बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका

अध्याय- २ बाल प्रबोधन -भाग - ३ महापुरुषों का बचपन

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१. मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र
          त्रेता युग समाप्त हो रहा था। संसार में राक्षसों का बल बहुत बढ़ गया था। इसी समय सरयू नदी के तट पर अयोध्या नगरी में राजा दशरथ राज्य करते थे। उनके चार पुत्र थे- रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। रामचन्द्र इनमें सबसे बड़े थे। वैसे तो चारों भाई माता- पिता और गुरुजनों की हर आज्ञा का सदा प्रसन्नता से पालन करते थे, परन्तु रामचन्द्र जी तो गुणों के भण्डार थे। इन्होंने आयु भर बड़ों की आज्ञा- पालन करने और धर्म के अनुसार प्रजा- पालन करने में ऐसा आदर्श दिखाया कि संसार चकित रह गया। इसी से इन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ नाम से पुकारा जाता है। इन्होंने अपने जीवन में सदा मर्यादा का पालन किया।
जब राम बालक थे, उस समय इनका नियम था कि सोने से पहले और प्रातःकाल उठते ही माता- पिता के चरण छूना और दिन- भर उनके कहे अनुसार ही काम करना। एक बार मुनि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास आए और कहा कि राक्षस लोग हमें यज्ञ नहीं करने देते और बहुत दुःख पहुँचाते हैं; आप राम और लक्ष्मण को मेरे साथ भेज दें। ये हमारे यज्ञ की रक्षा करेंगे। गुरु वसिष्ठ के समझाने पर राजा ने दोनों राजकुमारों को विदा कर दिया। महात्मा विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को लेकर अपने आश्रम में पहुँचे। दोनों भाइयों ने दिन- रात गुरु की सेवा की। वे प्रेम से उनके पैर दबाते थे, उनके सोने के बाद सोते थे। प्रातःकाल जब गुरुदेव के उठने का समय होता था, उससे पहले उठ जाते थे। उनकी हर सेवा अपने हाथों से करते थे। उनकी हर आज्ञा का पालन करते थे। भूमि पर सोते थे। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर महात्मा विश्वामित्र ने उन्हें ऐसे- ऐसे शस्त्र दिये, जिनसे उन्होंने बड़े- बड़े राक्षसों को मार डाला और संसार में यश पाया, और ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ को पूरा कराया।
       अब भगवान् राम की, माता- पिता के आज्ञा- पालन की कहानी भी सुनो। राम सदा माताओं और पिता की हर आज्ञा का पालन करना अपना धर्म मानते थे। जब राजा दशरथ बूढ़े हुए, उन्होंने राम को युवराज बनाना चाहा। इस समय भरत और शत्रुघ्न ननिहाल गए हुए थे। सारे नगर को सजाया गया और स्थान- स्थान पर उत्सव होने लगे। जब रानियों को पता लगा, तो वे फूली न समाई, उन्होंने भी अपने भवनों को खूब सजवाया। पर विधाता की इच्छा कुछ और ही थी।
     रानी कैकेयी की एक दासी थी, जिसका नाम था- मंथरा। वह बड़ी कुटिल थी। बुरे आदमियों को सदा बुराई सूझती ही है। इसलिए हमें सदा अच्छे लोगों की ही संगति करनी चाहिए। भूलकर भी बुरों के पास नहीं बैठना चाहिए। वह यह सब जानकर जल- भुन गई। उसने जाकर रानी कैकेयी को समझाया कि तुम्हारे पुत्र भरत को बाहर भेजकर राजा दशरथ राम को राज्य दे रहे हैं। भोली रानी उसकी चाल में आ गई और उसने राजा से दो वर माँगे। एक से राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास और दूसरे से भरत को राज्य। राजा यह सुनते ही बेहोश होकर गिर पड़े, क्योंकि उन्हें राम से बहुत प्यार था। वे राम की जुदाई सहन नहीं कर सकते थे।
     जब राम को यह सब पता लगा, तो वे बड़ी प्रसन्नता से वन जाने को तैयार हो गए। उन्होंने कैकेयी से हाथ जोड़कर कहा- हे माता! आपने पिता जी को क्यों कष्ट दिया, मुझे ही कह देतीं। मैं आपकी हर आज्ञा का प्राण देकर भी पालन करूँगा। इतना कहकर राम ने राजसी वस्त्र उतारकर वल्कल पहन लिए और वन जाने के लिए तैयार हो गए। वे सीधे माता कौशल्या के पास गए और उनके चरण छुए। उनका आशीर्वाद पाकर राम वन को चल पड़े। लक्ष्मण और सीता भी उनका वियोग न सह सकते थे और साथ में चले गए। चलते समय तीनों पिता दशरथ के पास गए और उनके तथा माता कैकेयी के चरण छूकर चल दिए।
इसके बाद राजा दशरथ यह वियोग न सह सके और स्वर्ग सिधार गए। अब गुरु वसिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को ननिहाल से बुलाया। जब भरत को पिता की मृत्यु और बड़े भाइयों के वन जाने का समाचार मिला तो वे दुःख से रो उठे। उन्होंने राजा बनना स्वीकार नहीं किया। सेना, माताओं और गुरुजनों को साथ लेकर वन में राम को लौटाने के लिए गए, पर राम न लौटे। उन्होंने कहा कि मैं माता और पिता की आज्ञा से वन में आया हूँ। उनकी आज्ञा का पालन करना, हम सबका धर्म है। भरत निराश होकर राम की खड़ाऊँ लेकर लौट आए और चौदह वर्ष तक अयोध्या के बाहर नन्दिग्राम में रहे। भगवान् राम के लौटने तकउन्होंने भी वनवासी की तरह ही कंद- मूल खाकर व झोंपड़ी में रहकर तपस्या भरा कठोर जीवन बिताया और राज्य का काम भी करते रहे।
