आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

तंत्र एक सम्पूर्ण विज्ञान, एक चिकित्सा पद्धति

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तंत्र की तकनीकें प्रत्येक स्थिति में असरकारक सिद्ध होती हैं। आध्यात्मिक चिकित्सक इनका इस्तेमाल व्यक्ति के दुःख, दुर्भाग्य, दोष- दैन्य, पीड़ा- पतन, विकृति- विरोध आदि के निवारण के लिए करते हैं। यदि इन तकनीकों का प्रयोग सविधि किया गया है, तो इनका प्रभाव अचूक होता है। स्थिति कैसी भी हो, व्यक्ति कोई भी हो इनके सटीक असर हुए बिना नहीं रहते। इस दुर्लभ विज्ञान के आधिकारिक विद्वान इस युग में कम ही हैं, पर जो हैं, उनके सान्निध्य में इसके चमत्कार अनुभव किये जा सकते हें। इन विशेषज्ञों का कहना है कि अध्यात्म विद्या के दो आयाम हैं- एक आत्मिकी, दूसरा भौतिकी। आत्मिकी को योग विज्ञान एवं भौतिकी को तंत्र विज्ञान कहते हैं। इस वैज्ञानिक युग में भौतिकी शब्द थोड़ा भ्रमित करने वाला है, क्योंकि इससे फिजिक्स का बोध होता है। ऐसी स्थिति में इसको पराभौतिकी का नाम दिया जा सकता है।

         तंत्र महाविद्या की स्थिति भी सचमुच में कुछ ऐसी ही है। जिन चीजों को हम उपेक्षित एवं अवाँछनीय मानते हैं, तंत्र की तकनीकों में उनका बड़ा कारगर इस्तेमाल होता है। पदार्थ विज्ञान ने अणु भौतिकी, कण भौतिकी एवं क्वाण्टम यांत्रिकी की खोजें अभी कुछ ही दशकों पूर्व की हैं। पर तंत्र विशेषज्ञों ने सहस्राब्दियों पूर्व न केवल इन सत्यों को पहचाना, बल्कि इनके प्रयोग की तकनीकें भी विकसित कर लीं। तंत्र विद्या प्रत्येक पदार्थ को ऊर्जा स्रोत के रूप में देखती और मानती है। और इसके व्यावहारिक जीवन में प्रयोग की तकनीकों के अनुसंधान में निरत रहती है।

          तंत्र अपने सिद्धान्त एवं प्रयोग में सम्पूर्ण विज्ञान है। जिन्हें इसकी वैज्ञानिकता पर संदेह होता है, उन्हें विज्ञान एवं वैज्ञानिकता की इबारत को नये सिरे से पढ़ना- सीखना चाहिए। सार्थक वैज्ञानिक दृष्टि यह कहती है कि सिद्धान्त की प्रायोगिक पड़ताल किये बगैर उसे नकारा नहीं जाना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि कोण में किसी आग्रह या मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। यहाँ प्रायोगिक निष्कर्ष ही सब कुछ होते हैं। यहाँ प्रत्यक्षीकरण ही सिद्धान्तों का आधार बनते हैं। जो विज्ञान के दर्शन को स्वीकार करते हैं। तंत्र विद्या उनके लिए नये अनुसंधान क्षेत्र के द्वार उन्मुक्त करती है। उन्हें चुनौती देती है कि आओ, प्रयोग करो और परखो कि सच क्या है? हाँ जो सच मिले उसे स्वीकारने में शरमाना और हिचकिचाना मत। मानवता की भलाई के लिए इनका प्रयोग करना।

