आध्यात्मिक चिकित्सा के ग्रन्थ अनगिनत हैं। इनका विस्तार असीम है। प्रत्येक धर्म ने, पंथ ने आध्यात्मिक साधनाओं की खोज की है। अपने देश- काल के अनुरूप ये सभी महत्त्वपूर्ण हैं। इनका मकसद भी एक है- सम्पूर्ण स्वस्थ जीवन एवं समग्र रूप से विकसित व्यक्तित्व। इसी उद्देश्य को लेकर सभी ने गहरे आध्यात्मिक प्रयोग किए हैं- और अपने निष्कर्षों को सूत्रबद्ध, लिपिबद्ध किया है। इन प्रयोगों की शृंखला में कई बार तो ऐसा हुआ कि विशेषज्ञों की भावचेतना अपने शिखर पर पहुँच गयी और वहाँ स्वयं ही सूत्र अवतरित होने लगे। परावाणी में दैवी सन्देश प्रकट हुए। इस्लाम का पवित्र ग्रन्थ कुरआन ऐसे ही दैवी संदेशों का दिव्य संकलन है। बाइबिल की पवित्र कथाएँ भी ऐसी ही भावगंगा में प्रवाहित हुई हैं। प्राचीन पारसी जनों के जेन्द अवेस्ता से लेकर अर्वाचीन सिख गुरुओं के ग्रन्थ साहिब तक सभी ग्रन्थ देश- काल के अनुरूप अपना अहत्व दर्शाते रहे हैं। इनमें से किसी आध्यात्मिक ग्रन्थ को कमतर नहीं कहा जा सकता।
परन्तु जब बात प्राचीनता के साथ परिपूर्णता की हो, इस वैज्ञानिक युग में उसकी सामयिकता और सार्वभौमिकता की हो, तो वेद ही परम सत्य के रूप में सामने नजर आते हैं। वेद सब भाँति अद्भुत एवं अपूर्व हैं। ये समस्त सृष्टि में संव्याप्त आध्यात्मिक दृष्टि, आध्यात्मिक शक्ति एवं आध्यात्मिक प्रयोगों का पवित्र उद्गम हैं। यदि इस कथन को अतिशयोक्ति न माना जाय तो यहाँ यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि समस्त विश्व वसुधा में आध्यात्मिक भाव गंगा कहीं बही है, उसका पवित्र उद्गम वेदों का गोमुख ही है। विश्व के प्रत्येक धर्म, पंथ और मत में जो कुछ भी कहा गया है उसके सार निष्कर्ष को वेद मंत्रों में खोजा और पढ़ा जा सकता है। यदि भविष्य कथन और भविष्य दृष्टि पर किसी का विश्वास जमे तो वे जान सकते हैं कि भावी विश्व की आध्यात्मिकता वेदज्ञान पर ही टिकी होगी।
ऐसा कहने में किसी तरह का पूर्वाग्रह नहीं है। बल्कि गम्भीर व कठिन आध्यात्मिक प्रयोगों के निष्कर्ष के रूप में यह सत्य बताया जा रहा है। हां यह सच है कि वेदमंत्रों को ठीक- ठीक समझना कठिन है। क्योंकि ये बड़ी कूटभाषा में कहे गये हैं। जो लोग अपने को संस्कृत भाषा का महाज्ञानी बताकर इनके शब्दार्थों में सत्य को टटोलने की कोशिश करते हैं, उन्हें केवल भ्रमित होना पड़ता है। वे सदा खाली हाथ रहते हैं और अपने को महा- अज्ञानी सिद्ध करते हैं। वेदमंत्रों के अर्थ शब्दों के उथलेपन में नहीं साधना की गहराई में समाए हैं। सच तो यह है कि प्रत्येक वेदमंत्र की अपनी विशिष्ट साधना विधि है। एक सुनिश्चित अनुशासन है और उसके सार्थक सत्परिणाम भी हैं।
आध्यात्मिक चिकित्सा की जितनी सूक्ष्मता व व्यापकता, सैद्धान्तिक सच्चाई एवं प्रायोगिक गहराई वेदों में है, उतनी और कहीं नहीं। यह सुदीर्घ अनुभव का सच है। जिसे समय- समय पर अनेकों ने खरा पाया है। वेद मंत्रों में आध्यात्मिक चिकित्सा के सिद्धान्तों का महाविस्तार बड़ी पारदर्शिता से किया गया है। इसमें मानव जीवन के सभी गोपनीय, गहन व गुह्य आयामों का पारदर्शी उद्घाटन है। साथ में बड़ा ही सूक्ष्म विवेचन है। यहाँ आध्यात्मिक चिकित्सा का सैद्धान्तिक पथ जितना उन्नत है, उसका प्रायोगिक पक्ष उतना ही समर्थ है। ऋग्, यजुष एवं सामवेद के मंत्रों के साथ अथर्ववेद के प्रयोग तो अद्भुत एवं अपूर्व हैं। इनके लघुतम अंश से अपने जीवन में महानतम चमत्कार किए जा सकते हैं। यह विषय इतना विस्तृत है कि इसके विवेचन के लिए इस लघु लेख का अल्प कलेवर पर्याप्त नहीं है। जिज्ञासु पाठकों का यदि आग्रह रहा तो बाद में इसके विशिष्ट प्रायोगिक सूक्तों में वर्णित चिकित्सा विधि को बताया जाएगा।