      चौदह वर्ष बीतने पर जब राम लौटे, तब अयोध्या में दीपमाला सजाई गई और राम को राजा बनाया गया। जब तक राम जीवित रहे, उन्होंने ऐसा अच्छा राज्य चलाया कि आज भी लोग ‘राम- राज्य’ के गुण गाते हैं। उस समय कोई चोर न था, सब सदाचारी थे, सब सच बोलते थे, दोनों समय संध्या- वंदन करते थे, माता- पिता के होते हुए पुत्र की मृत्यु नहीं होती थी, सब सुखी थे, समय- समय पर अच्छी वर्षा होती थी, पृथ्वी धन- धान्य से भरपूर थी। बड़े- बड़े तपस्वी और महात्माओं की आज्ञा से ही श्री रामचन्द्र जी राज्य करते थे।

२. आदर्श ब्रह्मचारी- भीष्म
        बहुत समय की बात है, इस पवित्र मातृभूमि भारतवर्ष पर राजा शान्तनु राज्य करते थे। इनकी राजधानी हस्तिनापुर थी। इनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम देवव्रत रखा गया। जब राजकुमार देवव्रत बड़े हुए, उस समय एक बार उनके पिता महाराज शान्तनु शिकार खेलने गए। वहाँ उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दर नदी बह रही है, जिसके बीच में एक कन्या नाव चला रही है। वह देखने में बहुत सुन्दर है और उसके शरीर से सुगन्ध फैल रही है। राजा ने उसे देखा और उसके पास जाकर उसका पता पूछा। वह उन्हें अपने पिता के पास ले गई। उसके पिता नाविक थे। राजा ने उसके पिता से कहा कि यदि आप चाहें तो इस कन्या का विवाह मेरे साथ कर दें, मैं इसे अपनी रानी बनाऊँगा। यह सुनकर नाविक बोला- हे राजन्! यदि आप वचन दें कि इसकी संतान ही राजगद्दी पर बैठेगी, तब मैं विवाह करने को तैयार हूँ। राजा यह सुनकर अपने महल में लौट आए, क्योंकि वे अपने पुत्र देवव्रत को ही राजा बनाना चाहते थे। परन्तु उस दिन से वे उदास रहने लगे।
      जब यह सब समाचार देवव्रत को मालूम हुआ, तो वह पिता की चिन्ता को मिटाने का उपाय सोचने लगा। अन्त में वह सीधा नाविक के पास गया और उसके सामने प्रतिज्ञा की कि मैं कभी राजा नहीं बनूँगा और आपकी पुत्री से जो संतान होगी, वही राज्य करेगी। नाविक ने कहा कि आप कहते तो ठीक हैं, पर आपकी जो संतान होगी, कहीं वह राज्य का दावा न कर बैठे। इससे तो झगड़ा बना ही रहेगा। इस पर राजकुमार देवव्रत ने प्रतिज्ञा की कि मैं आयु- भर विवाह नहीं करूँगा। आप कृपया अपनी पुत्री का विवाह मेरे पिताजी से कर दें। अब नाविक मान गया। उस कन्या का विवाह राजा शान्तनु से हो गया।
ऐसा कठिन व्रत लेने के कारण ही देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा। उन्होंने आयु- भर इस व्रत को निभाया और इस ब्रह्मचर्य के प्रताप के कारण ही वे लगभग १५७ वर्ष जीवित रहे। मृत्यु उनके वश में थी। महाराज शान्तनु के दो और पुत्र हुए। इनके नाम थे, विचित्रवीर्य और चित्रांगद। महाराज के मरने पर भीष्म ने अपने हाथों से विचित्रवीर्य को राजा बनाया। विचित्रवीर्य और चित्रांगद छोटी आयु में ही मर गए।
     माता सत्यवती ने भीष्म को बुलाकर कहा- पुत्र! अब तुम्हें चाहिए कि विवाह कर लो और राज्य संभालो, नहीं तो कौरव वंश का नाश हो जाएगा।
भीष्म गरज कर बोले- माता! सूर्य उदय होना छोड़ दे, वायु बहना छोड़ दे, जल अपनी शीतलता छोड़ दे, परन्तु भीष्म अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ सकता।
महाभारत का युद्ध हो रहा था, भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति थे। आठ दिन से लगातार युद्ध हो रहा था। पाण्डवों की सेना दिन- प्रतिदिन कम हो रही थी। पांडव बड़ी चिन्ता में थे कि किस प्रकार युद्ध में विजय हो, क्योंकि भीष्म पितामह को मारने की शक्ति किसी में नहीं थी। कृष्ण की राय से पाँचों पांडव भीष्म पितामह से उनकी मृत्यु का उपाय पूछने गए। उनसे नम्रता से हाथ जोड़कर कहा कि आपके होते हुए हम किस प्रकार जीतेंगे, कृपया बताइए। वे बोले- आपकी सेना में कोई ऐसा वीर नहीं, जो मुझे मार सके, और मेरे मरे बिना आपकी विजय नहीं हो सकती। हाँ, आपकी सेना में शिखण्डी नाम का एक महारथी है, जो पिछले जन्म में स्त्री था। यदि वह मुझ पर तीर चलाएगा, तो मैं हथियार नहीं उठाऊँगा। आप उसको आगे करके मुझे मार सकते हैं। यह सुनकर पांडव अपने शिविर में लौट आए। प्यारे बच्चो! देखो ब्रह्मचर्य का बल! कोई भी संसार का बड़े से बड़ा वीर उन्हें युद्ध में नहीं मार सकता था। वे स्वयं अपनी मृत्यु का उपाय बता रहे हैं।
      युद्ध का नौवाँ दिन था। आज भीष्म पितामह पूरे बल से पांडव सेना को मार रहे थे। सारी सेना घबरा उठी, अर्जुन भी शिथिल हो रहा था। पांडव सेना का कोई भी सैनिक उनकी बराबरी नहीं कर सकता था। अब महारथी शिखण्डी को आगे किया गया। उसके आगे आते ही पितामह ने हथियार छोड़ दिए। पर शिखण्डी के तीर तो फूल की तरह उनके शरीर पर बरस रहे थे। तब अर्जुन ने शिखण्डी के पीछे खड़े होकर भयंकर तीरों की बौछार शुरु कर दी। इस मार को पितामह सहन न कर सके और युद्धभूमि में गिर पड़े। शरीर तीरों से छलनी हो रहा था। तीरों की शय्या पर ही लेटे- लेटे उन्होंने कहा कि जब सूर्य दक्षिणायन से चलकर उत्तरायण में पहुँचेगा, तभी मैं शरीर छोड़ूँगा और हुआ भी ऐसा ही। महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया, सूर्य उत्तरायण में आया, तब भीष्म पितामह ने शरीर छोड़ा।
तीरों की शय्या पर लेटे हुए उन्होंने युधिष्ठिर को बड़ा उत्तम उपदेश दिया, जो महाभारत में शांति पर्व के नाम से प्रसिद्ध है।

