आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

चित्त के संस्कारों की चिकित्सा

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चित्त के संस्कार कर्मबीज हैं। इन्हीं के अनुरूप व्यक्ति की मनःस्थिति एवं परिस्थिति का निर्माण होता है। जन्म और जीवन के अनगिन रहस्य इन संस्कारों में ही समाए हैं। जिस क्रम में संस्कार जाग्रत् होते हैं, कर्म बीज अंकुरित होते हैं, उसी क्रम में मनःस्थिति परिवर्तित होती है, परिस्थितियों में नए मोड़ आते हैं। जन्म के समय की परिस्थितियाँ, माता- पिता का चयन, गरीबी- अमीरी की स्थिति जीवात्मा के संस्कारों के अनुरूप बनती है। कालक्रम में इनकी नयी- नयी परतें खुलती हैं। अपनी परिपक्वता के क्रम में कर्मबीजों का अंकुरण होता है और जीवन में परिवर्तन आते रहते हैं। किसी भी आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए इन संस्कारों के विज्ञान को जानना निहायत जरूरी है। यह इतना आवश्यक है कि इसके बिना किसी की आध्यात्मिक चिकित्सा सम्भव ही नहीं हो सकती।

किसी भी व्यक्ति का परिचय उसके व्यवहार से मिलता है। इसी आधार पर उसके गुण- दोष देखे- जाने और आँके जाते हैं। हालाँकि व्यवहार के प्रेरक विचार होते हैं और विचारों की प्रेरक भावनाएँ होती हैं। और इन विचारों और भावनाओं का स्वरूप व्यक्ति के संस्कार तय करते हैं। इस गहराई तक कम ही लोगों का ध्यान जाता है। सामान्य जन तो क्या विशेषज्ञों से भी यह चूक हो जाती है। किसी के जीवन का ऑकलन करते समय प्रायः व्यवहार एवं विचारों तक ही अपने को समेट लिया जाता है। मनोवैज्ञानिकों की सीमाएँ यहीं समाप्त हो जाती हैं। परन्तु अध्यात्म विज्ञानी अपने ऑकलन संस्कारों के आधार पर करते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक चिकित्सा के आधारभूत ढाँचे का आधार यही है।

          ध्यान रहे, व्यक्ति की इन अतल गहराइयों तक प्रवेश भी वही कर पाते हैं, जिनके पास आध्यात्मिक दृष्टि एवं शक्ति है। आध्यात्मिक ऊर्जा की प्रबलता के बिना यह सब सम्भव नहीं हो पाता। कैसे अनुभव करें चित्त के संस्कारों एवं इनसे होने वाले परिवर्तन को? तो इसका उत्तर अपने निजी जीवन की परिधि एवं परिदृश्य में खोजा जा सकता है। विचार करें कि अपने बचपन की चाहतें और रूचियाँ क्या थीं? आकांक्षाएँ और अरमान क्या थे? परिस्थितियाँ क्या थीं? इन सवालों की गहराई में उतरेंगे तो यह पाएँगे कि परिस्थितियों का ताना- बाना प्रायः मनःस्थिति के अनुरूप ही बुना हुआ था। मन की मूलवृत्तियों के अनुरूप ही परिस्थितियों का शृंगार हुआ था। और ये मूल वृत्तियाँ हमारे अपने संस्कारों के अनुरूप ही थीं।

          अब यदि क्रमिक रूप में ५- ५ या १०- १० वर्षों के अन्तराल का लेखा- जोखा करें तो हमें विस्मयजनक एवं आश्चर्यचकित करने वाले नए- नए मोड़ अपने जीवन में देखने को मिलेंगे। यह अचरज हमें कितना ही क्यों न चौंकाए, पर यह हमारे जीवन की अनुभूत सच्चाई है। थोड़ा बारीकी से देखें तो इन पंक्तियों के पाठक अनुभव करेंगे कि उनके जीवन में पाँच या दस सालों के अन्तराल में कुछ ऐसा होता गया, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। मन की कल्पनाएँ बदली, अरमान, आकांक्षाएँ बदली, चाहत एवं वृत्तियों में परिवर्तन हुए, साथ ही परिस्थितियों में नए- नए घटनाक्रमों का उदय हुआ। कई पराए अपने हुए और कई अपने परायापन जताकर विरोधी हो गए। आॢथक -- सामाजिक पहलुओं में भी नए रंग उभरे।

