आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

पंचशीलों को अपनाएँ, आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर कदम बढ़ाएँ

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आध्यात्मिक स्वास्थ्य का अर्थ समझें- आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर बढ़ाएँ कदम! यही वह दैवी सन्देश है- जिसे इस समय अन्तस् सुना रहा है। हिमालय की हवाओं ने जिसे हम सबके लिए भेजा है। नवरात्रि के पवित्र पलों में इसी की साधना की जानी है। भगवती महाशक्ति से यही प्रार्थना की जानी है कि हम सभी आध्यात्मिक स्वास्थ्य का अर्थ और मर्म समझ सकें। और भारत देश फिर से आध्यात्मिक चिकित्सा में अग्रणी हो। इसी सन्देश को ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की रजत जयंती के अवसर पर जन- जन को सुनाया जाना है। क्योंकि स्वास्थ्य किसी एक की समस्या नहीं है। अकेले अपने महादेश भारत में ही नहीं- सम्पूर्ण विश्व के कोटि- कोटि जन इससे ग्रसित हैं। सच तो यह है कि जो अपने को स्वस्थ कहते हैं, वे भी किसी न किसी रूप में बीमार हैं।

          जिनका तन ठीक है, उनका मन बीमार है। आध्यात्मिक स्वास्थ्य के अर्थ से प्रायः सभी अपरिचित हैं। हालांकि इसका परिचय- इसकी परिभाषा इतनी ही है कि तन और मन ही नहीं हमारी जीवात्मा भी अपने स्व में स्थित हो। हमारी आत्म शक्तियाँ जीवन के सभी आयामों से अभिव्यक्त हों। हम भगवान् के अभिन्न अंश हैं यह बात हमारे व्यवहार, विचार व भावनाओं से प्रमाणित हो। यदि ऐसा कुछ हमारी अनुभूतियों में समाएगा तभी हम आध्यात्मिक स्वास्थ्य का सही अहसास कर पाएँगे। इसी के साथ हमारे- हम सबके कदम साहसिक साधनाओं की ओर बढ़ने चाहिए। तभी हम आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर बढ़ सकते हैं और भविष्य में आध्यात्मिक चिकित्सक होने का गौरव पा सकते हैं।

          बात जब आध्यात्मिक चिकित्सा की चलती है तो इसे कतिपय क्रियाओं- कर्मकाण्डों व प्रयोगों तक सीमित मान लिया जाता है। और आध्यात्मिक जीवन दृष्टि की अपेक्षा- अवहेलना की जाती है। इस अवहेलना भरी अनदेखी के कारण ये कर्मकाण्ड और प्रयोग थोड़े ही समय में अपने प्रभाव का प्रदर्शन करके किसी अंधियारे में समा जाते हैं। इस सच को हर हालत में समझा जाना चाहिए कि आध्यात्मिक जीवन दृष्टि ही सभी आध्यात्मिक उपचारों व प्रयोगों की ऊर्जा का स्रोत है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। इसी वजह से जो अध्यात्म चिकित्सा के सिद्धान्तों व प्रयोगों के विशेषज्ञ व मर्मज्ञ हैं उन्होंने पाँच सूत्रों को अपनाने की बात कही है।

          इन्हें आध्यात्मिक चिकित्सा के पंचशील की संज्ञा दी जा सकती है। इन्हें मां गायत्री के पंचमुख और उनकी पूजा में प्रयुक्त होने वाला पंचोपचार भी कहा जा सकता है। जिन्हें आध्यात्मिक चिकित्सा में अभिरूचि है उन्हें इस बात की शपथ लेनी चाहिए कि इनका पालन अपने व्यक्तिगत जीवन में संकल्पपूर्वक होता रहे। आध्यात्मिक चिकित्सा के विशेषज्ञों ने इन्हें अपने स्तर पर आजीवन अपनाया है। यही उनकी दिव्य विभूतियों व आध्यात्मिक शक्तियों का स्रोत साबित होता रहा है। अब बारी उनकी है, जो आध्यात्मिक स्वास्थ्य व इसकी प्रयोग विधि से परिचित होना चाहते हैं। इच्छा यही है कि उनमें इन पंचशीलों के पालन का उत्साह उमड़े और वे इसके लिए इसी शारदीय नवरात्रि से साधना स्तर का प्रयत्न प्रारम्भ कर दें।

