बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका

अध्याय- २ बाल प्रबोधन - भाग - १ प्रेरणाप्रद कहानियाँ

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१. भला आदमी
      एक धनी पुरुष ने एक मन्दिर बनवाया। मन्दिर में भगवान् की पूजा करने के लिए एक पुजारी रखा। मन्दिर के खर्च के लिये बहुत- सी भूमि, खेत और बगीचे मन्दिर के नाम कर दिए। उन्होंने ऐसा प्रबंध किया था कि जो भूखे, दीन -दुःखी या साधु संत आएँ, वे वहाँ दो- चार दिन ठहर सकें और उनको भोजन के लिए भगवान् का प्रसाद मन्दिर से मिल जाया करे। अब उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो मन्दिर की सम्पत्ति का प्रबंध करे और मन्दिर के सब कामों को ठीक- ठीक चलाता रहे।
    बहुत से लोग उस धनी पुरुष के पास आये। वे लोग जानते थे कि यदि मन्दिर की व्यवस्था का काम मिल जाय तो वेतन अच्छा मिलेगा। लेकिन उस धनी पुरुष ने सबको लौटा दिया। वह सबसे कहता, मुझे एक भला आदमी चाहिये, मैं उसको अपने- आप छाँट लूँगा।’
बहुत से लोग मन ही मन उस धनी पुरुष को गालियाँ देते थे। बहुत लोग उसे मूर्ख या पागल कहते। लेकिन वह धनी पुरुष किसी की बात पर ध्यान नहीं देता था। जब मन्दिर के पट खुलते थे और लोग भगवान् के दर्शनों के लिये आने लगते थे, तब वह धनी पुरुष अपने मकान की छत पर बैठकर मन्दिर में आने वाले लोगों को चुपचाप देखा करता था।
एक दिन एक व्यक्ति मन्दिर में दर्शन करने आया। उसके कपड़े मैले फटे हुए थे। वह बहुत पढ़ा- लिखा भी नहीं जान पड़ता था। जब वह भगवान् का दर्शन करके जाने लगा, तब धनी पुरुष ने उसे अपने पास बुलाया और कहा- ‘क्या आप इस मन्दिर की व्यवस्था सँभालने का काम स्वीकार करेंगे?’
   वह व्यक्ति बड़े आश्चर्य में पड़ गया। उसने कहा- ‘मैं तो बहुत पढ़ा- लिखा नहीं हूँ। मैं इतने बड़े मन्दिर का प्रबन्ध कैसे कर सकूँगा?’
धनी पुरुष ने कहा- ‘मुझे बहुत विद्वान् नहीं चाहिए। मैं तो एक भले आदमी को मन्दिर का प्रबंधक बनाना चाहता हूँ।’
     मैं जानता हूँ कि आप भले आदमी हैं। मन्दिर के रास्ते में एक ईंट का टुकड़ा गड़ा रह गया था और उसका एक कोना ऊपर निकला था। मैं इधर बहुत दिनों से देखता था कि ईंट के टुकड़े की नोक से लोगों को ठोकर लगती थी। लोग गिरते थे, लुढ़कते थे और उठकर चल देते थे। आपको उस टुकड़े से ठोकर नहीं लगी; किन्तु आपने उसे देखकर ही उखाड़ देने का यत्नं किया। मैं देख रहा था कि आप मेरे मजदूर से फावड़ा माँगकर ले गये और उस टुकड़े को खोदकर आपने वहाँ की भूमि भी बराबर कर दी।
     उस व्यक्ति ने कहा- ‘यह तो कोई बड़ी बात नहीं है। रास्ते में पड़े काँटे, कंकड़ और ठोकर लगने वाले पत्थर, ईटों को हटा देना तो प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है।’धनी पुरुष ने कहा- ‘अपने कर्त्तव्य को जानने और पालन करने वाले लोग ही भले आदमी होते हैं।’ मैं आपको ही मंदिर का प्रबंधक बनाना चाहता हूँ।’ वह व्यक्ति मन्दिर का प्रबन्धक बन गया और उसने मन्दिर का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध किया।

२. शिवाजी को बुढ़िया की सीख
  बात उन दिनों की है, जिन दिनों छत्रपति शिवाजी मुगलों के विरुद्ध छापा मार युद्ध लड़ रहे थे। एक दिन रात को वे थके- माँदे एक वनवासी बुढ़िया की झोंपड़ी में पहुँचे और कुछ खाने के लिए माँगा। बुढ़िया के घर में केवल चावल था, सो उसने प्रेम पूर्वक भात पकाया और उसे ही परोस दिया। शिवाजी बहुत भूखे थे, सो झट से भात खाने की आतुरता में उँगलियाँ जला बैठे। हाथ की जलन शान्त करने के लिए फूँकने लगे। यह देख बुढ़िया ने उनके चेहरे की ओर गौर से देखा और बोली- ‘सिपाही तेरी सूरत शिवाजी जैसी लगती है और साथ ही यह भी लगता है कि तू उसी की तरह मूर्ख है।’
शिवाजी स्तब्ध रह गये। उनने बुढ़िया से पूछा- ‘भला शिवाजी की मूर्खता तो बताओ और साथ ही मेरी भी।’
      बुढ़िया ने उत्तर दिया- ‘तूने किनारे- किनारे से थोड़ा- थोड़ा ठण्डा भात खाने की अपेक्षा बीच के सारे भात में हाथ डाला और उँगलियाँ जला लीं। यही मूर्खता शिवाजी करता है। वह दूर किनारों पर बसे छोटे- छोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की अपेक्षा बड़े किलों पर धावा बोलता है और हार जाता है।’
शिवाजी को अपनी रणनीति की विफलता का कारण विदित हो गया। उन्होंने बुढ़िया की सीख मानी और पहले छोटे लक्ष्य बनाए और उन्हें पूरा करने की रीति- नीति अपनाई। इस प्रकार उनकी शक्ति बढ़ी और अन्ततः वे बड़ी विजय पाने में समर्थ हुए।
शुभारंभ हमेशा छोटे- छोटे संकल्पों से होता है, तभी बड़े संकल्पों को पूरा करने का आत्मविश्वास जागृत होता है।