३. दयालु राजकुमार सिद्धार्थ
       बहुत प्राचीन समय की बात है। भारत में कपिलवस्तु नाम की एक बड़ी सुन्दर नगरी थी। उस समय राजा शुद्धोदन वहाँ राज्य करते थे। ये बड़े धार्मिक और न्याय- प्रिय राजा थे। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम सिद्धार्थ रखा गया।
      जब सिद्धार्थ बड़े हुए, तो एक बार वे मंत्री- पुत्र देवदत्त के साथ धनुष- बाण लिए घूम रहे थे। संध्या समय था। सूर्य अस्त हो रहा था। आकाश में लाली छा गई थी। बड़ा मनोहर दृश्य था। पक्षी आकाश में उड़े जा रहे थे। सहसा सिद्धार्थ की दृष्टि दो राज- हंसों पर पड़ी और देवदत्त से बोले- देखो भाई, ये कैसे सुन्दर पक्षी है। देखते ही देखते देवदत्त ने कान तक खींचकर बाण चलाया और उनमें से एक पक्षी को घायल कर दिया। पक्षी भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा। सिद्धार्थ ने आगे बढ़कर उसे अपनी गोद में ले लिया और पुचकारने लगा। देवदत्त ने अपना शिकार हाथ से जाते देख सिद्धार्थ से कहा कि इस पर मेरा अधिकार है, इसे मैंने मारा है। सिद्धार्थ ने राजहंस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा कि बेशक तुमने इसे मारा है, परन्तु मैंने इसे बचाया है। इसलिए यह पक्षी मेरा है।
       राजकुमार सिद्धार्थ ने पक्षी की सेवा की उसकी मरहम- पट्टी की और उसे चारा दिया। समय पाकर पक्षी स्वस्थ होने लगा। फिर एक बार देवदत्त ने सिद्धार्थ से कहा कि मेरा पक्षी मुझे दे दो, परन्तु सिद्धार्थ नहीं माना। लाचार हो देवदत्त ने महाराज के पास जाकर न्याय की पुकार की। महाराज ने दोनों को दरबार में बुलाया।
       राजकुमार सिद्धार्थ राजहंस को गोद में लिए हुए राज- दरबार में पहुँचे। पक्षी डर के मारे कुमार के शरीर से चिपट रहा था। महाराज ने देवदत्त से पूछा कि अब तुम अपनी बात कहो। इस पर देवदत्त ने कहा- महाराज! इस पक्षी को मैंने अपने बाण से मारा है, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। आप चाहें तो, कुमार सिद्धार्थ से ही पूछ लें।
        महाराज की आज्ञा पाकर राजकुमार सिद्धार्थ ने खड़े होकर माथा झुकाकर नम्रता से कहा- हे राजन्, यह तो ठीक है कि यह पक्षी देवदत्त के बाण से घायल हुआ है, पर मैंने इसे बचाया है। मारने वाले की अपेक्षा बचाने वाले का अधिक अधिकार होता है। इसलिए यह पक्षी मेरा है।
      अब राजा बड़ी सोच में पड़े। देवदत्त का अधिकार जताना भी ठीक था और सिद्धार्थ का भी। राजा कोई निर्णय न कर सके। अंत में एक वृद्ध मन्त्री ने उठकर कहा कि हे महाराज! इस पक्षी को सभा के बीच में छोड़ दिया जाए। दोनों कुमार बारी- बारी से इसे अपने पास बुलाएँ। पक्षी जिसके पास चला जाए, उसीको दे दिया जाए। यह विचार सबको पसंद आया।
अब पक्षी को सभा के ठीक बीच में छोड़ दिया गया। एक कोने पर सिद्धार्थ खड़े हुए और दूसरे कोने पर देवदत्त। पहले देवदत्त की बारी थी, उसने पक्षी को बड़े प्रेम से बुलाया, परन्तु वह डर के मारे उससे और दूर हट गया। ज्यों- ज्यों वह बुलाए, पक्षी डर से सिकुड़ता जाए। अंत में देवदत्त हताश हो गया, अब कुमार सिद्धार्थ की बारी थी। ज्योंही उन्होंने प्यार भरी आँखों से पक्षी की ओर देखकर हाथ फैलाया और उसे बुलाया, त्यों ही वह धीरे- धीरे चलता हुआ अपने बचाने वाले की गोद में आकर बैठ गया। हंस सिद्धार्थ को दे दिया गया।
कुमार सिद्धार्थ उस पक्षी की दिन- रात सेवा करने लगे। कुछ दिनों बाद राजहंस पूर्ण स्वस्थ होकर उड़ गया।
       जानते हो ये कुमार सिद्धार्थ कौन थे? यही बाद में राजपाट छोड़कर गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने अहिंसा का पाठ सारे संसार को पढ़ाया। आज भी चीन, जापान आदि कई देश बौद्ध मत को मानते हैं। हमारी सरकार ने भी कुछ साल पहले बड़े समारोह से गया के पवित्र तीर्थ में उनकी जयन्ती मनाई।
४. महावीर
        आज से ढाई हजार वर्ष पहले इस भारत भूमि पर सिद्धार्थ नाम के एक बड़े धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। ये इक्ष्वाकु कुल के थे। ये और इनकी महारानी का नाम त्रिशला था। इनकी प्रजा बड़ी सुखी थी। राज्य धन- धान्य से भरपूर था।
एक बार महारानी को बड़ा सुन्दर स्वप्न आया, जिसका अर्थ यह था कि उन्हें एक शूरवीर और महान् धार्मिक पुत्र प्राप्त होगा। भगवान् की लीला, उसी दिन से राज्य में दिन दूनी, रात चौगुनी उन्नति होने लगी। राजा और रानी सारा- सारा दिन सत्संग और दीन- दुखियों की सेवा में लगे रहते।
        चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को सोमवार के दिन प्रातः काल के समय इनके घर पुत्र हुआ। शिशु का रंग कुन्दन की तरह चमक रहा था। सभी अंग बड़े सुन्दर थे। अब तो राजा- रानी फूले न समाते थे। एक बार संजय और विजय नामक साधु शिशु को देखने आए। उसे देखते ही उनकी सब शंकाएं और अज्ञान मिट गया, उनका मन जल की तरह निर्मल हो गया। राजकुमार के दो नाम रखे गए- वीर और वर्धमान।