अभी तो यहाँ इतना ही कहना है कि वेद में मुख्य रूप से आध्यात्मिक चिकित्सा की दो ही धाराएँ बही हैं। इनमें से पहली है यौगिक और दूसरी है तांत्रिक। ये दोनों ही धाराएँ बड़ी समर्थ, सबल एवं सफल हैं। इनके प्रभाव बड़े आश्चर्यकारी एवं विस्मयजनक हैं। बाद के दिनों में महर्षियों ने इन दोनों विधियों के सिद्धान्त एवं प्रयोग को श्रीमद्भगवद्गीता एवं श्री दुर्गासप्तशती में समाहित किया है। हमारे जिज्ञासु पाठकों को हो सकता है थोड़ा अचरज हो, परन्तु यह सच है कि इन दोनों ग्रन्थों में से प्रत्येक में मूल रूप से ७०० मंत्र हैं। इस सम्बन्ध में आध्यात्मिक चिकित्सकों के प्रायोगिक अनुभव कहते हैं कि इन दोनों पवित्र ग्रन्थों में कथा भाग से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण इनके मंत्र प्रयोग हैं। जिन्हें यदि कोई सविधि सम्पन्न कर सके तो जिन्दगी की हवाएँ और फिजाएँ बदली जा सकती हैं।
इस सम्बन्ध में एक घटना उल्लेखनीय है। यह घटना महर्षि अरविन्द के जीवन की है। उन दिनों वे अलीपुर जेल की काल कोठरी में कैद थे। पुस्तकों के नाम पर उनके पास वेद की पोथियाँ, श्रीमद्भगवद्गीता एवं दुर्गासप्तशती ही थी। इन्हीं का चिन्तन- मनन इन दिनों उनके जीवन का सार सर्वस्व था। वह लिखते हैं कि साधना करते- करते ये महामंत्र स्वयं ही उनके सामने प्रकट होने लगे। यही नहीं इन ग्रन्थों में वर्णित महामंत्रों ने स्वयं प्रकट होकर उन्हें अनेकों तरह की योग विधियों से परिचित कराया। यह त्रिकाल सत्य है कि
श्रीमद्भगवद्गीता के प्रयोग साधक को योग के गोपनीय रहस्यों की अनुभूति देते हैं। वह अपने आप ही आध्यात्मिक चिकित्सा के यौगिक पक्ष में निष्णात हो जाता है।
जहाँ तक दुर्गासप्तशती की बात है, तो इस रहस्यमय ग्रन्थ में वेदों में वर्णित सभी तांत्रिक प्रक्रियाएँ कूटभाषा में वर्णित हैं। इसके अलग- अलग पाठक्रम अपने अलग- अलग प्रभावों को प्रकट करते हैं। यूं तो इसके पाठक्रम अनेक हैं। पर प्रायः इसके ग्यारह पाठक्रमों की चर्चा मिलती है। ये ग्यारह पाठक्रम कुछ इस प्रकार हैं- १. महाविद्या क्रम, २. महातंत्री क्रम, ३. चण्डी क्रम, ४. महाचण्डी क्रम, ५. सप्तशती क्रम, ६. मृत संजीवनी क्रम, ७. रूपदीपिका क्रम, ८. निकुंभला क्रम, ९. योगिनी क्रम, १०. संहार क्रम, ११. अक्षरशः विलोम क्रम। पाठक्रम की ये सभी विधियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। और प्रयोग के पूर्ण होते ही अपने प्रभाव को प्रकट किए बिना नहीं रहतीं।
इन पाठ क्रमों के अतिरिक्त श्री दुर्गासप्तशती के सहस्रों प्रयोग हैं। इनमें से कुछ साधारण हैं तो कुछ अतिविशिष्ट। इन सब की चर्चा यहाँ सम्भव नहीं जान पड़ रही। क्योंकि यह विषय अति गोपनीय एवं गम्भीर है, जिसे गुरुमुख से सुनना- जानना व करना ही श्रेयस्कर है। संक्षेप में हम यहाँ इतना ही कहेंगे कि पृथ्वी पर ही नहीं समस्त सृष्टि में ऐसा कुछ नहीं है, जिसे दुर्गासप्तशती के समर्थ प्रयोगों से हासिल न किया जा सके। इन पंक्तियों को पढ़ने वाले इसे रंचमात्र भी अतिशयोक्ति न समझें। लगातार जो अनुभव किया गया है, वही कहा गया है। वैसे यदि बात अपने स्वयं के व्यक्तित्व की चिकित्सा की हो तो दुर्गासप्तशती के साथ गायत्री महामंत्र के प्रयोग को श्रेष्ठतम पाया गया है।
वृन्दावन के उड़िया बाबा की दुर्गासप्तशती पर भारी श्रद्धा थी। अपनी आध्यात्मिक साधना के लिए जब उन्होंने घर छोड़ा, तो कोई सम्बल न था। कहाँ जाएँ, किधर जाएँ, कुछ भी सुझायी न देता था। ऐसे में उन्हें जगन्माता का स्मरण हो आया। मां के सिवा अपने बच्चे की और कौन देखभाल कर सकता है। बस मां का स्मरण करते हुए वे शतचण्डी के अनुष्ठान में जुट गए। दुर्गासप्तशती के इस अनुष्ठान ने उनके व्यक्तित्व को आध्यात्मिक ऐश्वर्य से भर दिया। अपने इस अनुष्ठान के बारे में वे भक्तों से बताया करते थे। गायत्री महामंत्र के साथ दुर्गासप्तशती के पाठ के संयोग से अपने जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा की जा सकती है। इतना ही नहीं स्वयं भी आध्यात्मिक चिकित्सक होने का गौरव पाया जा सकता है।