३. स्वर्ग के दर्शन
लक्ष्मी नारायण बहुत भोला लड़का था। वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे नागलोक, पाताल, गन्धर्व लोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि की कहानियाँ सुनाया करती थी। एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन सुनाया। स्वर्ग का वर्णन इतना सुन्दर था कि उसे सुनकर लक्ष्मी नारायण स्वर्ग देखने के लिये हठ करने लगा।
दादी ने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता, किन्तु लक्ष्मीनारायण रोने लगा। रोते- रोते ही वह सो गया। उसे स्वप्न में दिखायी पड़ा कि एक चम- चम चमकते देवता उसके पास खड़े होकर कह रहे हैं- ‘‘बच्चे! स्वर्ग देखने के लिये मूल्य देना पड़ता है। तुम सरकस देखने जाते हो तो टिकट देते हो न? स्वर्ग देखने के लिये भी तुम्हें उसी प्रकार रुपये देने पड़ेंगे।’’
स्वप्न में लक्ष्मीनारायण सोचने लगा कि मैं दादी से रुपये माँगूँगा। लेकिन देवता ने कहा- स्वर्ग में तुम्हारे रुपये नहीं चलते। यहाँ तो भलाई और पुण्यकर्मों का रुपया चलता है। अच्छा, काम करोगे तो एक रुपया इसमें आ जायगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमें से उड़ जायगा। जब यह डिबिया भर जायगी, तब तुम स्वर्ग देख सकोगे।
जब लक्ष्मीनारायण की नींद टूटी तो उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी। डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उस दिन उसकी दादी ने उसे एक पैसा दिया। पैसा लेकर वह घर से निकला। एक रोगी भिखारी उससे पैसा माँगने लगा। लक्ष्मीनारायण भिखारी को बिना पैसा दिये भाग जाना चाहता था, इतने में उसने अपने अध्यापक को सामने से आते देखा। उसके अध्यापक उदार लड़कों की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उन्हें देखकर लक्ष्मीनारायण ने भिखारी को पैसा दे दिया। अध्यापक ने उसकी पीठ ठोंकी और प्रशंसा की।
घर लौटकर लक्ष्मीनारायण ने वह डिबिया खोली, किन्तु वह खाली पड़ी थी। इस बात से लक्ष्मी नारायण को बहुत दुःख हुआ। वह रोते- रोते सो गया। सपने में उसे वही देवता फिर दिखायी पड़े और बोले- तुमने अध्यापक से प्रशंसा पाने के लिये पैसा दिया था, सो प्रशंसा मिल गयी। अब रोते क्यों हो? किसी लाभ की आशा से जो अच्छा काम किया जाता है, वह तो व्यापार है, वह पुण्य थोड़े ही है।
दूसरे दिन लक्ष्मीनारायण को उसकी दादी ने दो आने पैसे दिये। पैसे लेकर उसने बाजार जाकर दो संतरे खरीदे। उसका साथी मोतीलाल बीमार था। बाजार से लौटते समय वह अपने मित्र को देखने उसके घर चला गया। मोतीलाल को देखने उसके घर वैद्य आये थे। वैद्य जी ने दवा देकर मोती लाल की माता से कहा- इसे आज संतरे का रस देना। मोतीलाल की माता बहुत गरीब थी। वह रोने लगी और बोली- ‘मैं मजदूरी करके पेट भरती हूँ। इस समय बेटे की बीमारी में कई दिन से काम करने नहीं जा सकी। मेरे पास संतरे खरीदने के लिये एक भी पैसा नहीं है।’
लक्ष्मीनारायण ने अपने दोनों संतरे मोतीलाल की माँ को दिये। वह लक्ष्मीनारायण को आशीर्वाद देने लगी। घर आकर जब लक्ष्मीनारायण ने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे।
एक दिन लक्ष्मीनारायण खेल में लगा था। उसकी छोटी बहिन वहाँ आयी और उसके खिलौनों को उठाने लगी। लक्ष्मीनारायण ने उसे रोका। जब वह न मानी तो उसने उसे पीट दिया। बेचारी लड़की रोने लगी। इस बार जब उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहले के इकट्ठे कई रुपये उड़ गये हैं। अब उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने आगे कोई बुरा काम न करने का पक्का निश्चय कर लिया।
मनुष्य जैसे काम करता है, वैसा उसका स्वभाव हो जाता है। जो बुरे काम करता है, उसका स्वभाव बुरा हो जाता है। उसे फिर बुरा काम करने में ही आनन्द आता है। जो अच्छा काम करता है, उसका स्वभाव अच्छा हो जाता है। उसे बुरा काम करने की बात भी बुरी लगती है। लक्ष्मीनारायण पहले रुपये के लोभ से अच्छा काम करता था। धीरे- धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करने का हो गया। अच्छा काम करते- करते उसकी डिबिया रुपयों से भर गयी। स्वर्ग देखने की आशा से प्रसन्न होता, उस डिबिया को लेकर वह अपने बगीचे में पहुँचा।
लक्ष्मीनारायण ने देखा कि बगीचे में पेड़ के नीचे बैठा हुआ एक बूढ़ा साधु रो रहा है। वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और बोला- ‘बाबा! आप क्यों रो रहे है?’
साधु बोला- बेटा जैसी डिबिया तुम्हारे हाथ में है, वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी। बहुत दिन परिश्रम करके मैंने उसे रुपयों से भरा था। बड़ी आशा थी कि उसके रुपयों से स्वर्ग देखूँगा, किन्तु आज गङ्गा जी में स्नान करते समय वह डिबिया पानी में गिर गयी।
लक्ष्मी नारायण ने कहा- ‘बाबा! आप रोओ मत। मेरी डिबिया भी भरी हुई है। आप इसे ले लो।’
साधु बोला- ‘तुमने इसे बड़े परिश्रम से भरा है, इसे देने से तुम्हें दुःख होगा।’
लक्ष्मी नारायण ने कहा- ‘मुझे दुःख नहीं होगा बाबा! मैं तो लड़का हूँ। मुझे तो अभी बहुत दिन जीना है। मैं तो ऐसी कई डिबिया रुपये इकट्ठे कर सकता हुँ। आप बूढ़े हो गये हैं। आप मेरी डिबिया ले लीजिये।’
साधु ने डिबिया लेकर लक्ष्मीनारायण के नेत्रों पर हाथ फेर दिया। लक्ष्मीनारायण के नेत्र बंद हो गये। उसे स्वर्ग दिखायी पड़ने लगा। ऐसा सुन्दर स्वर्ग कि दादी ने जो स्वर्ग का वर्णन किया था, वह वर्णन तो स्वर्ग के एक कोने का भी ठीक वर्णन नहीं था।
जब लक्ष्मीनारायण ने नेत्र खोले तो साधु के बदले स्वप्न में दिखायी पड़ने वाला वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। देवता ने कहा- बेटा! जो लोग अच्छे काम करते हैं, उनका घर स्वर्ग बन जाता है। तुम इसी प्रकार जीवन में भलाई करते रहोगे तो अन्त में स्वर्ग में पहुँच जाओगे।’ देवता इतना कहकर वहीं अदृश्य हो गये।

४. धर्म का मर्म
एक साधु शिष्यों के साथ कुम्भ के मेले में भ्रमण कर रहे थे। एक स्थान पर उनने एक बाबा को माला फेरते देखा। लेकिन वह बाबा माला फेरते- फेरते बार- बार आँखें खोलकर देख लेते कि लोगों ने कितना दान दिया है। साधु हँसे व आगे बढ़ गए।
आगे एक पंडित जी भागवत कह रहे थे, पर उनका चेहरा यंत्रवत था। शब्द भी भावों से कोई संगति नहीं खा रहे थे, चेलों की जमात बैठी थी। उन्हें देखकर भी साधु खिल- खिलाकर हँस पड़े।
थोड़ा आगे बढ़ने पर इस मण्डली को एक व्यक्ति रोगी की परिचर्या करता मिला। वह उसके घावों को धोकर मरहम पट्टी कर रहा था। साथ ही अपनी मधुर वाणी से उसे बार- बार सांत्वना दे रहा था। साधु कुछ देर उसे देखते रहे, उनकी आँखें छलछला आईं।
आश्रम में लौटते ही शिष्यों ने उनसे पहले दो स्थानों पर हँसने व फिर रोने का कारण पूछा। वे बोले- ‘बेटा पहले दो स्थानों पर तो मात्र आडम्बर था पर भगवान की प्राप्ति के लिए एक ही व्यक्ति आकुल दिखा- वह, जो रोगी की परिचर्या कर रहा था। उसकी सेवा भावना देखकर मेरा हृदय द्रवित हो उठा और सोचने लगा न जाने कब जनमानस धर्म के सच्चे स्वरूप को समझेगा।’

५. ब्रह्मा जी के थैले
इस संसार को बनाने वाले ब्रह्माजी ने एक बार मनुष्य को अपने पास बुलाकर पूछा- ‘तुम क्या चाहते हो?’
मनुष्य ने कहा- ‘मैं उन्नति करना चाहता हूँ, सुख- शान्ति चाहता हूँ और चाहता हूँ कि सब लोग मेरी प्रशंसा करें।’
ब्रह्माजी ने मनुष्य के सामने दो थैले धर दिये। वे बोले- ‘इन थैलों को ले लो। इनमें से एक थैले में तुम्हारे पड़ोसी की बुराइयाँ भरी हैं। उसे पीठ पर लाद लो। उसे सदा बंद रखना। न तुम देखना, न दूसरों को दिखाना। दूसरे थैले में तुम्हारे दोष भरे हैं। उसे सामने लटका लो और बार- बार खोलकर देखा करो।’
मनुष्य ने दोनों थैले उठा लिये। लेकिन उससे एक भूल हो गयी। उसने अपनी बुराइयों का थैला पीठ पर लाद लिया और उसका मुँह कसकर बंद कर दिया। अपने पड़ोसी की बुराइयों से भरा थैला उसने सामने लटका लिया। उसका मुँह खोल कर वह उसे देखता रहता है और दूसरों को भी दिखाता रहता है। इससे उसने जो वरदान माँगे थे, वे भी उलटे हो गये। वह अवनति करने लगा। उसे दुःख और अशान्ति मिलने लगी।
तुम मनुष्य की वह भूल सुधार लो तो तुम्हारी उन्नति होगी। तुम्हें सुख- शान्ति मिलेगी। जगत् में तुम्हारी प्रशंसा होगी। तुम्हें करना यह है कि अपने पड़ोसी और परिचितों के दोष देखना बंद कर दो और अपने दोषों पर सदा दृष्टि रखो।

