्रिया तीव्र हो जाती है। उचित मात्रा में पाचक रस तैयार होता है। अनुकम्पी एवं परानुकम्पी तंत्रिका प्रणाली में सन्तुलन आ जाता है। फलस्वरूप इनके द्वारा बाहरी और आन्तरिक अंगों के कार्य ठीक ढंग से होने लगते हैं।

          शरीर के साथ आसनों की क्रियाएँ मन को भी समर्थ व शक्तिशाली बनाती हैं। इनके प्रभाव से दृढ़ता व एकाग्रता की शक्ति विकसित होती है। यहां तक कि कठिनाइयाँ मानसिक शक्तियों के विकास का माध्यम बन जाती हैं। व्यक्ति में आत्मविश्वास आता है और वह औरों के लिए प्रेरणादायक बन जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो आसनों के प्रभाव से शरीर शुद्ध होकर उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधनाओं के लिए तैयार हो जाता है। यहाँ इस सच्चाई को स्वीकारने में थोड़ा सा भी संकोच नहीं कि आसनों से कोई आध्यात्मिक अनुभव तो नहीं होते पर ये आध्यात्मिक अनुभवों को पाने में सहायक जरूर हैं।

          प्राणायाम आसनों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म विधि है। यूं तो इसकी सारी प्रक्रियाएँ श्वसन के आरोह- अवरोह एवं इसके स्वैच्छिक नियंत्रण पर टिकी हैं। पर यथार्थ में यह विश्व व्यापी प्राण ऊर्जा से अपना सामञ्जस्य स्थापित करने की विधि है। आमतौर पर लोग इसे केवल अधिक आक्सीजन प्राप्त करने की प्रणाली के रूप में जानते हैं। किन्तु सत्य इससे भिन्न है। श्वसन के माध्यम से इसके द्वारा नाड़ियों, प्राण नलिकाओं एवं प्राण के प्रवाह पर व्यापक असर होता है। परिणामतः नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है तथा मौलिक और मानसिक स्थिरता प्राप्ति होती है। इसमें की जाने वाली कुम्भक प्रक्रिया द्वारा न केवल प्राण का नियंत्रण होता है, बल्कि मानसिक शक्तियों का भी विकास होता है।

          प्राणायाम के अलावा बन्ध हठयोग की अन्य महत्त्वपूर्ण विधि है। इसे अन्तः शारीरिक प्रक्रिया कहा गया है। इनके अभ्यास से व्यक्ति शरीर के विभिन्न अंगों तथा नाड़ियों को नियंत्रित करने में समर्थ होता है। इनके द्वारा शरीर के आन्तरिक अंगों की मालिश होती है। रक्त का जमाव दूर होता है। इन शारीरिक प्रभावों के साथ बन्ध सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त विचारों एवं आत्मिक तरंगों को प्रभावित कर चक्रों पर सूक्ष्म प्रभाव डालते हैं। यहाँ तक कि यदि इन का अभ्यास विधिपूर्वक जारी रखा जाय तो सुषुम्रा नाड़ी में प्राण के स्वतन्त्र प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करने वाली ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि व रुद्रग्रन्थि खुल जाती है और आध्यात्मिक विकास का पथ प्रशस्त होता है।

          हठयोग की एक अन्य विधि के रूप में मुद्राएँ सूक्ष्म प्राण को प्रेरित, प्रभावित व नियंत्रित करने वाली प्रक्रियाएँ हैं। इनमें से कई मुद्राएँ तो ऐसी हैं जिनके द्वारा अनैच्छिक शरीरगत प्रक्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। मुद्राओं का अभ्यास साधक को सूक्ष्म शरीर स्थित प्राण- शक्ति की तरंगों के प्रति जागरूक बनाता है। अभ्यास करने वाला इन शक्तियों पर चेतन रूप से नियंत्रण प्राप्त करता है। फलतः व्यक्ति अपने शरीर के किसी अंग में उसका प्रवाह ले जाने या अन्य व्यक्ति के शरीर में उसे पहुँचाने की क्षमता प्राप्त करता है।

          हठयोग की ये सभी विधियाँ जीवन व्यापी प्राण के स्थूल व सूक्ष्म रूप को प्रेरित, प्रभावित, परिशोधित व नियंत्रित करती हैं। इनके प्रभाव से प्राण प्रवाह में आने वाले व्यतिक्रम या व्याघात को समाप्त किया जा सकता है। इसके लाभ अनगिनत है। ऐसे ही एक लाभ का उदाहरण हम यहाँ पर दे रहे हैं। जिनसे इन पंक्तियों के पाठक इन विधियों के महत्त्व को जान सकेंगे। उन दिनों यहाँ से एक योग विशेषज्ञ अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में गए थे। वहाँ उनका एक योग विषय पर व्याख्यान था। जिस विश्वविद्यालय में उन्हें व्याख्यान देना था, वहाँ उन दिनों विद्यार्थियों को द्रुत शिक्षण व प्रशिक्षण पर कुछ प्रयोग सम्पन्न किए जा रहे थे। इसे उन लोगों ने साल्ट नाम दिया था। साल्ट यानि कि सिस्टम ऑफ एक्सीलरेटेड लर्निंग् एण्ड ट्रेनिंग।

          उस प्रयोग के दौरान जब बात होने लगी तो यहाँ पहुँचे योग विशेषज्ञ ने अपनी चर्चा में कहा, मस्तिष्क एवं मन की ग्रहणशीलता का सम्बन्ध श्वास से होता है। योग इस बात को स्वीकार करता है। इस बात को सुनते ही प्रयेागकर्त्ता वैज्ञानिक प्रसन्न हो गए और उन्होंने कहा, आप तो भारत से आए हैं क्यों नहीं हमारे विद्यार्थियों पर प्रयोग करते। इस बात ने एक लघुप्रयोग का सिलसिला जुटाया। आचार्य श्री द्वारा बताए गए प्राणायाम की सरलतम विधि प्राणाकर्षण प्राणायाम को विद्यार्थियों को सिखाया गया। और प्रयोग प्रारम्भ हो गया। एक महीने तक यह सिलसिला चलता रहा। एक महीने के बाद पाया गया कि विद्यार्थियों की ग्रहणशीलता तीस से चालीस प्रतिशत तक बढ़ गयी। उनके तनाव, दुश्चिन्ता आदि भी समाप्त हुए। इस प्रयोग से वहाँ के वैज्ञानिक समुदाय को हठयोग की विधियों के महत्त्व का भान हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि इन विधियों का केन्द्रीभूत तत्त्व प्राण चिकित्सा है।
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