          अध्यात्म चिकित्सा के विशेषज्ञ सदियों से यही करते आ रहे हैं और इन क्षणों में भी यही कर रहे हैं। तंत्र का समूचा विज्ञान मूल रूप से पाँच तत्त्वों पर टिका हुआ है। जिस तरह से पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु एवं आकाश इन पाँच तत्त्वों से सृष्टि बनती है, उसी तरह से १. पदार्थ, २. स्थान, ३. शब्द, ४. अंक एवं ५. काल, इन पाँच अवयवों के सहारे तंत्र की वैज्ञानिक प्रक्रिया क्रियाशील होती है। तंत्र के क्षेत्र में इन पाँचों का अपना विशिष्ट अर्थ है। जिसे जानकर ही इसके प्रयोग किये जा सकते हैं। इस क्रम में सबसे पहला है पदार्थ। इस सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिकों की भाँति तंत्र विशेषज्ञ भी मानते हैं कि ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की विभिन्न धाराओं ने एक विशिष्ट क्रम से मिलकर इस सृष्टि के विभिन्न पदार्थों की सृष्टि की है। इस सृष्टि का प्रत्येक अवयव भले ही वह वस्तु हो या प्राणी अथवा वनस्पति ऊर्जा का ही सघन रूप है।

          जगत् और जीवन की इस सच्चाई को स्वीकारते तो वैज्ञानिक भी हैं, पर वे सृष्टि के प्रत्येक अवयव को समपूर्णतया या आँशिक रूप से ऊर्जा में परिवर्तित करने की कला नहीं जानते। लेकिन तांत्रिक ऐसा करने में सक्षम होते हैं। वे अपने प्रयोगों में सृष्टि के प्रत्येक अवयव का चाहे वह जीवित हो या मृत उसमें निहित ऊर्जा का इस्तेमाल कर सकते हैं। वृक्षों की जड़ें या पत्तियाँ, पशु- पक्षियों एवं मनुष्यों के नाखून या बाल तक में निहित ऊर्जा का वह समुचित प्रयोग कर लेते हैं। इन प्रयोगों में दूसरा क्रम स्थान का है। विशेषज्ञों का मानना है कि ब्रह्माण्डीय ऊर्जाधाराएँ प्रत्येक स्थान पर एक सुनिश्चित रीति से केन्द्रीभूत होती हैं। इसलिए किस ऊर्जा का किस तरह से क्या उपयोग करना है, उसी क्रम में स्थल का चयन किया जाता है। यह स्थान मंदिर, देवालय भी हो सकता है और पीपल, वट आदि वृक्षों की छाँव भी अथवा नदी का किनारा या श्मशान भी हो सकता है।

          तंत्र विज्ञान में तीसरा किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द है। शब्द की तन्मात्रा आकाश है। आकाश परम तत्त्व है, इसी से अन्य तत्त्व उपजे हैं। इसी वजह से तंत्र ने आकाश तत्त्व को अपनी साधना के आधार के रूप में स्वीकारा है। शब्द से बने बीजाक्षर एवं मंत्राक्षरों के सविधि प्रयोग से तंत्र विशेषज्ञ ब्रह्माण्ड की ऊर्जाधाराओं की दिशा को नियंत्रित एवं नियोजित करते हैं। पढ़ने वाले भले इसे असम्भव माने, पर ऐसा होता है। इसे कोई भी अनुभव कर सकता है। तंत्र विद्या में शब्द के प्रयोग अतिरहस्यमय हैं और तुरन्त प्रभाव प्रकट करने वाले हैं। इसमें कोई बीजाक्षर तो ऐसे हैं जो एक- डेढ़ अक्षर के होते हुए भी सिद्ध हो जाने पर कुछ ही सेकण्डों में चमत्कार पैदा करने लगते हैं।

          इस क्रम में चौथे तत्त्व के रूप में अंक का स्थान है। शब्दों की भाँति अंक भी तंत्र विद्या में महत्त्व रखते हैं। इन अंकों और कुछ निश्चित रेखा कृतियों के संयोग से यंत्रों का निर्माण होता है। इन यंत्रों की पूजा- प्रतिष्ठा एवं सविधि साधना के द्वारा विशिष्ट ऊर्जाधारा को इसमें केन्द्रित किया जाता है। इसी को यंत्र की जागृति कहते हैं। ऐसा होने पर फिर यंत्र ट्रांसफार्मर जैसा काम करने लगता है, यानि कि वह अपने में केन्द्रित ऊर्जा को काम्य प्रयोजन की पुर्ति के योग्य बनाता है। इस विज्ञान का पाँचवा तत्त्व है काल, जिस पर सारी प्रयोग प्रक्रिया निर्भर करती है। इसके अन्तर्गत यह जानना होता है कि उपरोक्त सभी चारों तत्त्वों का संयोग कब- किन विशेष क्षणों में किया जाय।