६. उपकार
अफ्रीका बहुत बड़ा देश है। उस देश में बहुत घने वन हैं और उन वनों में सिंह, भालू, गैंडा आदि भयानक पशु बहुत होते हैं। बहुत से लोग सिंह का चमड़ा पाने के लिये उसे मारते हैं।
गरमी के दिनों में हाथी जिस रास्ते झरने पर पानी पीने जाते हैं, उस रास्ते में लोग बड़ा और गहरा गड्ढा खोद देते हैं, उस गड्ढे के चारों ओर भाले के समान नोंकवाली लकड़ियों को गाड़ देते हैं। फिर गड्ढे को पतली लकड़ियों और पत्तों से ढक देते हैं। जब हाथी पानी पीने निकलते हैं तो उनके दल में सबसे आगे- आगे चल रहा हाथी गड्ढे के ऊपर बिछी टहनियों के कारण गड्ढे को देख नहीं पाता और जैसे ही टहनियों पर पैर रखता है, टहनियाँ टूट जाती हैं और हाथी गड्ढे में गिर जाता है।
हाथी पकड़ने वाले उस हाथी को लाकर पहले कई दिनों भूखा रखते हैं। गड्ढे में भी हाथी कई दिन भूखा रखा जाता है, जिससे कमजोर हो जाने के कारण निकलते समय बहुत उधम न मचाए। भूख के मारे हाथी जब छटपटाने लगता है, तब एक आदमी उसे चारा देने जाता है। चारा देने के बहाने वह आदमी हाथी से धीरे- धीरे जान- पहचान कर लेता है और फिर हाथी को वही सिखाता है। शिक्षा देने के बाद हाथी को लोग बेच देते हैं।
कई बार हाथी पकड़ने के लिये जो गड्ढा बनाया जाता है, उसमें रात को धोखे से हिरन, नीलगाय, चीते या जंगल के दूसरे पशु भी गिर जाते हैं। गड्ढा बनाने वाले उन्हें भी निकाल लाते हैं। हाथी पकड़ने वालों ने अफ्रीका के जंगल में एक बार हाथी फँसाने के लिये गड्ढा बनाया और ढक दिया। रात में एक सिंह उस गड्ढे में गिर पड़ा। सिंह किसी छोटे पशु को पकड़ने दौड़ा होगा और भूल से गड्ढे में जा पड़ा होगा।
एक शिकारी उधर से निकला। उसने सिंह को गड्ढे में गिरा देखा। वीर पुरुष किसी को दुःख में देखकर उसे मारते नहीं, उसकी सहायता करते हैं। सिंह बार- बार उछलता था, परन्तु गड्ढे के चारों ओर गड़ी नोक वाली लकड़ियों से उसे चोट लगती थी और वह फिर गड्ढे में गिर जाता था। शिकारी ने एक रस्सी में दो लकड़ियों को बाँधा और पेड़ पर चढ़ गया। पेड़ पर रस्सी खींचकर उसने लकड़ियाँ उखाड़ दी। शिकारी ने नीचे से लकड़ियाँ इसलिये नहीं उखाड़ी कि कहीं गड्ढे से निकलने पर सिंह उसे मार न डाले। दो लकड़ियाँ उखाड़ने से सिंह को रास्ता मिल गया। वह उछलकर गड्ढे से बाहर निकल आया और जंगल में चला गया।
वही शिकारी एक दिन एक झरने के किनारे पानी पीकर बंदूक रखकर बैठा था। वह बहुत थका था, इसलिये लेट गया और उसे नींद आ गयी। इतने में वहाँ एक चीता आया और शिकारी को मारने के लिये उस पर चढ़ बैठा, बेचारा शिकारी डर के मारे चिल्ला भी न सका।
इतने में एक भारी सिंह जोर से गर्जा। उसकी गर्जना सुनकर चीता पूँछ दबाकर भागने लगा; पर सिंह चीते के ऊपर कूद पड़ा और उसने चीते को मार डाला।
शिकारी समझता था कि चीते को मारकर सिंह अब उसे मारेगा; लेकिन सिंह आया और शिकारी के सामने बैठकर पूँछ हिलाने लगा। शिकारी ने पहचान लिया कि यह वही सिंह है, जिसे गड्ढे में से निकलने में शिकारी ने सहायता की थी।
सिंह जैसा भयंकर पशु भी अपने उपकार करने वाले को नहीं भूला था। तुम मनुष्य हो, तुम्हें तो कोई थोड़ा भी उपकार करे तो उसे नहीं भूलना चाहिये और उस परोपकारी की सेवा- सहायता करने के लिये सदा तैयार रहना चाहिये।

७. सबसे बड़ा गरीब
एक महात्मा भ्रमण करते हुए नगर में से जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक रुपया मिला। महात्मा तो विरक्त और संतोषी व्यक्ति थे। वे भला उसका क्या करते? अतः उन्होंने किसी दरिद्र को यह रुपया देने का विचार किया। कई दिन तक वे तलाश करते रहे, लेकिन उन्हें कोई दरिद्र नहीं मिला।
एक दिन उन्होंने देखा कि एक राजा अपनी सेना सहित दूसरे राज्य पर चढ़ाई करने जा रहा है। साधु ने वह रुपया राजा के ऊपर फेंक दिया। इस पर राजा को नाराजगी भी हुई और आश्चर्य भी। क्योंकि, रुपया एक साधु ने फेंका था इसलिए उसने साधु से ऐसा करने का कारण पूछा।
साधु ने धैर्य के साथ कहा- ‘राजन्! मैंने एक रुपया पाया, उसे किसी दरिद्र को देने का निश्चय किया। लेकिन मुझे तुम्हारे बराबर कोई दरिद्र व्यक्ति नहीं मिला, क्योंकि जो इतने बड़े राज्य का अधिपति होकर भी दूसरे राज्य पर चढ़ाई करने जा रहा हो और इसके लिए युद्ध में अपार संहार करने को उद्यत हो रहा हो, उससे ज्यादा दरिद्र कौन होगा?’
राजा का क्रोध शान्त हुआ और अपनी भूल पर पश्चात्ताप करते हुए उसने वापिस अपने देश को प्रस्थान किया।
प्रेरणाः- हमें सदैव संतोषी वृत्ति रखनी चाहिए। संतोषी व्यक्ति को अपने पास जो साधन होते हैं, वे ही पर्याप्त लगते हैं। उसे और अधिक की भूख नहीं सताती।

८. मनुष्य या पशु
यह एक सच्ची घटना है। छुट्टी हो गयी थी। सब लड़के उछलते- कूदते, हँसते- गाते पाठशाला से निकले। पाठशाला के फाटक के सामने एक आदमी सड़क पर लेटा था। किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। सब अपनी धुन में चले जा रहे थे।
एक छोटे लड़के ने उस आदमी को देखा, वह उसके पास गया। वह आदमी बीमार था, उसने लड़के से पानी माँगा। लड़का पास के घर से पानी ले आया। बीमार ने पानी पीया और फिर लेट गया। लड़का पानी का बर्तन लौटा कर खेलने चला गया।
शाम को वह लड़का घर आया। उसने देखा कि एक सज्जन उसके पिता को बता रहे हैं कि ‘आज, पाठशाला के सामने दोपहर के बाद एक आदमी सड़क पर मर गया।’ लड़का पिता के पास गया और उसने कहा- ‘बाबूजी! मैंने उसे देखा था। वह सड़क पर पड़ा था। माँगने पर मैंने उसे पानी भी पिलाया था।’
इस पर पिता ने पूछा, ‘‘ फिर तुमने क्या किया।’’ लड़के ने बताया- ‘‘फिर मैं खेलने चला गया। ’’
पिता थोड़ा गम्भीर हुए और उन्होंने लड़के से कहा- ‘तुमने आज बहुत बड़ी गलती कर दी। तुमने एक बीमार आदमी को देखकर भी छोड़ दिया। उसे अस्पताल क्यों नहीं पहुँचाया?
डरते- डरते लड़के ने कहा- ‘मैं अकेला था। भला, उसे अस्पताल कैसे ले जाता?’
इस पर पिता ने समझाया -‘‘तुम नहीं ले जा सकते थे तो अपने अध्यापक को बताते या घर आकर मुझे बताते। मैं कोई प्रबन्ध करता। किसी को असहाय पड़ा देखकर भी उसकी सहायता न करना पशुता है।’’
बच्चो! आप सोचो कि आप क्या करते हो? किसी रोगी, घायल या दुःखिया को देख कर यथाशक्ति सहायता करते हो या चले जाते हो? आपको पता लगेगा कि आप क्या हो- ‘मनुष्य या पशु?’

९. संतोष का फल
एक बार एक देश में अकाल पड़ा। लोग भूखों मरने लगे। नगर में एक धनी दयालु पुरुष थे। उन्होंने सब छोटे बच्चों को प्रतिदिन एक रोटी देने की घोषणा कर दी। दूसरे दिन सबेरे बगीचे में सब बच्चे इकट्ठे हुए। उन्हें रोटियाँ बँटने लगीं।
रोटियाँ छोटी- बड़ी थीं। सब बच्चे एक- दूसरे को धक्का देकर बड़ी रोटी पाने का प्रयत्न कर रहे थे। केवल एक छोटी लड़की एक ओर चुपचाप खड़ी थी। वह सबसे अन्त में आगे बढ़ी। टोकरे में सबसे छोटी अन्तिम रोटी बची थी। उसने उसे प्रसन्नता से ले लिया और वह घर चली गयी।
दूसरे दिन फिर रोटियाँ बाँटी गयीं। उस लड़की को आज भी सबसे छोटी रोटी मिली। लड़की ने जब घर लौट कर रोटी तोड़ी तो रोटी में से सोने की एक मुहर निकली। उसकी माता ने कहा कि- ‘मुहर उस धनी को दे आओ।’ लड़की दौड़ी -दौड़ी धनी के घर गयी।’’
धनी ने उसे देखकर पूछा- ‘तुम क्यों आयी हो?’
लड़की ने कहा- ‘मेरी रोटी में यह मुहर निकली है। आटे में गिर गयी होगी। देने आयी हूँ। आप अपनी मुहर ले लें।’
धनी बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसे अपनी धर्मपुत्री बना लिया और उसकी माता के लिये मासिक वेतन निश्चित कर दिया। बड़ी होने पर वही लड़की उस धनी की उत्तराधिकारिणी बनी।