१. बनें अपने आध्यात्मिक विश्व के विश्वामित्र- जिस दुनिया में हम जीते हैं, उसका चिन्तन व व्यवहार ही यदि अपने को प्रेरित प्रभावित करता रहे तो फिर आध्यात्मिक जीवन दृष्टि अपनाने की आशा नहीं के बराबर रहेगी। लोग तो वासना, तृष्णा और अहंता का पेट भरने के अलावा और किसी श्रेष्ठ मकसद के लिए न तो सोचते हैं और न करते हैं। उनका प्रभाव और परामर्श अपने ही दायरे में घसीटता है। यदि जीवन में आध्यात्मिक चिकित्सा करनी है तो सबसे पहले अपना प्रेरणा स्रोत बदलना पड़ेगा। परामर्श के नए आधार अपनाने पड़ेंगे। अनुकरण के नए आदर्श ढूँढने पड़ेंगे।

इसके लिए हमें आध्यात्मिक चिकित्सा के मर्मज्ञों व विशेषज्ञों को अपना प्रेरणा स्रोत बनाना होगा। हां, यह सच है कि ऐसे लोग विरल होते हैं। हर गली- कूचे में इन्हें नहीं ढूँढा जा सकता। ऐसी स्थिति में हमें उन महान् आध्यात्मिक चिकित्सकों के विचारों के संसर्ग में रहना चाहिए, जिनका जीवन हमें बार- बार आकॢषत करता है। हमारे प्रेरणा स्रोत युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव, महर्षि श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द स्तर के कोई महामानव हो सकते हैं। इनमें से किसी से और इनमें से सभी से अपना भाव भरा नाता जोड़ा जा सकता है। अपने जीवन की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए इनके व्यक्तित्व व विचारों से परामर्श किया जाना चाहिए। इन सबकी हैसियत हमारे जीवन में परिवार के सदस्यों की तरह होनी चाहिए। महर्षि विश्वामित्र की भाँति हमें संकल्पपूर्वक अभी इन्हीं क्षणों में अपना यह नया आध्यात्मिक विश्व बसा लेना चाहिए। दैनिक क्रिया कलापों को करते हुए हमें अपना अधिकतम समय अपने इसी आध्यात्मिक विश्व में बिताना चाहिए। ऐसा हो सके तो समझना चाहिए कि अपनी आध्यात्मिक चिकित्सा का एक अति महत्त्वपूर्ण आधार मिल गया।

२. साधना के लिए बढ़ाएँ साहसिक कदम- आज के दौर में साधना का साहस विरले ही कर पाते हैं। इस सम्बन्ध में बातें तो बहुत होती हैं, पर प्रत्यक्ष में कर दिखाने की हिम्मत कम ही लोगों को होती है। बाकी लोग तो इधर- उधर के बहाने बनाकर कायरों की तरह मैदान छोड़कर भाग जाते हैं। ऐसे कायर और भीरू जनों की आध्यात्मिक चिकित्सा सम्भव नहीं। जो साहसी हैं वे मंत्र- जप व ध्यान आदि प्रक्रियाओं के प्रभाव से अपनी आस्थाओं, अभिरुचि व आकांक्षाओं को परिष्कृत करते हैं। वे अनुभूतियों के दिवा स्वप्नों में नहीं खोते। इस सम्बन्ध में की जाने वाली चर्चा व चिन्ता के शेखचिल्लीपन में उनका भरोसा नहीं होता।