        एक बार राजकुमार अपने मित्रों के साथ पेड़ पर उछल- कूद रहे थे कि एक भयानक काला नाग पेड़ पर जा चढ़ा। राजकुमार के सब साथी डरकर भाग खड़े हुए, परन्तु राजकुमार बिलकुल न डरे और उसके फन पर पैर रखकर नीचे उतरकर उसको खूब जोर- जोर से हिलाने- डुलाने लगे और बहुत देर तक खेलते रहे। इसके बाद कुमार को सोने के घड़े में जल लेकर नहलाया गया और इनका नाम महावीर रख दिया गया।
        जब ये पाँच वर्ष के हुए, तो कुल की रीति के अनुसार इन्हें गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेजा गया। ये बहुत थोड़े समय में ही सब- कुछ सीख गए। आठ वर्ष की आयुसे ही इनके मन में यह विचार आया कि सच्चा सुख केवल त्याग से ही मिल सकता है। इस संसार के सभी सुखों का अन्त दुःख में होता है। उन्होंने कठोर व्रतों का पालन शुरु कर दिया और गृहस्थ के कामों को भी करते रहे। जब तक ये महापुरुष घर में रहे, इन्होंने सारे कर्तव्य भली- भाँति पालन किए और उनसे कभी भी मुख नहीं मोड़ा। परन्तु वे सदा ही विचारते रहे कि किस प्रकार जन्म- मरण के चक्र से छूटा जा सकता है और परम आनंद मिल सकता है। इन्होंने सदा माता- पिता और गुरु की हर आज्ञा को माना और तन, मन, धन से उनकी सेवा करते रहे। वे विवाह न कर कठोर ब्रह्मचर्य- व्रत का पालन करते रहे।
      भगवान् महावीर संस्कृत और दूसरी भाषाओं के महान् विद्वान् थे। एक दिन आप प्रभु के ध्यान में बैठे थे कि पूर्वजन्मों का चित्र आँखों के सामने खिंच गया और विचारने लगे कि अनेक जन्म बीत गए और इस जन्म के भी तीस वर्ष बीत गए हैं, परन्तु अभी मोह मेरे मन से दूर नहीं हुआ। आप फूट- फूटकर रोए। आपने एकाएक घर छोड़ने का निश्चय कर लिया और माता- पिता को समझा- बुझाकर उनकी आज्ञा प्राप्त कर घर को सदा के लिए त्याग दिया। आपने वन में पहुँचते ही कपड़े और गहने उतारकर फेंक दिए और अपने बालों को उखाड़ दिया। अब आपने कठोर तपस्या शुरु कर दी। एक बार पूरे छः मास तक समाधि में बैठे रहे। न कुछ खाया और न पिया। इसके बाद कुलपुर गए। वहाँ के राजा ने उनका बहुत आदर किया और प्रेम से भोजन कराया।

   अब आप घूमने लगे पर सदा प्रभु के ध्यान में ही रहते। घनघोर भयानक जंगलों में आप रहे। एक बार आप कौशाम्बी नामक नगर में पधारे, वहाँ चन्दना नाम की एक धर्मात्मा और सुशीला देवी थीं। इनके जीवन पर आपके उपदेश और सत्संग का बहुत प्रभाव हुआ। ये भी आयु- भर ब्रह्मचारिणी रहीं। इन्होंने छत्तीस हजार देवियों के हृदय में धर्म का बीज बोया और आयु- भर धर्म- प्रचार करती रहीं।
         घर छोड़ने के बाद बारह वर्ष तक भगवान् महावीर ने कठोर तप किया और अन्त में ऋजुकुल नदी के किनारे पर जम्बक नामक गाँव में शाल वृक्ष के नीचे आपको सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ। आपके सब संशय मिट गए। अब तो आप संसार के उपकार के लिए निकल पड़े। प्रतापी मगध- नरेश श्रेणिक बिम्बिसार भगवान् के चरणों में बैठकर उपदेश लिया करते थे।
पण्डित इन्द्रभूति उस समय बहुत बड़े विद्वान् माने जाते थे। इसी कारण उन्हें विद्या का घमंड भी था। वे आपके दर्शनों को आये। आपके पवित्र दर्शन करते ही हार मान ली और साथियों सहित आपको गुरु मान लिया। जिस दिन भगवान् महावीर ने शरीर छोड़ा, उसी दिन इन्द्रभूति को सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ। इन्द्रभूति के समान और भी बड़े- बड़े विद्वानों ने आपको गुरु माना।
       लाखों लोग भगवान् का उपदेश सुनते थकते ही नहीं थे। आपके भक्त आपके साथ ही साथ आया करते थे। सच्चा ज्ञान पाने के बाद भगवान् ने तीस वर्ष तक संसार को शान्ति का उपदेश दिया।
       पावापुरी नामक स्थान पर दीवाली के दिन दिये जलने के समय साँझ की बेला में आपने देह त्यागकर सांसारिक बंधनों से मुक्ति पाई। आज भी हमारे देश में लाखों लोग इनके चलाये जैन धर्म को मानते हैं और अपना जन्म पवित्र करते हैं।
५. सच्चे व्यापारी नानक
       आज से पाँच सौ वर्ष पहले, संवत् १५२६ की कार्तिकी पूर्णिमा के शुभ दिन पंजाब में लाहौर नगर के पास तलवंडी नामक स्थान पर एक खत्री परिवार में एक बालक का जन्म हुआ। इसका नाम नानक रखा गया। इसके पिता का नाम कल्याणचन्द था, परन्तु लोग इन्हें कालू नाम से ही पुकारते थे।
      जब नानक सात वर्ष के हुए तो इन्हें पढ़ने के लिए पाठशाला भेजा गया। पण्डित जी ने इनकी पाटी पर गिनती लिखकर दी। नानक ने कहा- पण्डित जी! यह विद्या तो संसार के झगड़े में डालने वाली है, आप तो मुझे वह विद्या पढ़ाएँ, जिसे जानकर सच्चा सुख मिलता है। मुझे तो प्रभु नाम का उपदेश दें। यह सुनकर पण्डित जी हैरान रह गए, फिर भी नानक जी ने दो वर्ष तक पढ़ाई की। नानक प्रायः दूसरे बच्चों की तरह खेल- कूद में समय नहीं बिताते थे। परन्तु जब भी उन्हें देखो, आसन लगाकर भगवान् के भजन में मस्त होते। वे दूसरे बच्चों को भगवान के भजन का उपदेश देते।
     एक बार इनके पिता ने इन्हें बीस रुपये दिए और कहा कि लाहौर जाकर कोई सच्चा व्यापार करो, जिससे कुछ लाभ हो। इनके साथ अपने विश्वासी कर्मचारी बाला को भी भेजा। नानक बाला को साथ लेकर लाहौर की ओर चल पड़े। जब वे जूहड़काणे के निकट जंगल में पहुँचे तो देखा कुछ साधु तपस्या कर रहे हैं। नानक ने पास जाकर उनके चरण छुए। पता लगा कि वे सात दिन से भूखे हैं। नानक ने बाला से कहा- इससे बढ़कर और सच्चा व्यापार क्या होगा! आओ, इन साधुओं को भोजन कराएँ। ऐसा कहकर नानक उनके निकट जा बैठे और बीस रुपये भेंट कर दिए। उनमें बड़े महात्मा ने कहा- बेटा, रुपये हमारे किस काम के? तुम्हे ये रुपये व्यापार के लिए तुम्हारे पिता ने दिये हैं, तुम्हें उनकी आज्ञा के अनुसार ही काम करना चाहिए।
