आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

व्यक्तित्व की समग्र साधना हेतु चान्द्रायण तप

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तप के प्रयोग अद्भुत हैं और इनके प्रभाव असाधारण। इन्हें व्यक्तित्व की समग्र चिकित्सा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। चिकित्सा के अभाव में रोगी शक्तिहीन, दुर्बल, निस्तेज रहता है। लेकिन चिकित्सा के प्रभाव से उसकी शक्तियाँ क्रियाशील हो जाती हैं। दुर्बलता सबलता में बदलती है और व्यक्तित्व का तेजस् वापस लौट आता है। ये परिवर्तन तो सामान्य चिकित्सा क्रम के हैं, जो अपेक्षाकृत आँशिक एवं एकाँगी होते हैं। तप में तो इस प्रक्रिया की स्वाभाविक समग्रता झलकती है। इससे न केवल शारीरिक स्वास्थ्य एवं बाह्य परिस्थितियाँ सँवरती हैं, बल्कि आन्तरिक जीवन का भी परिमार्जन- परिष्कार होता है। इस प्रक्रिया से अन्तर्चेतना का समूचा साँचा बदल जाता है। रूचियाँ, प्रवृत्तियाँ, चिंतन की दशा और दिशा सभी रूपान्तरित हो जाते हैं। रोग कोई भी हो, तप के प्रयोगों से इनका अचूक समाधान होता है।

          ऐसे अद्भुत व आश्चर्यकारी प्रभावों के बावजूद तप के प्रयोगों के बारे में अनेकों भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं। कुछ लोग भूखे रहने को तप मानते हैं, तो कुछ के लिए सिर के बल खड़े होना या एक पाँव के बल पर बहुत समय तक खड़े रहना तप है। ऐसे लोग न तो यह जानते हैं कि तप क्या है? और न उन्हें यह मालूम है कि उन्हें क्यों व किसलिए करना है? इस सम्बन्ध में कुछ की भ्रान्ति तो इतनी गहरी होती है कि वह कुछ उल्टी- सीधी क्रियाएँ करके लोगों को रिझाने को ही तप मान लेते हैं। जबकि वास्तविक अर्थों में किसी तरह के पाखण्ड और आडम्बर का तप से कोई लेना- देना नहीं है। यह तो विशुद्ध रूप से व्यक्तित्व की समग्र चिकित्सा की वैज्ञानिक पद्धति है।

          इस समूची प्रक्रिया के तीन चरण हैं-

१. संयम
२. परिशोधन
३. जागरण।

          ये तीनों ही चरण क्रमिक होने के साथ एक- दूसरे पर आधारित हैं। इनमें से पहले क्रम में संयम तप की समूची प्रक्रिया का आधार है। इसी बिन्दु से तप के प्रयोग का प्रारम्भ होता है। इस प्रारम्भिक बिन्दु में तपस्वी को अपनी सामान्य जीवन ऊर्जा का संरक्षण करना होता है। वह उन नीति- नियमों व अनुशासनों का श्रद्धा सहित पालन करता है जो क्रिया, चिंतन एवं भावना के झरोखे से होने वाली ऊर्जा की बर्बादी को रोकते हैं। इस सच्चाई को हम सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य सम्बन्धी सभी तरह की परेशानियाँ चाहे वे शारीरिक हो या फिर मानसिक किसी न किसी तरह के असंयम के कारण होती हैं। असंयम से जीवन की प्रतिरोधक शक्ति में कमी आती है और बीमारियाँ घेर लेती हैं।

          जबकि संयम प्रतिरोधक शक्ति की लौह दीवार को मजबूत करता है। संयम से जीवन इतना शक्तिशाली होता है कि किसी भी तरह के जीवाणु- विषाणु अथवा फिर नकारात्मक विचार प्रवेश ही नहीं पाते हैं। तप के प्रयोग का यह प्रथम चरण प्राणबल को बढ़ाने का अचूक उपाय है। इससे संरक्षित ऊर्जा स्वस्थ जीवन का आधार बनती है। जिनकी तप में आस्था है वे नित्य- नियमित संयम की शक्तियों को अनुभव करते हैं। मौसम से होने वाले रोग, परिस्थितियों से होने वाली परेशानियाँ उन्हें छूती ही नहीं। इससे साधक में जो बल बढ़ता है, उसी से दूसरे चरण को पूरा करने का आधार विकसित होता है। परिशोधन के इस दूसरे चरण में तप की आन्तरिकता प्रकट होती है। इसी विन्दु पर तप के यथार्थ प्रयोगों की शुरुआत होती है। मृदु चन्द्रायण, कृच्छ  चन्द्रायण के साथ की जाने वाली गायत्री साधनाएँ इसी शृंखला का एक हिस्सा है। विशिष्ट मुहूर्तों, ग्रहयोगों, पर्वों पर किये जाने वाले उपवास का भी यही अर्थ है।

          परिशोधन किस स्तर पर और कितना करना है, इसी को ध्यान में रखकर इन प्रयोगों का चयन किया जाता है। इसके द्वारा इस जन्म में भूल से या प्रमादवश हुए दुष्कर्मों का नाश होता है। इतना ही नहीं विगत जन्मों के दुष्कर्म, प्रारब्धजनित दुर्योगों का इस प्रक्रिया से शमन होता है। तप के प्रयोग में यह चरण महत्त्वपूर्ण है। इस क्रम में क्या करना है, किस विधि से करना है, इसका निर्धारण कोई सफल आध्यात्मिक चिकित्सक ही कर सकता है। जिनकी पहुँच उच्चस्तरीय साधना की कक्षा तक है वे स्वयं भी अपनी अन्तर्दृष्टि के सहारे इसका निर्धारण करने में समर्थ होते हैं। अगर इसे सही ढंग से किया जा सके तो तपश्चर्या में प्रवीण साधक अपने भाग्य एवं भविष्य को बदलने, उसे नये सिरे से गढ़ने में समर्थ होता है।