१०. गाली पास ही रह गयी
एक लड़का बड़ा दुष्ट था। वह चाहे जिसे गाली देकर भाग खड़ा होता। एक दिन एक साधु बाबा एक बरगद के नीचे बैठे थे। लड़का आया और गाली देकर भागा। उसने सोचा कि गाली देने से साधु चिढ़ेगा और मारने दौड़ेगा, तब बड़ा मजा आयेगा लेकिन साधु चुपचाप बैठे रहे। उन्होंने उसकी ओर देखा तक नहीं।
लड़का और निकट आ गया और खूब जोर- जोर से गाली बकने लगा। साधु अपने भजन में लगे थे। उन्होंने उसकी ओर कोई ध्यान न दिया। तभी एक दूसरे लड़के ने आकर कहा- ‘बाबा जी! यह आपको गालियाँ देता है?’
बाबा जी ने कहा- ‘हाँ भैया, देता तो है, पर मैं लेता कहाँ हुँ। जब मैं लेता नहीं तो सब वापस लौटकर इसी के पास रह जाती हैं।’
लड़का बोला- लेकिन यह बहुत खराब गालियाँ देता है।
साधु- यह तो और खराब बात है। पर मुझे तो वे कहीं नहीं चिपकीं, सब की सब इसी के मुख में भरी हैं। इससे इसका ही मुख गंदा हो रहा है।
गाली देने वाला लड़का सब सुन रहा था। उसने सोचा, साधु ठीक ही तो कह रहा है। मैं दूसरों को गाली देता हूँ तो वे ले लेते हैं। इसी से वे तिलमिलाते हैं, मारने दौड़ते हैं और दुःखी होते हैं। यह गाली नहीं लेता तो सब मेरे पास ही तो रह गयीं। लड़का मन ही मन बहुत शर्मिंदा हुआ और सोचने लगा छिः मेरे पास कितनी गंदी गालियाँ हैं। वह साधु के पास गया, क्षमा माँगी और बोला- बाबाजी! मेरी यह गंदी आदत कैसे छूटे और मुख कैसे शुद्ध हो?
साधु ने समझाया -‘पश्चात्ताप करने तथा फिर ऐसा न करने की प्रतिज्ञा करने से बुरी आदत दूर हो जायेगी। मधुर वचन बोलने और भगवान् का नाम लेने से मुख शुद्ध हो जायेगा।’

११. बड़ों की बात मानो
एक बहुत घना जंगल था, उसमें पहाड़ थे और शीतल निर्मल जल के झरने बहते थे। जंगल में बहुत- से पशु रहते थे। पर्वत की गुफा में एक शेर- शेरनी और इन के दो छोटे बच्चे रहते थे। शेर और शेरनी अपने बच्चों को बहुत प्यार करते थे।
जब शेर के बच्चे अपने माँ बाप के साथ जंगल में निकलते तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था। लेकिन शेर- शेरनी अपने बच्चों को बहुत कम अपने साथ ले जाते थे। वे बच्चों को गुफा में छोड़कर वन में अपने भोजन की खोज में चले जाया करते थे।
शेर और शेरनी अपने बच्चों को बार- बार समझाते थे कि वे अकेले गुफा से बाहर भूलकर भी न निकलें। लेकिन बड़े बच्चे को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। एक दिन शेर- शेरनी जंगल में गये थे, बड़े बच्चे ने छोटे से कहा- चलो झरने से पानी पी आएँ और वन में थोड़ा घूमें। हिरनों को डरा देना मुझे बहुत अच्छा लगता है।
छोटे बच्चे ने कहा- ‘पिता जी ने कहा है कि अकेले गुफा से मत निकलना। झरने के पास जाने को बहुत मना किया है। तुम ठहरो पिताजी या माताजी को आने दो। हम उनके साथ जाकर पानी पी लेंगे।’
बड़े बच्चे ने कहा- ‘मुझे प्यास लगी है। सब पशु तो हम लोगों से डरते ही हैं। फिर डरने की क्या बात है?’
छोटा बच्चा अकेला जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा- ‘मैं तो माँ- बाप की बात मानूँगा। मुझे अकेला जाने में डर लगता है।’ बड़े भाई ने कहा। ‘तुम डरपोक हो, मत जाओ, मैं तो जाता हूँ।’ बड़ा बच्चा गुफा से निकला और झरने के पास गया। उसने पेट भर पानी पिया और तब हिरनों को ढकते हुए इधर- उधर घूमने लगा।
जंगल में उस दिन कुछ शिकारी आये हुए थे। शिकारियों ने दूर से शेर के बच्चे को अकेले घूमते देखा तो सोचा कि इसे पकड़कर किसी चिड़िया घर में बेच देने से अच्छे रुपये मिलेंगे। शिकारियों ने शेर के बच्चे को चारों ओर से घेर लिया और एक साथ उस पर टूट पड़े। उन लोगों ने कम्बल डालकर उस बच्चे को पकड़ लिया।
बेचारा शेर का बच्चा क्या करता। वह अभी कुत्ते जितना बड़ा भी नहीं हुआ था। उसे कम्बल में खूब लपेटकर उन लोगों ने रस्सियों से बाँध दिया। वह न तो छटपटा सकता था, न गुर्रा सकता था।
शिकारियों ने इस बच्चे को एक चिड़िया घर को बेच दिया। वहाँ वह एक लोहे के कटघरे में बंद कर दिया गया। वह बहुत दुःखी था। उसे अपने माँ- बाप की बहुत याद आती थी। बार- बार वह गुर्राता और लोहे की छड़ों को नोचता था, लेकिन उसके नोचने से छड़ तो टूट नहीं सकती थी।
जब भी वह शेर का बच्चा किसी छोटे बालक को देखता तो बहुत गुर्राता और उछलता था। यदि कोई उसकी भाषा समझा सकता तो वह उससे अवश्य कहता- ‘तुम अपने माँ- बाप तथा बड़ों की बात अवश्य मानना। बड़ों की बात न मानने से पीछे पश्चात्ताप करना पड़ता है। मैं बड़ों की बात न मानने से ही यहाँ बंदी हुआ हूँ।’
सच है- जे सठ निज अभिमान बस, सुनहिं न गुरुजन बैन।
जे जग महँ नित लहहिं दुःख, कबहुँ न पावहिं चैन॥

१२. स्वच्छता
एक किसान ने एक बिल्ली पाल रखी थी। सफेद कोमल बालों वाली बिल्ली। रात को वह किसान की खाट पर ही उसके पैरों के पास सो जाती थी। किसान जब खेत पर से घर आता तो बिल्ली उसके पास दौड़ कर जाती और उसके पैरों से अपना शरीर रगड़ती, म्याऊँ -म्याऊँ करके प्यार दिखलाती। किसान अपनी बिल्ली को थोड़ा सा दूध और रोटी देता था।
किसान का एक लड़का था। वह बहुत आलसी था। रोज नहाता भी नहीं था। एक दिन किसान के लड़के ने अपने पिता से कहा- ‘पिता जी! आज रात को मैं आपके साथ सोऊँगा।’
किसान बोला- ‘नहीं! तुम्हें अलग खाट पर ही सोना चाहिये।’
लड़का कहने लगा- ‘बिल्ली को तो आप अपनी ही खाट पर सोने देते हैं, परंतु मुझे क्यों नहीं सोने देते?’
किसान ने कहा- ‘तुम्हें खुजली हुई है। तुम्हारे साथ सोने से मुझे भी खुजली हो जायेगी। पहले तुम अपनी खुजली अच्छी होने दो।’
लड़का- खुजली से बहुत तंग था। उसके पूरे शरीर में छोटे- छोटे फोड़े- जैसे हो रहे थे। खुजली के मारे वह बेचैन रहता था। उसने अपने पिता से कहा- यह खुजली मुझे ही क्यों हुई है? इस बिल्ली को क्यों नहीं हुई?
किसान बोला- ‘कल सबेरे तुम्हें यह बात बताऊँगा।’ दूसरे दिन सबेरे किसान ने बिल्ली को कुछ अधिक दूध और रोटी दी, लेकिन जब बिल्ली का पेट भर गया तो वह दूध- रोटी छोड़कर दूर चली गयी और धूप में बैठकर बार- बार अपना एक पैर चाटकर अपने मुँह पर फिराने लगी।
किसान ने अपने लड़के को वहाँ बुलाया और बोला- ‘देखो, बिल्ली कैसे अपना मुँह साफ कर रही है। यह इसी प्रकार अपना सब शरीर स्वच्छ रखती है। इसीसे इसे खुजली नहीं होती। तुम अपने कपड़े और शरीर को मैला रखते हो,इस कारण तुम्हें खुजली हुई है। मैल में एक प्रकार का विष होता है। वह पसीने के साथ जब शरीर की चमड़ी में लगता है और भीतर जाता है, तब खुजली, फोड़े और दूसरे भी कई रोग हो जाते हैं।
लड़के ने कहा- ‘मैं आज सब कपड़े गरम पानी में उबालकर धोऊँगा। बिस्तर और चद्दर भी धोऊँगा। खूब नहाऊँगा। पिता जी! इससे मेरी खुजली दूर हो जायेगी।’
किसान ने बताया- ‘शरीर के साथ पेट भी स्वच्छ रखना चाहिये। देखो, बिल्ली का पेट भर गया तो उसने दूध भी छोड़ दिया। पेट भर जाने पर फिर नहीं खाना चाहिये। ऐसी वस्तुएँ भी नहीं खानी चाहिये, जिनसे पेट में गड़बड़ी हो। मिर्च, खटाई, बाजार की चाट, अधिक मिठाइयाँ खाने और चाय पीने से पेट में गड़बड़ी हो जाती है। इससे पेट साफ नहीं रहता। पेट साफ न रहे तो बहुत से रोग होते हैं। बुखार भी पेट की गड़बड़ी से आता है। जो लोग जीभ के जरा से स्वाद के लिये बिना भूख ज्यादा खा लेते हैं अथवा मिठाई, घी में तली हुई चीजें, दही- बड़े आदि बार- बार खाते रहते हैं, उनको और भी तरह- तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। पेट साफ करने के लिये चोकर मिले आटे की रोटी, हरी सब्जी तथा मौसमी- सस्ते फल अधिक खाने चाहिये।’
किसान के लड़के ने उस दिन से अपने कपड़े स्वच्छ रखने आरम्भ कर दिये। वह रोज शरीर रगड़कर स्नान करता। वह इस बात का ध्यान रखता कि ज्यादा न खाए तथा कोई ऐसी वस्तु न खाए, जिससे पेट में गड़बड़ी हो। उसकी खुजली अच्छी हो गयी। वह चुस्त, शरीर का तगड़ा और बलवान् हो गया। उसके पिता और दूसरे लोग भी अब उसे बड़े प्रेम से अपने पास बैठाने लगे।