वे तो बस अपनी आध्यात्मिक चेतना के शिखरों पर एक समर्थ व साहसी पर्वतारोही की भाँति चढ़ते हैं। बातें साधना की और कर्म स्वार्थी व अहंकारी के। ऐसे ढोंगियों और गपोड़ियों ने ही आध्यात्मिक साधनाओं को हंसी- मजाक की वस्तु बना दिया है। जो सचमुच में साधना करते हैं, वे पल- पल अपने अन्तस् को बदलने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। उनका विश्वास बातों व विचारों के परिवर्तन में नहीं अपनी गहराइयों में छुपे संस्कारों के परिवर्तन में होता है। आध्यात्मिक प्रयोगों को ये उत्खनन विधियों के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जो इसमें जुटे हैं, वे इन कथनों की सार्थकता समझते हैं। उन्हीं में वह साहस उभरता है, जिसके बलबूते वे अपने स्वार्थ और अहंकार को पाँवों के नीचे रौंदने, कुचलने का साहस रखते हैं। कोई भी क्षुद्रता उन्हें छू नहीं पाती। कष्ट के कंटकों की परवाह किए बगैर वे निरन्तर महानता और आध्यात्मिकता के शिखरों पर चढ़ते जाते हैं।

३. मालिक नहीं माली बनें- मालकियत होने के बोझ के नीचे इन्सान दबता- पिसता रहता है। इस मालिकी की झूठी शान को छोड़कर माली बनने से जिन्दगी हल्की- फुल्की हो जाती है। सन्तोष व शान्ति से समय कटता है। वैसे भी मालिक तो सिर्फ एक ही है- भगवान। उस ‘सबका मालिक एक’ को झुठलाकर स्वयं मालिक होने के आडम्बर में, झूठी अकड़ में केवल मनोरोग पनपते हैं। जीवन का सत्य निर्झर सूख जाता है। आध्यात्मिक चिकित्सा के विशेषज्ञों का मानना है कि यह संसार ईश्वर का है। मालिकी भी उसी की है। हमें नियत कर्म के लिए माली की तरह नियुक्त किया गया है। उपलब्ध शरीर का, परिवार का, वैभव का वास्तविक स्वामी परमेश्वर है। हम तो बस उसकी सुरक्षा व सुव्यवस्था भर के लिए उत्तरदायी हैं। ऐसा सोचने से अपने आप ही जी हल्का रहेगा, और अनावश्यक मानसिक विक्षिप्तताओं और विषादों की आग में न जलना पड़ेगा।

हम न भूतकाल की शिकायतें करें, और न भविष्य के लिए आतुर हों। वरन् वर्तमान का पूरी जागरूकता एवं तत्परता के साथ सदुपयोग करें। न हानि में सिर पटकें न लाभ में खुशी से पागल बनें। विवेकवान, धैर्यवान, भावप्रवण भक्त की भूमिका निभाएँ। जो बोझ कन्धे पर है, उसे जिम्मेदारी के साथ निबाहें और प्रसन्न रहें। हां, अपने कर्तव्य को पूरा करने व उसके लिए मर मिटने में अपनी तरफ से कोई कसर न छोड़ें।

४. बर्बादी से बचें- गलत कामों में अपनी सामर्थ्य को बरबाद करने के दुष्परिणाम सभी जानते हैं। ऐसे लोगों को कुकर्मी, दुष्ट, दुराचारी कहा जाता है। इन्हें बदनामी मिलती है, घृणित, तिरस्कृत बनते हैं, आत्म प्रताड़ना सहते हुए सहयोग से वंचित होते हैं और पतन के गर्त में जा गिरते हैं। यह सब केवल अपनी सामर्थ्य के गलत नियोजन से होता है। इस महापाप से थोड़े कम दर्जे का पाप है- व्यर्थ में अपनी शक्तियों को गंवाते रहने की मूर्खता। यूं देखने में यह कोई बड़ी बुराई नहीं लगती पर इसके परिणाम लगभग उसी स्तर के होते हैं। आमतौर पर बर्बादी के चार तरीके देखने को मिलते हैं- १. शारीरिक श्रम शक्ति को व्यर्थ में गंवाना- आलस्य, २. मन को अभीष्ट प्रयोजनों में न लगाकर उसे इधर- उधर भटकने देना- प्रमाद, ३. समय का, धन का, वस्तुओं का, क्षमता का बेसिलसिले उपयोग करना, उन्हें बर्बाद करना- अपव्यय, ४. तत्परता, जागरूकता, साहसिकता, उत्साह का अभाव, अन्यमनस्क मन से बेगार भुगतने की तरह कुछ उलटा- सुलटा करते रहना- अवसाद।