          इस प्रवाहमान सृष्टि में इसमें संव्याप्त ऊर्जा धाराएँ भी प्रवाहित हैं। इनमें से प्रत्येक की स्थिति, क्षमता, प्रकृति, दिशा सभी कुछ अलग है। कुछ निश्चित क्षणों में एक विशिष्ट रीति से इनका मिलन होता है। इन पलों में इनके विशेष प्रभाव पदार्थ पर भी पड़ते हैं और स्थान पर भी। मंत्र या यंत्र साधना भी इससे प्रभावित होती हैं। यही वजह है कि विशेष साधना के लिए विशेष क्षणों का चयन करना पड़ता है। जैसे ग्रहण का समय, दीवाली या होली की रातें अथवा फिर शिवरात्रि या नवरात्रि के अवसर। कुछ विशेष योग भी इसमें उपादेय माने गये हैं। जैसे- गुरुपुण्य, रविपुण्य योग, सर्वार्थ सिद्धि, अमृतसिद्धि योग। इन पुण्य क्षणों में तंत्र तकनीकें शीघ्र फलदायी होती हैं।

          जिन्हें इन सबका सम्पूर्ण ज्ञान होता है, वही अपनी आध्यात्मिक चिकित्सा में तंत्र की तकनीकों का प्रयोग करने में सक्षम हो पाते हैं। तांत्रिकों के आराध्य बाबा कीनाराम इस प्रक्रिया के परम विशेषज्ञ थे। उनके बारे में कहा जाता है कि जो बाबा विश्वनाथ कर सकते हैं, वही बाबा कीनाराम भी कर सकते हैं। अपने बारे में इस उक्ति पर वह हँसते हुए कहते हैं- अरे! यहाँ है ही क्या रे, यहाँ सब तो कणों की धूल का बवण्डर है। महामाया की ऊर्जा का खेल भर है। उन्होंने जो दिखा दिया है, मैं वही करता रहता हूँ। एक बार उनके यहाँ एक प्रौढ़ महिला अपने बीस वर्षीय बेटे को लेकर आयी। उसका लड़का लगभग मरणासन्न था। सभी चिकित्सकों ने उसे असाध्य घोषित कर दिया था। वह जब बाबा कीनाराम के पास आयी तो उन्होंने कहा- अभी जा शाम के समय आना। वह बहुत रोयी, गिड़गिड़ाई, पर वे नहीं माने। एक नजर सूरज की ओर देखा और शाम को आने को बोल दिया।

          लाचार महिला क्या करती। रोती- कलपती चली गयी और शाम को पहुँची। बाबा कीनाराम ने वही घाट के पास से एक पत्ती तोड़ी और उसका रस उस युवक के मुँह में निचोड़ दिया। सभी को भारी अचरज तब हुआ जब वह मरणासन्न युवक उठ बैठा। उपस्थित जन उनकी जयकार करने लगे। इस पर वह सभी को डपटते हुए बोले- अरे जय बोलते हो तो महाकाल की बोलो। इस क्षण की बोलो। इस क्षण का विशेष महत्त्व है। इसमें प्रयोग किया जाने वाली औषधि एवं मंत्र मुर्दे में भी जान डाल सकती है। दरअसल यह बाबा कीनाराम के द्वारा प्रयोग की गई चिकित्सा की विशेष विधि थी, जो मंत्र चिकित्सा पर आधारित थी। इसके सफल प्रयोग ने उस युवक को नवजीवन दे दिया।
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