१३. बैल और गधा
दो पण्डित एक गृहस्थ के घर अतिथि हुए। एक विद्वान स्नान गृह में गये तो। गृहस्थ ने दूसरे से उनके बारे में पूछा। वह कहने लगे, वह तो बिल्कुल बैल है। पहला बाहर आ गया और दूसरा स्नान करने गया तो गृहस्थ ने उससे भी वही बात पूछी ।। दूसरा विद्वान बोला- वह तो पूरा गधा है। दोनों भोजन के लिए बैठे तो गृहस्थ एक के आगे भूसा और दूसरे के आगे घास पटक कर बोला लीजिये महाराज बैल और गधे का भोजन हाजिर है। यह सुनकर दोनों बड़े लज्जित हुए।
एक दूसरे से ईर्ष्या और निन्दा अमानवीयता का ही घोतक है।

१४. सद्व्यहार का अचूक अस्त्र
एक राजा ने एक दिन स्वप्न देखा कि कोई परोपकारी साधु उससे कह रहा है कि बेटा! कल रात को तुझे एक विषैला सर्प काटेगा और उसके काटने से तेरी मृत्यु हो जायेगी। वह सर्प अमुक पेड़ की जड़ में रहता है, पूर्व जन्म की शत्रुता का बदला लेने के लिए वह तुम्हें काटेगा।
प्रातःकाल राजा सोकर उठा और स्वप्न की बात पर विचार करने लगा। धर्मात्माओं को अक्सर सच्चे ही स्वप्न हुआ करते हैं। राजा धर्मात्मा था, इसलिए अपने स्वप्न की सत्यता पर उसे विश्वास था। वह विचार करने लगा कि अब आत्म- रक्षा के लिए क्या उपाय करना चाहिए?
सोचते- सोचते राजा इस निर्णय पर पहुँचा कि मधुर व्यवहार से बढ़कर शत्रु को जीतने वाला और कोई हथियार इस पृथ्वी पर नहीं है। उसने सर्प के साथ मधुर व्यवहार करके उसका मन बदल देने का निश्चय किया।
संध्या होते ही राजा ने उस पेड़ की जड़ से लेकर अपनी शय्या तक फूलों का बिछौना बिछवा दिया, सुगन्धित जलों का छिड़काव करवाया, मीठे दूध के कटोरे जगह- जगह रखवा दिये और सेवकों से कह दिया कि रात को जब सर्प निकले तो कोई उसे किसी प्रकार कष्ट पहुँचाने या छेड़- छाड़ करने का प्रयत्न न करे।
रात को ठीक बारह बजे सर्प अपनी बाँबी में से फुसकारता हुआ निकला और राजा के महल की तरफ चल दिया। वह जैसे- जैसे आगे बढ़ता गया, अपने लिए की गई स्वागत व्यवस्था को देख- देखकर आनन्दित होता गया। कोमल बिछौने पर लेटता हुआ मनभावनी सुगन्ध का रसास्वादन करता हुआ, स्थान- स्थान पर मीठा दूध पीता हुआ आगे बढ़ता था। क्रोध के स्थान पर सन्तोष और प्रसन्नता के भाव उसमें बढ़ने लगे।
जैसे- जैसे वह आगे चलता गया, वैसे ही वैसे उसका क्रोध कम होता गया। राजमहल में जब वह प्रवेश करने लगा तो देखा कि प्रहरी और द्वारपाल सशस्त्र खड़े हैं, परन्तु उसे जरा भी हानि पहुँचाने की चेष्टा नहीं करते। यह असाधारण सौजन्य देखकर सर्प के मन में स्नेह उमड़ आया। सद्व्यवहार, नम्रता, मधुरता के जादू ने उसे मन्त्र- मुग्ध कर लिया था। कहाँ वह राजा को काटने चला था, परन्तु अब उसके लिए अपना कार्य असंभव हो गया। हानि पहुँचाने के लिए आने वाले शत्रु के साथ जिसका ऐसा मधुर व्यवहार है, उस धर्मात्मा राजा को काटूँ तो किस प्रकार काटूँ? यह प्रश्न उससे हल न हो सका। राजा के पलंग तक जाने तक सर्प का निश्चय पूर्ण रूप से बदल गया।
सर्प के आगमन की राजा प्रतीक्षा कर रहा था। नियत समय से कुछ विलम्ब में वह पहुँचा। सर्प ने राजा से कहा- ‘हे राजन्! मैं तुम्हें काटकर अपने पूर्व जन्म का बदला चुकाने आया था, परन्तु तुम्हारे सौजन्य और सद्व्यवहार ने मुझे परास्त कर दिया। अब मैं तुम्हारा शत्रु नहीं मित्र हूँ। मित्रता के उपहार स्वरूप अपनी बहुमूल्य मणि मैं तुम्हें दे रहा हूँ। लो इसे अपने पास रखो।’ इतना कहकर और मणि राजा के सामने रखकर सर्प उलटे पाँव अपने घर वापस चला गया।
भलमनसाहत और सद्व्यवहार ऐसे प्रबल अस्त्र हैं, जिनसे बुरे- से स्वभाव के दुष्ट मनुष्यों को भी परास्त होना पड़ता है।

१५. सज्जनता और शालीनता की विजय यात्रा
एक राजा ने अपने राजकुमार को किसी दूरदर्शी मनीषी के आश्रम में सुयोग्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा। उसे भर्ती कर लिया गया और पढ़ाई चल पड़ी। एक दिन मनीषी ने राजकुमार से पूछा- तुम क्या बनना चाहते हो यह तो बताओ? तब तुम्हारी शिक्षा का क्रम ठीक से बनेगा।
राजकुमार ने उत्तर दिया- वीर योद्धा।
मनीषी ने उसे समझाया, यह दोनों शब्द तो एक जैसे हैं, पर इनमें अन्तर बहुत है। योद्धा बनना है तो शस्त्र कला का अभ्यास करो और घुड़सवारी सीखो, किन्तु यदि वीर बनना हो तो नम्र बनो और सबसे मित्रवत् व्यवहार करने की आदत डालो। सबसे मित्रता करने की बात राजकुमार को जँची नहीं और वह असन्तुष्ट होकर अपने घर वापस चला गया। पिता ने लौटने का कारण पूछा, तो उसने मन की बात बता दी। भला सबके साथ मित्रता बरतना भी कोई नीति है?
राजा चुप हो गया। पर जानता था, उससे जो कहा गया है सो सच है। कुछ दिन बाद राजा अपने लड़के को साथ लेकर घने जंगलों में वन- विहार के लिए गया। चलते- चलते शाम हो गई। राजा को ठोकर लगी और वह गिर पड़ा। उठा तो देखा कि उसकी अँगूठी में जड़ा कीमती हीरा निकलकर पथरीले रेत में गिरकर गुम हो गया है। हीरा बहुत कीमती था, सो राजा को बहुत चिन्ता हुई, पर किया क्या जाता, अन्धेरी रात में कैसे ढूँढ़ते?
राजकुमार को एक उपाय सूझा। उसने अपनी पगड़ी खोली और वहाँ का सारा पथरीला रेत समेटकर पोटली में बाँध लिया और उस भयानक जंगल को पार करने के लिए निकल पड़े।
रास्ते में सन्नाटा तोड़ते हुए राजा ने पूछा- ‘‘हीरा तो एक छोटा- सा टुकड़ा है, उसके लिए इतनी सारी रेत समेटने की क्या जरूरत थी?’’ राजकुमार ने कहा- ‘‘जब हीरा अलग से नहीं मिलता, तो यही उपाय रह जाता है कि उस जगह की सारी रेत समेटी जाय और फिर सुविधानुसार उसमें से काम की चीज ढूँढ़ ली जाय।’’
राजा चुप हो गया किन्तु कुछ दूर चलकर उसने राजकुमार से पुनः पूछा कि फिर मनीषी अध्यापक का यह कहना कैसे गलत हो गया कि ‘सबसे मित्रता का अभ्यास करो।’ मित्रता का दायरा बड़ा होने से ही तो उसमें से हीरे ढूँढ़ सकना संभव होगा।
राजकुमार का समाधान हो गया और वह फिर उस विद्वान् के आश्रम में पढ़ने के लिए चला गया।