      नानक ने कहा- महाराज! पिताजी ने मुझे सच्चा व्यापार करने के लिए भेजा है, इसीलिए मैं यह खरा व्यापार कर रहा हूँ। मैं और सब व्यापार झूठे समझता हूँ।
अब महात्मा जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और बोले- तू सच्चा प्रभु- भक्त है, इन रुपयों से खाने का सामान ले आ। नानक ने बाला को साथ लेकर पास के गाँव से आटा, दाल, चावल, घी, शक्कर आदि सब वस्तुएँ लाकर महात्मा जी को भेंट कर दीं। फिर महात्माओं के चरण छूकर वे घर को वापस लौट पड़े। घर पहुँचने पर जब उनके पिता को यह मालूम हुआ, तो उन्होंने नानक को बहुत पीटा। नानक की बहिन नानकी ने बीच में पड़कर बड़ी मुश्किल से उन्हें छुड़ाया।
         गाँव के हाकिम राव बुलार नानक के गुणों को जानते थे। उन्होंने कालू को बुलाकर बीस रुपये दे दिए और कहा कि इस बालक को कभी कुछ मत कहना। यह एक महान् पुरुष है। गांव के हाकिम के समझाने से कालू ने नानक को उसके बहनोई के पास सुलतानपुर भिजवा दिया। ये बड़े सज्जन पुरुष थे, ये नानक जी को सदा भगवान् के भजन में आनन्द लूटते देखते। यहीं नानक जी का विवाह हुआ और दो पुत्र भी हुए। यहाँ पर नानक जी ने मोदीखाने का काम किया। कई वर्ष काम करने के बाद इनका मन संसार से उठ गया। वे घर से चले गए। परन्तु तीसरे दिन ही वे बहनोई के घर लौट आए। साधुओं के वेश में इन्होंने लोगों को अपनी मोदीखाने की दुकान लूटने की आज्ञा दे दी और आप गाँव के बाहर जाकर प्रभु- भजन करने लगे। लोगों ने दुकान को जी भरकर लूटा।
      उधर समाचार गाँव के नवाब दौलत खाँ को मिला तो वे आग- बबूला हो उठे। उन्होंने नानक के बहनोई को बुलवाया और कहा कि सरकारी मोदीखाना को लुटाने का सारा दोष तुम और नानक दोनों पर है, मैं अभी हिसाब करता हूँ। जब हिसाब हुआ तो उल्टा नानक जी का सात सौ आठ रुपया नवाब की ओर निकला। सब हैरान रह गए। नानक के कहने पर यह रुपया गरीबों में बाँटा गया। अब तो नानक के दर्शनों को बहुत लोग आने लगे। प्रभु- भजन में बाधा देखकर नानक वहाँ से एमनाबाद में आकर लालू नामक बढ़ई के घर ठहरे।
एक दिन वहाँ के रईस भागू ने नानक जी को भोजन के लिए निमंत्रण दिया। इसी बीच लालू बढ़ई भी भोजन ले आया। नानक जी रईस का भोजन अस्वीकार कर लालू का भोजन करने लगे। अब भागू को बड़ा क्रोध आया। वह स्वयं उनकी सेवा में पहुँच इसका कारण पूछने लगा कि स्वादिष्ट और बढ़िया भोजन छोड़कर आपने नीच लालू का रूखा भोजन क्यों पसन्द किया? नानक जी ने कहा कि तुम भी अपना भोजन ले आओ। जब भोजन आ गया तो नानक जी ने एक हाथ में लालू की सूखी रोटी और दूसरे में भागू की बढ़िया रोटी लेकर जोर से दबाई। लोगों की हैरानी का कोई पार न रहा, जब लालू की रोटी से दूध की बूँदें और भागू की रोटी से खून की बूँदें टपकीं।
      लोगों के पूछने पर उन्होंने बताया कि यह सूखी रोटी तो सच्चे खून- पसीने की कमाई की है और यह स्वादिष्ट भोजन गरीबों का खून चूस- चूसकर बनाया गया है। इसलिए सदा मेहनत और धर्म से ही धन कमाना चाहिए, वही फलता और फूलता है। भागू ने उनके चरण पकड़ लिए और शिष्य बन गया।
       अब नानक देव जी मक्का- मदीना आदि सब स्थानों की यात्रा करने लगे। इनके हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शिष्य बने। सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर छोड़ा। जीवन- भर वे धर्म और सच्चाई की राह बताते रहे और अमर हो गये।

६. आदर्श गुरुभक्त दयानन्द
       लगभग सवा सौ वर्ष हुए, गुजरात प्रान्त के मोरबी राज्य के टंकारा नामक ग्राम में एक बालक का जन्म हुआ। इसका नाम मूलशंकर रखा गया। इसके पिता अम्बाशंकर जी एक बड़े भूमिहार थे। वे शिवजी के बड़े भक्त थे। जब मूलशंकर बड़ा हुआ, तो उन्होंने अपने कुल की रीति के अनुसार उसे शिवरात्रि का व्रत रखने को कहा। पिता ने पुत्र को समझाया कि सच्चे हृदय से शिवजी की पूजा करने से वे प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्त को निहाल कर देते हैं। मूलशंकर ने निश्चय किया कि मैं बिना अन्न- जल ग्रहण किये सारी रात जागकर शिव जी की पूजा करूँगा और उन्हें प्राप्त करूँगा।
       शिवरात्रि के दिन सायंकाल ग्राम के शिव- मंदिर में एक- एक करके भक्तों की टोलियाँ पहुँच गईं। मूलशंकर और इनके पिता भी मंदिर में आ गए। आज दिन- भर मूलशंकर ने कुछ भी खाया- पिया नहीं था।
       मंदिर में आरती के बाद शिवजी की पूजन शुरू हुआ। जब आधी रात बीत गई तो एक- एक करके सब लोग सो गये। मूलशंकर के पिता भी सो गये। केवल मूलशंकर बार- बार आँखों पर जल के छींटे देकर शिवजी का पूजन करते रहे। उन्होंने देखा कि चूहे शिवलिंग पर चढ़कर मिठाई खाने लगे। यह देखकर उन्हें हृदय में शंका हुई कि सारे संसार को चलाने वाले शिवजी अगर अपने ऊपर से एक चूहे को नहीं हटा सकते, तो वे मेरी क्या रक्षा करेंगे?