          यह सब संयोग की वजह से नहीं, संस्कारों की वजह से हुआ। नए संस्कारों के जागरण एवं नए कर्म बीजों के अंकुरण के कारण हमारे जीवन के नए- नए शृंगार होते गए। यह अलग बात है कि इन परिवर्तनों में कई परिवर्तन हमारे लिए दुखद साबित हुए तो कई ने हमें सुखद अनुभूतियाँ दी। भरोसा करें, यहाँ जो कहा जा रहा है वह आध्यात्मिक ज्ञान का सच है। कोई भी सुपात्र सत्पात्र इसे अनुभव कर सकता है। यदि आपको इस पर भरोसा हो रहा है तो इस सच्चाई पर भी यकीन करें कि संस्कारों की तह तक पहुँच कर, इनका उत्खनन करके दुःखद संस्कारों से छुटकारा पाया जा सकता है। और सुखद संस्कारों को प्रबल बनाया जा सकता है। यानि कि आध्यात्मिक प्रयोगों की सहायता से बुरी मनःस्थिति एवं परिस्थिति से छुटकारा पाया जा सकता है।

          विश्वास करें यह एक प्रायोगिक सच है। अनेकों ने अनेक तरह से इसे अपने जीवन में खरा पाया है। बस इसके लिए आपको किसी आध्यात्मिक चिकित्सक का संग- साथ चाहिए। उसकी सहायता से जीवन में नए रंग भरे जा सकते हैं। ऐसा होने की अनुभूति तो अनेकों की है, पर हम यहाँ केवल एक का उल्लेख करना चाहेंगे। जिसकी वजह से एक भटकता हुआ आवारा किशोर महान् क्रान्तिकारी इतिहास पुरुष बन गया। हाँ यह सच्चाई पं. रामप्रसाद बिस्मिल के जीवन की है। ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’- का प्रेरक स्वर देने वाले बिस्मिल किशोर वय में कुसंग एवं कुटेव के कुचक्र में फंस गए थे। गलत लोगों के गलत साथ ने उनमें अनेकों गलत आदतें डाल दी। स्थिति कुछ ऐसी बिगड़ी कि जैसा उनका व्यक्तित्व ही मुरझा गया।

          इसी दौर में उनके कुछ शुभ संस्कार जगे, कुछ पुण्य बीज अंकुरित हुए और उनकी मुलाकात एक महापुरुष से हुई। ये महापुरुष संन्यासी थे और नाम था स्वामी सोमदेव। इनकी साधना अलौकिक थी। इनका तप बल प्रबल था। वे पं. रामप्रसाद को देखते ही पहचान गए। उन्होंने अपने परिचित जनों से कहा कि यह किशोर एक विशिष्ट आत्मा है। इसका जन्म भारत माता की सेवा के लिए हुआ है। पर विडम्बना यह है कि इसके उच्चकोटि के संस्कार अभी जाग्रत् नहीं हुए। और किसी जन्म के बुरे संस्कारों की जागृति ने इसे भ्रमित कर रखा है। क्या होगा महाराज इसका? इन संन्यासी महात्मा के कुछ शिष्यों ने इनसे पूछा। वे महापुरुष पहले तो मुस्कराए फिर हंस पड़े और बोले- इस बालक की आध्यात्मिक चिकित्सा करनी पड़ेगी। और इसे मैं स्वयं सम्पन्न करूँगा। बस तुम लोग इसे मेरे समीप ले आओ।

          ईश्वरीय प्रेरणा से यह सुयोग बना। पं. रामप्रसाद इन महान् योगी के सम्पर्क में आए। इस पवित्र संसर्ग में पं. रामप्रसाद का जीवन बदलता चला गया। वह यूं ही अचानक एवं अनायास नहीं हो गया। दरअसल उन महान् संन्यासी ने अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रयोग करके इनके बुरे संस्कारों वाली परत हटानी शुरू की। एक तरह से वह अदृश्य ढंग से अपनी आध्यात्मिक दृष्टि एवं शक्ति का प्रयोग करते रहे। तो दूसरी ओर दृश्य रूप में उन्होंने रामप्रसाद को गायत्री महामंत्र का उपदेश दिया। उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता के पाठ के लिए तैयार किया। दिन मास वर्ष के क्रम में युवक रामप्रसाद में नया निखार आया।

          उनकी अन्तर्चेना में पवित्र संस्कार जाग्रत् होने लगे। पवित्र संस्कारों ने भावनाओं को पवित्र बनाया, तदानुरूप विचारों का ताना- बाना बुना गया। और एक नये व्यक्तित्व का उदय हुआ। एक भ्रमित- भटके हुए किशोर के अन्तराल में भारत माता के महान् सपूत पं. रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म हुआ। इस नव जन्म ने उनके जीवन में सर्वथा नए रंग भर दिए। यह सब चित्त के संस्कारों की आध्यात्मिक चिकित्सा के बलबूते सम्भव हुआ। जिसने पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों को जाग्रत् कर एक नया इतिहास रचा।

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