१६. दृष्टिकोण व्यक्तित्व का आईना है
एक धर्मात्मा ने जंगल में एक सुंदर मकान बनाया और उद्यान लगाया, ताकि उधर आने वाले उसमें ठहरें और विश्राम करें। समय- समय पर अनेक लोग आते और ठहरते। दरबार हरेक आने वाले से पूछता ‘‘आपको यहाँ कैसा लगा। बताइए मालिक ने इसे किन लोगों के लिए बनाया है।’’
आने वाले अपनी- अपनी दृष्टि से उसका उद्देश्य बताते रहे। चोरों ने कहा- ‘‘एकांत में सुस्ताने, योजना बनाने, हथियार जमा करने और माल का बँटवारा करने के लिए।’’
व्यभिचारियों ने कहा- ‘‘बिना किसी रोक- टोक और खटके के स्वेच्छाचारिता बरतने के लिए।’’
जुआरियों ने कहा,- ‘‘जुआ खेलने और लोगों की आँखों से बचे रहने के लिए।’’
कलाकारों ने कहा- ‘‘एकांत का लाभ लेकर एकाग्रता पूर्वक कला का अभ्यास करने के लिए।’’
संतो ने कहा- ‘‘शांत वातावरण में भजन करने और ब्रह्मलीन होने के लिए।’’
कुछ विद्यार्थी आए, उनने कहा- ‘‘शांत वातावरण में विद्या अध्ययन ठीक प्रकार होता है।’’
हर आने वाला अपने दृष्टिकोण द्वारा अपने कार्यों की जानकारी देता गया।
दरबान ने निष्कर्ष निकाला- ‘‘जिसका जैसा दृष्टिकोण होता है, वैसा ही उसका व्यक्तित्व होता है।’’

१७. सबसे बड़ा पुण्यात्मा
काशी प्राचीन समय से प्रसिद्ध है। संस्कृत विद्या का वह पुराना केन्द्र है। इसे भगवान् विश्वनाथ की नगरी या विश्वनाथपुरी भी कहा जाता है। विश्वनाथजी का वहाँ बहुत प्राचीन मन्दिर है। एक दिन विश्वनाथ मंदिर के पुजारी ने स्वप्न देखा कि भगवान् विश्वनाथ उससे मन्दिर में विद्वानों तथा धर्मात्मा लोगों की सभा बुलाने को कह रहे हैं। पुजारी ने दूसरे दिन सबेरे ही सारे नगर में इसकी घोषणा करवा दी।
काशी के सभी विद्वान्, साधु और अन्य पुण्यात्मा दानी लोग भी गंगा जी में स्नान करके मन्दिर में आये। सबने विश्वनाथ जी को जल चढ़ाया, प्रदिक्षणा की और सभा- मण्डप में तथा बाहर खड़े हो गये। उस दिन मन्दिर में बहुत भीड़ थी। सबके आ जाने पर पुजारी ने सबसे अपना स्वप्न बताया। सब लोग हर- हर महादेव की ध्वनि करके शंकर जी की प्रार्थना करने लगे।
जब भगवान् की आरती हो गयी घण्टे- घड़ियाल के शब्द बंद हो गये और सब लोग प्रार्थना कर चुके, तब सबने देखा कि मन्दिर में अचानक खूब प्रकाश हो गया है। भगवान् विश्वनाथ की मूर्ति के पास एक सोने का पात्र पड़ा था, जिस पर बड़े- बड़े रत्न जड़े हुए थे। उन रत्नों की चमक से ही मन्दिर में प्रकाश हो रहा था। पुजारी ने वह रत्न- जड़ित स्वर्णपात्र उठा लिया। उस पर हीरों के अक्षरों में लिखा था- ‘सबसे बड़े दयालु और पुण्यात्मा के लिये यह विश्वनाथ जी का उपहार है।’
पुजारी जी बड़े त्यागी और सच्चे भगवद्भक्त थे। उन्होंने वह पात्र उठाया सबको दिखाया। वे बोले- ‘प्रत्येक सोमावार को यहाँ विद्वानों की सभा होगी, जो सबसे बड़ा पुण्यात्मा और दयालु अपने को सिद्ध कर देगा, उसे यह स्वर्णपात्र दिया जाएगा।’
देश में चारों ओर यह समाचार फैल गया। दूर- दूर से तपस्वी,त्यागी, व्रत करने वाले, दान करने वाले लोग काशी आने लगे। एक साधू ने कई महीने लगातार चान्द्रायण- व्रत किया था। वे उस स्वर्णपात्र को लेने आये। लेकिन जब स्वर्णपात्र उन्हें दिया गया, उनके हाथ में जाते ही वह मिट्टी का हो गया। उसकी ज्योति नष्ट हो गयी। लज्जित हो कर उन्होंने स्वर्णपात्र लौटा दिया। पुजारी के हाथ में जाते ही वह फिर सोने का हो गया और उसके रत्न चमकने लगे।
एक धर्मात्मा ने बहुत से विद्यालय बनवाये थे। कई स्थानों पर सेवाश्रम चलाते थे। दान करते- करते उन्होंने लगभग सारा धन खर्च कर दिया था। बहुत सी संस्थाओं को सदा दान देते थे। अखबारों में उनका नाम छपता था। वे भी स्वर्णपात्र लेने आये, किन्तु उनके हाथ में भी जाकर मिट्टी का हो गया। पुजारी ने उनसे कहा- ‘आप पद, मान या यश के लोभ से दान करते जान पड़ते हैं। नाम की इच्छा से होने वाला दान सच्चा दान नहीं हैं।
इसी प्रकार बहुत- से लोग आये, किन्तु कोई भी स्वर्णपात्र पा नहीं सका। सबके हाथों में पहुँचकर वह मिट्टी का हो जाता था। कई महीने बीत गये। बहुत से लोग स्वर्णपात्र पाने के लोभ से भगवान् विश्वनाथ के मन्दिर के पास ही दान- पुण्य करने लगे। लेकिन स्वर्णपात्र उन्हें भी नहीं मिला।
एक दिन एक बूढ़ा किसान भगवान् विश्वनाथ के दर्शन करने आया। वह देहाती किसान था। उसके कपड़े मैले और फटे थे। वह केवल विश्वनाथ जी का दर्शन करने आया था। उसके पास कपड़े में बँधा थोड़ा सत्तू और एक फटा कम्बल था। लोग मन्दिर के पास गरीबों को कपड़े और पूड़ी- मिठाई आदि बाँट रहे थे; किन्तु एक कोढ़ी मन्दिर से दूर पड़ा कराह रहा था। उससे उठा नहीं जाता था। उसके सारे शरीर में घाव थे। वह भूखा था, किन्तु उसकी ओर कोई देखता तक नहीं था। बूढ़े किसान को कोढ़ी पर दया आ गयी। उसने अपना सत्तू उसे खाने को दे दिया और अपना कम्बल उसे उढ़ा दिया। वहाँ से वह मन्दिर में दर्शन करने आया।
मन्दिर के पुजारी ने अब नियम बना लिया था कि सोमवार को जितने यात्री दर्शन करने आते थे, सबके हाथ में एक बार वह स्वर्णपात्र रखते थे। बूढ़ा किसान जब विश्वनाथ जी का दर्शन करके मन्दिर से निकला, पुजारी ने उसके हाथ में स्वर्णपात्र रख दिया। उसके हाथ में जाते ही स्वर्णपात्र में जड़े रत्न दुगुने प्रकाश से चमकने लगे। सब लोग बूढ़े की प्रशंसा करने लगे।
पुजारी ने कहा- जो निर्लोभ है, दीनों पर दया करता है, जो बिना किसी स्वार्थ के दान करता है, और दुखियों की सेवा करता है, वही सबसे बड़ा पुण्यात्मा है।