उन्होंने अपने पिता को जगाया और उन्हें अपनी शंका बताई। उन्होंने उत्तर दिया- बेटा, सच्चे शिव तो कैलाश पर्वत पर रहते हैं, कलियुग में उनके दर्शन नहीं होते, इसलिए मंदिर में मूर्ति बनाकर उनकी पूजा की जाती है। इस उत्तर से मूलशंकर को संतोष नहीं हुआ और मूर्ति पूजा से उनका विश्वास उठ गया। साथ ही साथ यह प्रण भी कर लिया कि मैं सच्चे शिव को ढूँढ़कर उनकी ही पूजा करूँगा। अब मूलशंकर को भूख सताने लगी। वे पिता की आज्ञा लेकर घर लौट आये, माता से लेकर कुछ खा लिया और सो गये।
        कुछ दिनों बाद आपकी छोटी बहिन का देहान्त हुआ। सारा परिवार रोता रहा, पर मूलशंकर की आँखों में कोई आँसू नहीं था। वह कोने में खड़ा सोच रहा था कि मृत्यु क्या है, इससे कैसे बचा जाए। फिर कुछ दिन बीतने पर इनके चाचा की मृत्यु हुई। ये भगवान के बड़े भक्त थे और मूलशंकर को बहुत प्यार करते थे। अब तो मूलशंकर फूट- फूटकर रोए और उन्होंने दूसरा प्रण किया कि मैं मौत को अवश्य जीतूँगा। ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’- होनहार बालक सदा हर बात को विचारा करते हैं और जब एक बार कोई निश्चय कर लेते हैं तो सारी आयु- भर उसे पाने के लिए जुट जाते हैं। कठोर से कठोर विपत्ति भी उन्हें अपने मार्ग से नहीं हटा सकती। फिर अन्त में अपने लक्ष्य को पाकर वे अमर हो जाते हैं।
अब मूलशंकर उदास रहने लगे। उन्होंने अपने मित्रों से किसी योगी का पता पूछा जो सच्चे शिव को प्राप्त करने और मृत्यु को जीतने का उपाय बता सके। उधर माता- पिता को चिन्ता हुई और उन्होंने उसका विवाह करने की ठान ली। जब मूलशंकर को पता लगा तो इन्होंने साफ- साफ कह दिया कि मैं विवाह नहीं करूँगा, योगाभ्यास से मृत्यु को जीतूँगा और सच्चे शिव को पाऊँगा। कुछ समय तो माता- पिता रुक गए पर फिर उन्होंने उनके विवाह की बात पक्की कर ही दी। अपनी धुन के पक्के मूलशंकर ने जब और कोई चारा न देखा तो अपने घर को सदा के लिए छोड़ दिया। इस समय इनकी आयु बाईस वर्ष की थी।
         आपने घर छोड़ने के बाद संन्यास ले लिया। नाम हुआ दयानन्द। वर्षों जंगलों की खाक छानी। बड़े- बड़े महात्माओं की सेवा कर बहुत- कुछ सीखा, पर ज्ञानकी प्यास नहीं बुझी। अन्त में दण्डी स्वामी विरजानन्द के पास जाकर डेढ़ वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करते रहे। ये महात्मा सूरदास थे और मथुरा नगरी में रहते थे। जब तक ऋषि दयानन्द मथुरा में रहे, दिन- भर में यमुना जल के चालीसों घड़े लाकर अपने गुरुदेव को स्नान कराते, उनकी सेवा करते।
        इन दिनों दयानन्द जी का शरीर देखते ही बनता था, लम्बा कद, बाहुएँ बड़ी- बड़ी, माथा- चौड़ा और मोटी- मोटी आँखें। शरीर का गठन बहुत सुन्दर था। इस समय आपकी आयु सैंतीस वर्ष की थी। इन दिनों मथुरा में स्थान- स्थान पर उनके ब्रह्मचर्य व्रत और त्याग की प्रशंसा होती थी। पर महात्मा दयानन्द सदा नीची दृष्टि रखकर चलते थे। यदि कोई छोटी- सी बालिका भी सामने आ जाती तो माता कहकर सिर झुका देते थे।
         एक बार ऋषि दयानन्द अपने गुरु की कुटिया में झाड़ू लगा रहे थे। सब गन्दगी एक कोने में बटोर रहे थे कि गुरुदेव भी उधर ही आ गए और उनका पाँव उसमें जा लगा। इस पर उन्होंने दयानन्द को बहुत पीटा। महर्षि दयानन्द जी उठकर गुरुजी के हाथ- पाँव दबाने लगे और कहा कि गुरुदेव मेरा शरीर तो पत्थर जैसा है और आपका शरीर कोमल है। आपको मुझे मारते समय कष्ट होता होगा, इसलिए मुझे मत मारा करें। कहते हैं, उस चोट का निशान सारी आयुभर आपकी दाईं बाहु पर बना रहा। जब भी उसे देखते, गुरु के उपकारों को याद करने लग जाते।
        पढ़ाई समाप्त होने पर गुरु की आज्ञा से महर्षि दयानन्द देश में बढ़ती हुई अविद्या को मिटाने में जुट गये। इन दिनों लोगों ने आपको 48- 48 घंटे लगातार समाधि में बैठे देखा। आपका चेहरा तेजोमय चक्र से घिरा रहता था। आपने छोटी आयु में विवाह, अनमेल विवाह, मूर्ति- पूजा आदि कई समाज की बुराइयों का कठोरता से खंडन किया। एक ईश्वर की पूजा, ब्रह्मचर्य व्रत और वेदों के पठन- पाठन का बहुत प्रचार किया।

    एक बार घोर सर्दी पड़ रही थी। आप एक सभा में ब्रह्मचर्य पर उपदेश कर रहे थे। आप केवल लंगोट पहनते थे। उस समय सभी लोग गरम- गरम कपड़े पहने हुए भी सरदी से ठिठुर रहे थे। किसी ने कहा कि ब्रह्मचर्य का कोई नमूना दिखाइए। आपने इतने बल से अपने दोनों अँगूठों को जांघों पर दबाया कि शरीर से टप- टप पसीने की बूँदें गिरने लगीं। लोग दंग रह गए। ‘धन्य- धन्य’ की पुकार से आकाश गूँज उठा।
        एक बार एक राजा ने भी महर्षि दयानन्द से ब्रह्मचर्य का कोई चमत्कार दिखाने के लिए प्रार्थना की। एक बार वही राजा अपनी छः घोड़ों की बग्घी में कहीं जाना चाहते थे कि बाल- ब्रह्मचारी दयानन्द ने एक हाथ से बग्घी के पहिये को पकड़ लिया। कोच- वान घोड़ों पर लगातार चाबुक मार रहा है, पर घोड़ें एक अंगुल भी आगे नहीं जा पाये। हैरान होकर राजा ने पीछे मुड़कर देखा कि महर्षि दयानन्द गाड़ी को थामे हैं। राजा ने उतरकर आपके चरण पकड़ लिये।