इन चार दुर्गुणों की चतुरंगिणी से हम हर समय सजग सैन्य प्रहरी की तरह मुकाबला करें। कभी किन्हीं क्षणों में इन्हें स्वयं पर हावी न होने दें। आलस्य, प्रमाद, अपव्यय व अवसाद के असुरों से हमें पूरी क्षमता से निबटना चाहिए। श्रम निष्ठा, कर्म परायणता, उत्साह, स्फूर्ति, सजगता, विनम्रता, व्यवस्था, स्वच्छता, अपने स्वभाव के अंग होने चाहिए। भीरूता, आत्महीनता, दीनता, निराशा, चिन्ता जैसे किसी दुष्प्रवृत्ति को अपनी सामर्थ्य को बरबाद करने की इजाजत हमें नहीं देनी चाहिए।

५. उदार बनने से चूके नहीं- आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति उदारता से कभी नहीं चूकता। कृपणता व विलासिता दोनों ही आध्यात्मिक रोगी होने के चिह्न हैं। उदारता तो स्वयं के अस्तित्व का विस्तार है। अपने परम प्रिय प्रभु से साझेदारी है। उनके इस विश्व उद्यान को सजाने- संवारने का भावभरा साहस है। जो भक्त हैं, वे उदार हुए बिना रह नहीं सकते। इसी तरह जो शिष्ट हैं, वे अपना समय- श्रम सद्गुरू को सौंपे बिना नहीं रह सकते। हमारे भण्डार भरे रहे और गुरुदेव की योजनाएँ श्रम और अर्थ के अभाव में अधूरी ही रहे, यह भला किन्हीं सुयोग्य शिष्यों के रहते किस तरह सम्भव है। यह न केवल सेवा की दृष्टि से बल्कि स्वयं की आध्यात्मिक चिकित्सा के लिए भी उपयोगी है। उदार भावनाएँ, उदार कर्म स्वयं ही हमारी मनोग्रन्थियों को खोल देते हैं। मनोग्रन्थियों से छुटकारे के लिए भावभरी उदारता एक समर्थ चिकित्सा विधि का काम करती है।

आध्यात्मिक चिकित्सा के इन पंचशीलों को अपनी जीवन साधना में आज और अभी से समाविष्ट कर लेना चाहिए। यदि इन्हें अपने जीवन में सतत उतारने के लिए सतत कोशिश की जाती रहे तो आध्यात्मिक दृष्टि से असामान्य व असाधारण बना जा सकता है। हम सबके आराध्य परम पूज्य गुरुदेव सदा ही इसी पथ पर चलते हुए आध्यात्मिक चिकित्सा के विशेषज्ञ बने थे। उनके द्वारा निर्देशित यही पथ अब हमारे लिए है। ऐसा करके हम अपने आध्यात्मिक स्वास्थ्य को सदा के लिए प्राप्त कर सकते हैं। और भविष्य में एक समर्थ आध्यात्मिक चिकित्सक की भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। विश्वास है अपने भावनाशील परिजन इससे चूकेंगे नहीं। वे स्वयं तो इस पथ पर आगे बढ़ेंगे ही, दूसरों में भी आन्तरिक उत्साह जगाने में सहयोगी- सहायक बनेंगे। ऐसा होने पर अपने भारत देश की आध्यात्मिक चिकित्सा की परम्परा को नवजीवन मिल सकता है।
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