१८. अवश्यमेव भोक्तव्यं कर्मफल शुभाशुभम्
आठों वसु एक बार सपत्नीक पृथ्वी लोक पर भ्रमण के लिए उतरे। कई तीर्थ और देवताओं के दर्शन करते हुये वे वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में पहुँचे। वशिष्ठ का आश्रम उन दिनों तप, ज्ञान, साधना और ब्रह्मवर्चस् के लिए विश्व विख्यात था। वहाँ अलौकिक शान्ति छाई हुई थी।
वसु और उनकी पत्नियाँ देर तक आश्रम की प्रत्येक वस्तु को देखती रहीं। आश्रम की यज्ञशाला, साधना- भवन और स्नातकों के निवास आदि सभी स्वच्छ, सजे हुए एवं सुव्यवस्थित देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। बड़ी देर तक वसुगण, ऋषियों के तप, ज्ञान, दर्शन और उनकी जीवन व्यवस्था पर चर्चा करते और प्रसन्न होते रहे।
इसी बीच वसु प्रभास एवं उनकी धर्म पत्नी, आश्रम के उद्यान भाग की ओर निकल आये। वहाँ ऋषि की कामधेनु नन्दिनी हरी घास चर रही थी। गाय की सुंदरता, भोली आकृति, धवल वर्ण को देखकर वे दंग रह गए। प्रभास- पत्नी तो उसे पाने के लिये व्याकुल हो उठीं।
उन्होंने प्रभास को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘‘स्वामी! नन्दिनी की मृदुल दृष्टि ने मुझे विमोहित किया है। मुझे इस गाय में आसक्ति हो गई है, अतएव इसे अपने साथ ले चलिये।’’
प्रभास हँसकर बोले- ‘‘देवी! औरों की प्यारी वस्तु को देखकर लोभ करना और उसे अनाधिकार पाने की चेष्टा करना पाप है। उस पाप के फल से मनुष्य तो मनुष्य, हम देवता भी नहीं बच सकते, क्योंकि ब्रह्माजी ने कर्मों के अनुसार ही सृष्टि की रचना की है। हम अच्छे कर्मों से देवता हुये हैं, बुराई पर चलने के लिये विवश मत करो, अन्यथा कर्म- भोग का दण्ड हमें भी भुगतना पड़ेगा।’’
‘‘हम देवता हैं, इसीलिये पहले ही अमर हैं। नन्दिनी का दूध तो अमरत्व के लिये है, इसलिये उससे अपना कोई प्रयोजन भी तो सिद्ध नहीं होता?’’ प्रभास ने अपनी धर्म- पत्नी को सब प्रकार से समझाया। पर वे नहीं मानीं। उन्होंने कहा- ‘‘ऐसा मैं अपने लिये तो कर नहीं रही। मृत्यु लोक में मेरी एक सहेली है, उसके लिये कर रही हूँ। ऋषि भी आश्रम में हैं नहीं, इसलिये यथाशीघ्र गाय को यहाँ से ले चलिये।’’
प्रभास ने फिर समझाया- ‘‘देवी! चोरी और छल से प्राप्त वस्तु को परोपकर में भी लगाने से पुण्य- फल नहीं होता। अनीति से प्राप्त वस्तु के द्वारा किये हुए दान और धर्म से शान्ति भी नहीं मिलती। इसलिये तुमको यह जिद छोड़ देनी चाहिये।’’
वसु- पत्नी समझाने से भी न समझीं। प्रभास को गाय चुरानी ही पड़ी। थोड़ी देर में अन्यत्र गये हुये ऋषि वशिष्ठ आश्रम लौटे। गाय को न पाकर उन्होंने सबसे पूछ- ताछ की। किसी ने उसका अता- पता नहीं बताया। ऋषि ने ज्ञान- चक्षुओं से देखा तो उन्हें वसुओं की करतूत मालूम पड़ गई। देवताओं के इस उद्धत- पतन पर शांत ऋषि को भी क्रोध आ गया। उन्होंने शाप दे दिया- ‘‘सभी वसु देव शरीर त्यागकर पृथ्वी पर जन्म लें।’’
शाप व्यर्थ नहीं हो सकता था। देवगुरु के कहने पर उन्होंने ७ वसुओं को तो तत्काल मुक्ति का वरदान दे दिया, पर अन्तिम वसु प्रभास को चिरकाल तक मनुष्य शरीर में रहकर कष्टों को सहन करना ही पड़ा।
वह आठों वसु क्रमशः महाराज शान्तनु और गंगा के घर जन्मे। सात की तत्काल मृत्यु हो गई, पर आठवें प्रभास को पितामह के रूप में जीवित रहना पड़ा। महाभारत युद्ध में उनका शरीर छेदा गया। यह उसी पाप का फल था, जो उन्हें देव शरीर में करना पड़ा था। इसलिये कहते हैं कि गलती देवताओं को भी क्षम्य नहीं। मनुष्य को तो उसका फल अनिवार्य रूप से भोगना ही पड़ता है। दुष्कर्म के लिए पश्चात्ताप करना ही पड़ता है। ऐसा न सोचें कि एकान्त में किया गया अपराध किसी ने देखा नहीं। नियन्ता की दृष्टि सर्वव्यापी है। उससे कोई बच नहीं सकता।

१९. सत्य, ज्ञान के समन्वय में निहित

सम्राट ब्रह्मदत्त ने सुना कि उनके चारों पुत्र विद्याध्ययन कर लौट रहे हैं, तो उनके हर्षातिरेक का ठिकाना न रहा। स्वतःजाकर नगर- द्वार पर उन्होंने अपने पुत्रों की आगवानी की और बड़े लाड़- प्यार के साथ उन्हें राज- प्रासाद ले आये। राजधानी में सर्वत्र उल्लास और आनन्द की धूम मच गई।
किन्तु हवा के झोंके के समान आई वह प्रसन्नता एकाएक तब समाप्त होती जान पड़ी जब चारों पुत्रों में परस्पर श्रेष्ठता का विवाद उठ खड़ा हुआ।
पहले राजकुमार का कहना था- मैंने खगोल विद्या पढ़ी है- खगोल विद्या से मनुष्य को विराट का ज्ञान होता है इसलिये मेरी विद्या सर्वश्रेष्ठ है। सत्य- असत्य का जितना अच्छा निर्णय मैं दे सकता हूँ, दूसरा नहीं।
द्वितीय राजकुमार का तर्क था कि तारों की स्थिति और उनके स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर लेने से कोई ब्रह्मा नहीं हो जाता- ज्ञान तो मेरा सार्थक है क्योंकि मैने वेदान्त पर आचार्य किया है। ब्रह्म विद्या से बढ़कर कोई विद्या नहीं, इससे लोक- परलोक के बन्धन खुलते हैं। इसलिये मैं अपने को श्रेष्ठ कहूँ, तब तो कोई बात है। इन भाई साहब को ऐसा मानने का क्या अधिकार?
तीसरे राजकुमार का मत था- वेदान्त को व्यवहार में प्रयोग न किया जाए, साधनाएँ न की जाएँ तो वाचिक ज्ञान मात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता- देखने वाली बात है कि हम अपने सामाजिक जीवन में कितने व्यवस्थित हैं- मैंने सामजशास्त्र पढ़ा है इसलिये मेरा दावा है कि श्रेष्ठता का अधिकारी मैं ही हो सकता हूँ।
चौथे रसायनशास्त्री राजकुमार इन सबकी बातें सुनकर हँसे और बोले- बन्धुओं झगड़ो मत। इस संसार में श्रेष्ठता का माप दण्ड है लक्ष्मी। तुम जानते हो मैंने लोहे और ताँबे को भी सोना बनाने वाली विद्या पढ़ी है। पारद को फूँककर मैं अलौकिक औषधियाँ बना सकता हूँ और तुम सबकी विद्या खरीद लेने जितना अर्थ उपार्जन कर सकता हूँ, तब फिर बोलो, मेरी विद्या श्रेष्ठ हुई या नहीं?
श्रेष्ठता सिद्धि के अखाड़े के चारों, प्रतिद्वन्द्वियों में से किसी को भी हार न मानते देख सम्राट ब्रह्मदत्त अत्यन्त दुःखी हुये। सारी स्थिति पर विचारकर एक योजना बनाई। उन्होंने एक राजकुमार को पतझड़ के समय जंगल में भेजा और किंशुक तरु को पहचानकर आने को कहा। उस समय किंशुक में एक भी पत्ता नहीं था। वह ठूँठ खड़ा था, सो पहले राजकुमार ने यह ज्ञान प्राप्त किया किंशुक एक ऐसा वृक्ष है जिसमें पत्ते नहीं होते। अगले माह दूसरे राजकुमार गये, तब तक कोंपलें फूट चुकी थीं। तीसरे माह उसमें पुष्प आ चुके थे और चौथे माह फूल- फलों में परिवर्तित हो चुके थे। हर राजकुमार ने किंशुक की अलग- अलग पहचान बताई।
तब राजपुरोहित ने उन चारों को पास बुलाया और कहा- ‘‘तात्! किंशुक तरु इस तरह का होता है- चार महीने उसमें परिवर्तन के होते हैं। तुम लोगों में से हर एक ने उसका भिन्न रूप देखा पर यथार्थ कुछ और ही था। इसी प्रकार संसार में ज्ञान अनेक प्रकार के हैं पर सत्य उन सबके समन्वय में है। किसी एक में नहीं।’’
राजकुमार सन्तुष्ट हो गये और उस दिन से श्रेष्ठता के अहंकार का परित्याग कर परस्पर मिल- जुलकर रहने लगे।