        धर्म- प्रचार करने में और अपने बिछुड़े भाइयों को जो यवन और ईसाई बन गए थे। अपने में शुद्ध करके मिला लेने के कारण कई लोग आपके शत्रु हो गए। आप राजपूताना के राजाओं में धर्म का बीज बो रहे थे। आप चाहते थे कि सब राजा आपस में प्रेमसूत्र में बँधकर संगठित होकर देश से विदेशी शासन को उखाड़ फेंकें और देश स्वतंत्र हो।
          जब आप जोधपुर पधारे तो आपको दूध में विष मिलाकर तथा शीशा पीसकर दिया गया, जिसने आपकी नस- नस को काट डाला। एक मास बाद दीपावली की सायंकाल को आपने नाई को बुलाकर बाल बनवाए, स्नान किया और साफ वस्त्र पहनकर आसन लगाकर बैठ गए। प्रभु को धन्यवाद किया और तीन बार कहा कि ऐ प्रभु! तूने अच्छी लीला की। फिर ब्रह्मरन्ध्र (सिर के ऊपरी भाग) से अपने प्राण निकाल दिए।
मृत्यु के समय आपके पास नास्तिक गुरुदत्त बैठे हुए थे। जो संस्कृत, अंग्रेजी के महान् विद्वान थे। इस दृश्य को देखते ही इन्हें प्रभु में विश्वास हो गया और ये आजन्म वैदिक धर्म का प्रचार ही करते रहे।
        प्यारे बालको! इस प्रकार महर्षि दयानन्द ने सच्चे शिव को ढूँढ़ा और मृत्यु को जीतकर अपने जीवन का लक्ष्य पूरा किया। साथ ही भूले- भटके संसार को भी सच्ची राह बताई। जब तक जिये, दूसरों के भले के लिए ही जिये और अपना शरीर भी समाज की भेंट चढ़ा गये।
७. सत्य के पुजारी महात्मा गांधी
       आज से सौ वर्ष पहले आश्विन् वदि 12, संवत् 1925 को पोरबन्दर (गुजरात प्रान्त) में एक सम्मानित परिवार में महात्मा गांधी जी का जन्म हुआ। इनका नाम मोहनदास करमचन्द गांधी रखा गया। गुजरात में नाम रखने की रीति ऐसी है कि आगे पुत्र का नाम, पीछे पिता का नाम और अन्त में जाति का नाम होता है। ये अपने परिवार में सबसे छोटे और सबसे अधिक स्वस्थ और सुन्दर थे।
        इनके पिता पोरबन्दर से राजकोट में जा बसे। वहीं पर सात वर्ष की आयु में इन्हें पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा गया। जब हाईस्कूल के प्रथम वर्ष की परीक्षा का समय आया तो इंस्पेक्टर साहब परीक्षा लेने के लिए आये। स्कूल सजाया गया और अगले दिन सब बालक अच्छे- अच्छे कपड़े पहनकर स्कूल में आये।
        गांधी जी की कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पाँच शब्द लिखवाये गये। चार शब्द तो सबने ठीक लिखे, पर पाँचवाँ शब्द बालक गांधी ने गलत लिखा। अध्यापक ने जब उसे गलत लिखते देखा तो इंस्पेक्टर महोदय की नजर बचाकर पाँव की ठोकर से उसे सावधान किया और इशारा किया कि अगले बालक की स्लेट पर से नकल कर ले। पर बालक गांधी के हृदय में ये संस्कार जमे थे कि नकल न करें, इसलिए उसने नकल न की। इस भूल पर उसे इंस्पेक्टर महोदय ने डाँटा और बाद में अन्य बालकों ने भी हँसी उड़ाई।
इंस्पेक्टर महोदय के जाने के बाद अध्यापक ने बालक गांधी को बुलाया और उससे पूछा कि मेरे संकेत करने पर भी तुमने नकल नहीं की और मेरा अपमान करवाया। इस पर बालक गांधी ने नम्रता से सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर कहा कि मास्टर जी! यह तो ठीक है कि आपने मुझे नकल करने के लिए संकेत किया था, पर भगवान् तो सब जगह मौजूद हैं, कोई स्थान उनसे खाली नहीं, इसलिए नकल कैसे करता? ऐसी सच्ची बात सुनकर अध्यापक को रोमांच हो आया। उसने बालक को पास बुलाया और आशीर्वाद दिया कि एक दिन संसार में तुम्हारा नाम खूब चमकेगा।

  एक बार इनके पिता ‘श्रवण कुमार’ नामक नाटक की पुस्तक लाये। इसे इन्होंने बड़े चाव और प्रेम से पढ़ा। उन्हीं दिनों शीशे में तस्वीर दिखाने वाले भी आया करते थे। उनमें यह दृश्य देखा कि श्रवण कुमार माता- पिता की बहंगी (काँवड़) उठाए तीर्थ यात्रा कर रहा है। अब तो बालक गांधी ने श्रवण कुमार की तरह माता- पिता की सेवा करने की मन में ठान ली। उन्होंने माता- पिता की आज्ञा- पालन में ही शेष जीवन बिताया।
एक बार ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक में सत्य के लिए कठोर विपत्तियाँ सहते देख इनको रुलाई आ गई और जीवन- भर इन्होंने सत्य बोलने का व्रत लिया।
       बचपन में ही महात्मा जी अपने सभी कार्य अपने हाथों करते। कपड़े भी अपने हाथ से ही धोते थे। आपकी देखादेखी आपके साथी भी ऐसा ही करते थे। जब बैरिस्टर बनकर अफ्रीका गये तो प्रतिदिन एक कोढ़ी को घर ला, उसकी अपने हाथ से सेवा करते थे।
सन् 1942 में आपने कांग्रेस में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव स्वीकार कराया, जो आपके सत्य और अहिंसा का जीता- जागता प्रमाण है। अंग्रेज भारत छोड़ने पर मजबूर हुए और देश स्वतंत्र हुआ। इनके त्याग बलिदानों के लिये ही आज संपूर्ण राष्ट्र इन्हें राष्ट्रपिता, महात्मा गांधी के नाम से पूजता है।