          तीसरे क्रम में जागरण का स्थान है। यह तप के प्रयोग की सर्वोच्च कक्षा है। इस तक पहुँचने वाले साधक नहीं, सिद्ध जन होते हैं। परिशोधन की प्रक्रिया में जब सभी कषाय- कल्मष दूर हो जाते हैं तो इस अवस्था में साधक की अन्तर्शक्तियाँ विकसित होती हैं। इनके द्वारा वह स्वयं के साथ औरों को जान सकता है। अपने संकल्प के द्वारा वह औरों की सहायता कर सकता है। इस अवस्था में पहुँचा हुआ व्यक्ति स्वयं तो स्वस्थ होता ही है औरों को भी स्वास्थ्य का वरदान देने में समर्थ होता है। जागरण की इस अवस्था में तपस्वी का सीधा सम्पर्क ब्रह्माण्ड की विशिष्ट शक्तिधाराओं से हो जाता है। इनसे सम्पर्क, ग्रहण, धारण व नियोजन की कला उसे सहज ज्ञात हो जाती है। इस अवस्था में वह अपने भाग्य का दास नहीं, बल्कि उसका स्वामी होता है। उसमें वह सामर्थ्य होती है कि स्वयं के भाग्य के साथ औरों के भाग्य का निर्माण भी कर सके।

          ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरूदेव ने अपना समूचा जीवन तप के इन उच्चस्तरीय प्रयोगों में बिताया। उन्होंने अपने समूचे जीवन काल में कभी भी तप की प्रक्रिया को विराम् नहीं दिया। अपने अविराम तप से उन्होंने जो प्राण ऊर्जा इकट्ठी की उसके द्वारा उन्होंने लाखों लोगों को स्वास्थ्य के वरदान दिये। इतना ही नहीं उनने कई कुमार्गगामी- भटके हुए लोगों को तप के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित भी किया। ऐसा ही एक उदाहरण गुजरात के सोमेश भाई पटेल का है। आर्थिक रूप से समृद्ध होते हुए भी ये सज्जन शराब, सिगरेट, जुआ, नशा जैसी अनेकों बुरी आदतों की गिरफ्त में थे। इन आदतों के कारण उनके घर में तो कलह रहती ही थी, स्वयं के स्वास्थ्य में भी घुन लग चुका था। उच्च रक्तचाप, मधुमेह के साथ कैंसर के लक्षण भी उनमें उभर आये थे।

          ऐसी अवस्था में वे गुरुदेव के पास आये। गुरुदेव ने उनकी पूरी विषद् कथा धैर्य से सुनी। सारी बातें सुनकर वह बोले बेटा मैं तुझे ठीक तो कर सकता हूँ पर इसके लिए तुझे मेरी फीस देनी पड़ेगी। ‘फीस’ इस शब्द ने सोमेश भाई पटेल को पहले तो चौंकाया, लेकिन बाद में सम्हलते हुए बोले- आप जो माँगेंगे मैं दूँगा। पहले सोच ले- गुरुदेव ने उन्हें चेताया। इस बात के उत्तर में सोमेश भाई थोड़ा सहमे, पर उन्होंने कहा यही कि ठीक है आप जो भी माँगेंगे मैं दूँगा। तो ठीक है पहले तू यहीं शान्तिकुञ्ज में रहकर एक महीने चन्द्रायण करते हुए गायत्री का अनुष्ठान कर। इसके बाद महीने भर बाद मिलना। गुरुदेव का यह आदेश यूँ तो उनकी प्रकृति के विरुद्ध था, फिर भी उन्होंने उनकी बात स्वीकार की। उन दिनों शान्तिकुञ्ज में चान्द्रायण सत्र चल रहा था। वह भी उसमें भागीदार हो गये। चान्द्रायण तप करते हुए एक महीना बीत गया। इस एक महीने में उनके शरीर व मन का आश्चर्यजनक ढंग से कायाकल्प हो गया।

          इसके बाद जब वह गुरुदेव से मिलने गये तो उन्होंने कहा- तू अब ठीक है, आगे भी ठीक रहेगा। गुरुजी आप की फीस? सोमेश भाई की इस बात पर वह हँसे और बोले- सो तो मैं लूँगा ही, छोडूँगा नहीं। मेरी फीस यह है कि तू प्रत्येक साल में चार महीने आश्विन, चैत्र, माघ, आषाढ़ चन्द्रायण करते हुए गायत्री साधना करना। साधक बनकर के जीना। जो साधक के योग्य न हो वैसा तू कुछ भी नहीं करना। बस यही मेरी फीस है। वचन के धनी सोमेश भाई ने अपनी फीस पूरी ईमानदारी से चुकायी। इसी के साथ उन्हें समग्र स्वास्थ्य का अनुदान भी मिला। साथ ही उन्हें लगने लगा- असली सुख- भोग विलास में नहीं, प्रेममयी भक्ति में है।
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