२०. सेवाभावी की कसौटी
स्वामीजी का प्रवचन समाप्त हुआ। अपने प्रवचन में उन्होंने सेवा- धर्म की महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डाला और अन्त में यह निवेदन भी किया कि जो इस राह पर चलने के इच्छुक हों, वह मेरे कार्य में सहयोगी हो सकते हैं। सभा विसर्जन के समय दो व्यक्तियों ने आगे बढ़कर अपने नाम लिखाये। स्वामीजी ने उसी समय दूसरे दिन आने का आदेश दिया।
सभा का विसर्जन हो गया। लोग इधर- उधर बिखर गये। दूसरे दिन सड़क के किनारे एक महिला खड़ी थी, पास में घास का भारी ढेर। किसी राहगीर की प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई आये और उसका बोझा उठवा दे। एक आदमी आया, महिला ने अनुनय- विनय की, पर उसने उपेक्षा की दृष्टि से देखा और बोला- ‘‘अभी मेरे पास समय नहीं है। मैं बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने जा रहा हूँ।’’ इतना कह वह आगे बढ़ गया। थोड़ी ही दूर पर एक बैलगाड़ी दलदल में फँसी खड़ी थी। गाड़ीवान् बैलों पर डण्डे बरसा रहा था पर बैल एक कदम भी आगे न बढ़ पा रहे थे। यदि पीछे से कोई गाड़ी के पहिये को धक्का देकर आगे बढ़ा दे तो बैल उसे खींचकर दलदल से बाहर निकाल सकते थे। गाड़ीवान ने कहा- ‘‘भैया! आज तो मैं मुसीबत में फँस गया हूँ। मेरी थोड़ी सहायता करदो।’’
राहगीर बोला- मैं इससे भी बड़ी सेवा करने स्वामी जी के पास जा रहा हूँ। फिर बिना इस कीचड़ में घुसे, धक्का देना भी सम्भव नहीं, अतः अपने कपड़े कौन खराब करे। इतना कहकर वह आगे बढ़ गया। और आगे चलने पर उसे एक नेत्रहीन वृद्धा मिली। जो अपनी लकड़ी सड़क पर खटखट कर दयनीय स्वर से कह रही थी, ‘‘कोई है क्या? जो मुझे सड़क के बायीं ओर वाली उस झोंपड़ी तक पहुँचा दे। भगवान् तुम्हारा भला करेगा। बड़ा अहसान होगा।’’ वह व्यक्ति कुड़कुड़ाया- ‘‘क्षमा करो माँ! क्यों मेरा सगुन बिगाड़ती हो? तुम शायद नहीं जानती मैं बड़ा आदमी बनने जा रहा हूँ। मुझे जल्दी पहुँचना है।’’
इस तरह सबको दुत्कार कर वह स्वामीजी के पास पहुँचा। स्वामीजी उपासना के लिए बैठने ही वाले थे, उसके आने पर वह रुक गये। उन्होंने पूछा- क्या तुम वही व्यक्ति हो, जिसने कल की सभा में मेरे निवेदन पर समाज सेवा का व्रत लिया था और महान् बनने की इच्छा व्यक्त की थी।
जी हाँ! बड़ी अच्छी बात है, आप समय पर आ गये। जरा देर बैठिये, मुझे एक अन्य व्यक्ति की भी प्रतीक्षा है, तुम्हारे साथ एक और नाम लिखाया गया है।
जिस व्यक्ति को समय का मूल्य नहीं मालुम, वह अपने जीवन में क्या कर सकता है? उस व्यक्ति ने हँसते हुए कहा। स्वामीजी उसके व्यंग्य को समझ गये थे, फिर भी वह थोड़ी देर और प्रतीक्षा करना चाहते थे। इतने में ही दूसरा व्यक्ति भी आ गया। उसके कपड़े कीचड़ में सने हुए थे। साँस फूल रही थी। आते ही प्रणाम कर स्वामी जी से बोला- ‘‘कृपा कर क्षमा करें! मुझे आने में देर हो गई, मैं घर से तो समय पर निकला था, पर रास्ते में एक बोझा उठवाने में, एक गाड़ीवान् की गाड़ी को कीचड़ से बाहर निकालने में तथा एक नेत्रहीन वृद्धा को उसकी झोंपड़ी तक पहुँचाने में कुछ समय लग गया और पूर्व निर्धारित समय पर आपकी सेवा में उपस्थित न हो सका।’’
स्वामीजी ने मुस्कारते हुए प्रथम आगन्तुक से कहा- दोनों की राह एक ही थी, पर तुम्हें सेवा के जो अवसर मिले, उनकी अवहेलना कर यहाँ चले आये। तुम अपना निर्णय स्वयं ही कर लो, क्या सेवा कार्यों में मुझे सहयोग प्रदान कर सकोगे?
जिस व्यक्ति ने सेवा के अवसरों को खो दिया हो, वह भला क्या उत्तर देता?

२१. एकान्त नहीं मिला
आचार्य उपकौशल को अपनी पुत्री के लिये योग्य वर की खोज थी। उनके गुरुकुल में कई विद्वान् ब्रह्मचारी थे, किन्तु वे कन्यादान के लिए ऐसे सत्पात्र की खोज में थे, जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी आत्मा को प्रताड़ित न करे। परीक्षा के लिए सब ब्रह्मचारियों को गुप्त रूप से आभूषण लाने को कहा, जिसे माता- पिता क्या, कोई भी न जाने।
सब छात्र चोरी से कुछ न कुछ आभूषण लेकर लौटे। आचार्य ने वे आभूषण संभालकर रख लिये। अन्त में वाराणसी के राजकुमार ब्रह्मदत्त खाली हाथ लौटे। आचार्य ने उनसे पूछा- ‘क्या तुम्हें एकान्त नहीं मिला?’ ब्रह्मदत्त ने उत्तर दिया- ‘निर्जनता तो उपलब्ध हुई, पर मेरी आत्मा और परमात्मा तो चोरी को देखते ही थे। ’ बस आचार्य को वह सत्पात्र मिल गया, जिसकी उन्हें खोज थी।
१. ईश्वर को सर्वत्र विद्यमान देखने वाला कभी अनुचित कार्य नहीं कर सकता।
२. अनुचित कार्य, चाहे जिसने भी आदेश दिया हो, नहीं करना चाहिए। (गुरु की आज्ञा होने पर भी नहीं)।

२२. जीवों को सताना नहीं चाहिये
माण्डव्य ऋषि तपस्या में लीन थे। उधर से कुछ चोर गुजरे। वे राजकोष लूट कर भागे थे। लूट का धन भी उनके साथ था। राजा के सिपाही उनका पीछा कर रहे थे। चोरों ने लूट का धन ऋषि की कुटिया में छिपा दिया और स्वयं भाग गये। सिपाही जब वहाँ पहुँचे तो चोरों की तलाश में कुटिया के भीतर गये। चोर तो नहीं मिले पर वहाँ रखा धन उन्हें मिल गया। सिपाहियों ने सोचा कि निश्चित ही बाहर जो व्यक्ति बैठा है, वही चोर है। स्वयं को बचाने के लिये साधु का वेष बना, तपस्या का ढोंग कर रहा है। उन्होंने ऋषि को पकड़ लिया और राजा के सामने ले जाकर प्रस्तुत किया। राजा ने भी कोई विचार नहीं किया और न ही पकड़े गये अभियुक्त से कोई प्रश्न किया और सूली पर लटकाने की सजा सुना दी।
माण्डव्य ऋषि विचार करने लगे कि ऐसा क्यों हुआ? यह उन्हें किस पाप की सजा मिल रही है? उन्होंने अपने जीवन का अवलोकन किया, कहीं कुछ नहीं मिला। फिर विगत जीवन का अवलोकन किया। देखते- देखते पूरे सौ जन्म देख लिये, पर कहीं उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया जिसके परिणाम स्वरूप यह दण्ड सुनाया जाता। अब उन्होंने परमात्मा की शरण ली। आदेश हुआ, ‘ऋषि अपना १०१ वाँ जन्म देखो।’ ऋषि ने देखा ‘‘एक ८- १० वर्ष का बालक है। उसने एक हाथ में एक कीट को पकड़ रखा है। दूसरे हाथ में एक काँटा है। बालक कीट को वह काँटा चुभाता है तो कीट तड़पता है और बालक खुश हो रहा है। कीट को पीड़ा हो रही है और बालक का खेल हो रहा है।’’ ऋषि समझ गये कि उन्हें किस पाप का दण्ड दिया जा रहा है।
पर वह तो तपस्वी हैं। क्या उनकी तपस्या भी उनके इस पाप को नष्ट न कर पाई थी? ऋषि विचार ही कर रहे थे कि कुछ लोग जो ऋषि को जानते थे, वे राजा के पास पहुँचे और ऋषि का परिचय देते हुए उनकी निर्दोषता बताई। राजा ने ऋषि से क्षमायाचना करते हुए ऋषि को मुक्त कर दिया।
इतनी देर में क्या- क्या घट चुका था। भगवान् का न्याय कितना निष्पक्ष है, कितना सूक्ष्म है। इसे तो ऋषि ही समझ रहे थे। मन ही मन उस कीट से क्षमा याचना करते हुए वे पुनः अपनी तपस्या में लीन हो गये।

२३. छोटी आयु में बड़ी सफलता
नेपोलियन ने २५ वर्ष की आयु में इटली नी विजय प्राप्त की थी। न्यूटन ने २१ वर्ष का होने से पूर्व ही अपने महत्वपूर्ण आविष्कार कर डाले थे। विक्टर ह्यूगो जब १५ वर्ष के थे तब तक उनने कई नाटक लिख लिये थे और तीनपुरस्कार जीते थे। सिकन्दर जब दिग्विजय को निकला तब कुल २२ वर्ष का था। फ्रांस की क्रांति का नेतृत्व करने वाली देवी जौन १७ वर्ष की थी।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जब वीरगति को प्राप्त हुई तब वह केवल २३ वर्ष की थी। स्वामी विवेकानंद ने केवल ३९ वर्ष का जीवन जिया। भगत सिंह को जब फाँसी दी गई तब वे भी केवल २३ वर्ष के थे। गुरू गोबिंदसिंह जी के शहजादों के विषय में तो सभी जानते हैं। वे बाल्यावस्था में ही वीरगति को प्राप्त हो गए थे।
यदि उत्कट इच्छा, अदम्य साहस और प्रबल भावना जागृत हो जाए तो अल्प आयु में भी मनुष्य बहुत कुछ कर सकता है। बहुत कुछ बन सकता है।


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