आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

कर्मफल के सिद्धान्त को समझना भी अनिवार्य

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कर्मसु कौशलम् --

 यानि कि कर्मों में कुशलता की सीख जरूरी है। और यह तभी सम्भव है, जब कर्मफल सिद्धान्त को समझा जाय। इसे समझे बिना आध्यात्मिक चिकित्सा सम्भव नहीं। जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि कहती है कि उपयुक्त कारण के बिना कोई कार्य हो नहीं सकता। यदि जिन्दगी में कुछ घटित हो रहा है- तो इसके पीछे किन्हीं कारणों का होना आवश्यक है। फिर ये रोग- शोक पैदा करने वाली घटनाएँ हो अथवा हर्ष- उल्लास के उत्प्रेरक घटनाक्रम। जीवन की किसी घटना को संयोग कहकर टालने की कोशिश करना पूरी तरह से अवैज्ञानिक है। सच तो यह है कि प्रकृति के सम्पूर्ण परिदृश्य में कभी भी- कहीं भी संयोग घटित नहीं होते। प्रत्येक घटना उपयुक्त कारणों के गर्भ से जन्म लेती है। प्रत्येक फल बीज के समुचित विकास का परिणाम होता है।
      
   कई बार ऐसा होता है कि हम किसी घटनाक्रम के लिए जिम्मेदार उपयुक्त कारणों को ढूँढने में असफल रहते हैं। और अपनी इस असफलता को संयोगों के मत्थे मढ़कर छुट्टी पा लेते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया सिरे से गलत है। इसे गैर जिम्मेदारी के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक वर्तमान का अतीत होता है, और इसका भविष्य भी। अतीत के गर्भ के बिना कोई वर्तमान अपना अस्तित्त्व नहीं पा सकता। इसी तरह वर्तमान के कार्यों की परिणति भविष्य में अपना सुफल अथवा कुफल प्रकट किए बिना नहीं रहेगी। घटना छोटी हो या बड़ी- प्रत्येक के साथ यही नियम विधान काम करता है। इसे अस्वीकारने अथवा झुठलाने की कोशिश अज्ञान जनित मूढ़ता के सिवा और कुछ नहीं।
        
 कर्मफल विधान की यही सच्चाई हमारी अपनी जिन्दगी के साथ जुड़ी हुई है। हमारा यह जीवन- यह मनुष्य जन्म किन्हीं संयोगों के कारण नहीं उपजा या पनपा है। इसके पीछे हमारे ही द्वारा किए गए कुछ सुनिश्चित कर्म हैं। हमारी बचपन की किलकारियाँ, किशोरवय की कुहेलिकाएँ, यौवन का पौरूष, बुढ़ापे की लाचारी के जिम्मेदार हमारे अपने सिवा और कोई नहीं। परमात्मा कभी किसी के प्रति भेद- भाव नहीं करते। उनकी कृपा या कोप के पीछे हमारे अपने ही सत्कर्म या दुष्कर्म जिम्मेदार होते हैं। जिन्दगी में सुख आएँ अथवा दुःख उनके कारण केवल हम होते हैं। हमारी जिन्दगी की छोटी या बड़ी, सुखद अथवा दुःखद परिस्थितियों के लिए हमारे सिवा कोई भी दूसरा जिम्मेदार नहीं।
         
जो जीवन की, प्रकृति की, कर्मफल के नियम की, परमेश्वर के समर्थ विधान की इस सच्चाई को जानते हैं, उन्हीं को विवेकवान कहा जा सकता है। अपने जीवन की जिम्मेदारी स्वीकारने वाले ऐसे कुशल व्यक्ति ही इसे संवारने का सच्चा प्रयत्न कर पाते हैं। अन्यथा और लोग तो अपने गैर जिम्मेदाराना रवैये के कारण अपनी विपन्नताओं का दोष दूसरों के माथे थोपते रहते हैं। इनकी विषम परिस्थितियों के लिए कभी तो भगवान् जिम्मेदार होता है, तो कभी भाग्य, कभी कोई मित्र तो कभी कोई शत्रु। हां जब कोई सुखद परिस्थितियाँ इनके जीवन में आती हैं, तो इनकी अहंता का पारा यकायक चढ़ जाता है। और इसका श्रेय लेने में ये किसी भी तरह से नहीं चूकते। ऐसे लोगों का जीवन हमेशा ही विडम्बना भरी कहानी बना रहता है।
       
  जिन्हें जिन्दगी की आध्यात्मिक चिकित्सा में रुचि या रस है, उनसे समझदारी की अपेक्षा है। इसके लिए वे पूरी ईमानदारी से अपनी जिन्दगी की जिम्मेदारी को स्वीकारें और बहादुरी से इसे निभाएँ। इस रीति को निभाए बगैर महानतम आध्यात्मिक चिकित्सक भी हमारी कारगर चिकित्सा न कर पाएगा। युगऋषि गुरुदेव का कहना था कि कर्मफल विधान आध्यात्मिक चिकित्सा का सर्वमान्य सिद्धान्त है। इसे समझे और स्वीकारे बिना किसी की कोई भी मदद सम्भव नहीं।
        
 इस सम्बन्ध में एक बड़ी मार्मिक घटना है। महाराष्ट्र का कोई व्यक्ति उनसे मिलने आया। उसकी आयु यही कोई ३०- ३५ वर्ष रही होगी। पर जिन्दगी की मार ने उसे असमय बूढ़ा कर दिया था। रुखे- उलझे सफेद बाल, हल्की पीली सी धंसी आँखें। चेहरे पर विषाद की घनी छाया। दुबली- पतली कद- काठी, सांवला रंग- रूप। बड़ी आशा और उम्मीद लेकर वह गुरुदेव के पास आया था। आते ही उसने प्रणाम करते हुए अपना नाम बताया उदयवीर घोरपड़े। साथ ही यह कहा कि वह महाराष्ट्र के जलगांव के पास के किसी गांव का रहने वाला है। इतना सा परिचय देने के बाद वह फफक- फफक कर रो पड़ा। और रोते हुए उसने अपनी विपद् कथा कह सुनायी।
        
 सचमुच ही उसकी कहानी करुणा से भरी थी। लम्बी बीमारी से पत्नी की मृत्यु, डकैती में घर की सारी सम्पत्ति का लुट जाना और साथ ही सभी स्वजनों की नृशंस हत्या। वह स्वयं तो इसलिए बच गया क्योंकि कहीं काम से बाहर गया था। अब निर्धनता और प्रियजनों के विछोह ने उसे अर्ध विक्षिप्त बना दिया था। जीवन उसके लिए अर्थहीन था और मौत ने उसे अस्वीकार कर दिया था। अपनी कहानी सुनाते हुए उसने एक रट लगा रखी थी कि गुरुजी! मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ। मैंने तो किसी का भी कुछ नहीं बिगाड़ा था। भगवान ऐसा अन्यायी क्यों है? पूज्य गुरुदेव ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- बेटा! अभी तेरा मन ठीक नहीं है। मैं तुझे कुछ बताऊँगा भी तो तुझे समझ नहीं आएगा।
        
 अभी तो मैं तुझे एक कहानी सुनाता हूँ। यह कहानी उस समय जन्मी जब भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर कौरव सभा में गए थे। और वहाँ उन्होंने उद्दण्ड दुर्योधन को डपटते हुए अपना विराट् रूप दिखाया। इस दिव्य रूप को भीष्म, विदुर जैसे भक्तों ने देखा। ऐसे में धृतराष्ट्र ने भी कुछ समय के लिए आँखों का वरदान माँगा, ताकि वह भी भगवान् की दिव्य छवि निहार सके। कृपालु प्रभु ने धृतराष्ट्र की प्रार्थना स्वीकार की। तभी धृतराष्ट्र ने कहा- भगवन् आप कर्मफल सिद्धान्त को जीवन की अनिवार्य सच्चाई मानते हैं। सर्वेश्वर मैं यह जानना चाहता हूँ, किन कर्मों के परिणाम स्वरूप मैं अन्धा हूँ।
        
 भगवान ने धृतराष्ट्र की बात सुनकर कहा, धृतराष्ट्र इस सच्चाई को जानने के लिए मुझे तुम्हारे पिछले जन्मों को देखना पड़ेगा। भगवान के इन वचनों को सुनकर धृतराष्ट्र विगलित स्वर में बोले- कृपा करें प्रभु, आपके लिए भला क्या असम्भव है। कुरु सम्राट के इस कथन के साथ भगवान योगस्थ हो गए। और कहने लगे- धृतराष्ट्र मैं देख रहा हूँ कि पिछले तीन जन्मों में तुमने ऐसा कोई पाप नहीं किया है, जिसकी वजह से तुम्हें अन्धा होना पड़े? श्रीकृष्ण के इस कथन को सुनकर धृतराष्ट्र बोले- तब तो कर्मफल विधान मिथ्या सिद्ध हुआ प्रभु! नहीं धृतराष्ट्र अभी इतना शीघ्र किसी निष्कर्ष पर न पहुँचो और भगवान् धृतराष्ट्र के विगत जन्मों का हाल बताने लगे। एक- एक करके पैंतीस जन्म बीत गए।

सुनने वाले चकित थे। धृतराष्ट्र का समाधान नहीं हो पा रहा था। तभी प्रभु बोले- धृतराष्ट्र मैं इस समय तुम्हारे १०८ वें जन्म को देख रहा हूँ। मैं देख रहा हूँ- एक युवक खेल- खेल में पेड़ पर लगे चिड़ियों के घोंसले उठा रहा है। और देखते- देखते उसने चिड़ियों के सभी बच्चों की आँखें फोड़ दीं। ध्यान से सुनो धृतराष्ट्र, यह युवक और कोई नहीं तुम ही हो। विगत जन्मों में तुम्हारे पुण्य कर्मों की अधिकता के कारण यह पाप उदय न हो सका। इस बार पुण्य क्षीण होने के कारण इस अशुभ कर्म का उदय हुआ है।
        
 इस कथा को सुनाते हुए परम पूज्य गुरुदेव ने उस युवक के माथे पर भौहों के बीच हल्का सा दबाव दिया। और वह निस्पन्द होकर किसी अदृश्य लोक में प्रविष्ट हो गया। कुछ मिनटों में उसने पता नहीं क्या देख लिया। जब वापस उसकी चेतना लौटी तो वह शान्त था। गुरुदेव उससे बोले- समझ गए न बेटा। वह बोला- हाँ गुरुजी मेरे ही कर्म हैं। यह सब मेरे ही दुष्कर्मों का फल है। कोई बात नहीं बेटा, जब जागो तभी सबेरा। अब से तुम अपने जीवन को संवारों। मैं तुम्हारा साथ दूँगा। क्या करना होगा, उस युवक ने पूछा। चित्त के संस्कारों को जानो और इनका परिष्कार करो। गुरुदेव के इस कथन ने उसके जीवन में नयी राह खोल दी।
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