८. राष्ट्र भक्त नेताजी
      आज से पचहत्तर वर्ष पहले उड़ीसा प्रान्त के कटक नामक नगर में एक प्रतिष्ठित परिवार में नेताजी का जन्म हुआ। बालक का नाम सुभाषचन्द्र बोस रखा गया। आप सब आठ भाई और छः बहिन थे। आप सबसे छोटे थे।
    पाँच वर्ष की आयु में आपको एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया। उस समय भारतवर्ष में अंग्रेजों का राज्य था। अंग्रेज बात- बात में भारतीयों का अपमान करते थे। इसी तरह इस स्कूल में भी बंगाली छात्रों का अपमान किया जाता। जब यह सब उस होनहार बालक ने देखा, तो उसे बिल्कुल अच्छा न लगा। उसको यह जानकर बड़ा दुःख हुआ कि कोई भी भारतीय छात्र उनका विरोध करने का साहस नहीं करता और चुपचाप सब कुछ सहन किए जाता है। अब तो हमारे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, जो उस समय बालक थे, बदला लेने पर उतारू हो गये।
      एक बार सब विद्यार्थी खेल रहे थे कि उनमें से एक अंग्रेज विद्यार्थी बोला कि भारतीय बहुत नीच होते हैं। इस पर दूसरा अंग्रेज छात्र बोला- मैं इन्हें जहाँ देखता हूँ, ठोकर मार देता हूँ। यह सुनकर सभी भारतीय बालक तिलमिला उठे, पर वे एक- दूसरे की ओर देखने लगे। अब सुभाष बोस से न रहा गया और एकदम उन अंग्रेज लड़कों के सामने जाकर क्रोध से बोले- मैं भारतीय हूँ, बोलो, क्या कहते हो? बालक सुभाष का यह रूप देखकर अंग्रेज बालकों के होश उड़ गए और वे अपराधी की तरह कुछ नहीं बोले, तब हमारे नेताजी सुभाष बोस उनकी ओर बढ़े और बोले- भारतीय नीच होते हैं? ऐसा कहकर उन दोनों को ठोकर से भूमि पर गिरा दिया।
       अब तो सारा स्कूल थर्रा उठा। भारतीय लड़कों की प्रसन्नता का पार न रहा। ‘सुभाष बोस जिन्दाबाद और अंग्रेज मुर्दाबाद’ के नारों से आकाश गूँज उठा। मुख्याध्यापक ने सुना तो घबरा गये, पर समय देखकर चुप रह गये।
       अब आप सुनें, इनका सेवा- भाव। जब इनकी आयु बारह वर्ष की हुई, तो एक बार नगर में हैजे का रोग खूब फैल रहा था और लोग धड़ाधड़ मर रहे थे। इन्होंने अपने साथियों की एक टोली बनाई और नगर की निर्धन बस्ती में जाकर लोगों की सेवा करने लगे। इन बालकों ने सेवा में दिन- रात एक कर दिया। अपने पास से औषधि देते और कहानियाँ सुनाकर उन्हें प्रसन्न रखते।
      संसार में सभी प्रकार के लोग होते हैं। इस बस्ती में कुछ लोगों ने इनका विरोध किया ओर कहा कि ये धनी लोगों के बालक हमारा अपमान करने आते हैं। पर इन बालकों ने किसी बात की ओर ध्यान न दिया और सेवा करते रहे। इस बस्ती का सबसे बड़ा गुंडा और इनका विरोधी हैदर खां था। यह कई बार जेल जा चुका था। प्रभु की लीला, इसका घर भी इस भयंकर रोग से न बच सका। इसने बहुत से हाथ- पाँव मारे कि कोई डाक्टर या वैद्य मिल जाए, पर कोई प्रबन्ध न हुआ! अन्त में निराश होकर माथे पर हाथ धरकर भाग्य को कोसने लगा। इतने में क्या देखता है कि उन्हीं सेवाव्रती बालकों का झुंड उसके टूटे- फूटे मकान में घुसकर रोगियों की सेवा में जुट गया। मकान को साफ किया गया, रोगियों को औषधि दी गई और उनकी उचित सेवा की गई।
     इन बालकों ने कई दिन तक उस परिवार की सेवा की और अन्त में प्रभु की कृपा से घर के सब प्राणी निरोग हो गए। अब तो उस नामी गुुंडे को भी रुलाई आ गई और उसने हाथ जोड़कर उन बालकों से क्षमा माँगी और बोला- मैं कितना पापी हूँ! मैंने आपका जी भरकर विरोध किया, पर आपने उल्टा मेरे परिवार को जीवन- दान दिया। उसका मुँह आँसुओं से भीग गया। यह देखकर उस दल के मुखिया बालक सुभाष ने कहा- तुम इतने दुःखी क्यों होते हो, तुम्हारा घर गन्दा होने से ही रोग घर में आ गया और इसी कारण यह कष्ट उठाना पड़ा।
हैदर खाँ बोला- नहीं, मेरा मन और घर दोनों गन्दे थे, आपकी सेवा ने दोनों का ही मैल साफ कर दिया। आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भूल सकता। भगवान् आपका भला करे!
बड़े होने पर आपने आई.सी.एस. परीक्षा पास करने पर भी अंग्रेजों की नौकरी करना स्वीकार नहीं किया। आई.सी.एस उस परीक्षा का नाम है, जिसमें पास होने पर डिप्टी कमिश्नर आदि बड़े- बड़े पद प्राप्त होते हैं। आप आयु- भर देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़े। आपकी आयु का बहुत बड़ा भाग जेल में बीता और इसी कारण आप बीमार रहने लगे।

 आपने कुछ समय बाद देश से बाहर जाकर आजाद हिन्द फौज बनाई और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में आप सफल न हुए, युद्ध में ही आप लापता हो गए और फिर कभी आपकी कोई खबर नहीं मिली। परन्तु बाद में भारतीय जल और थल सेनाओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। फिर कोई चारा न देखकर 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों ने भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दे दी। यह है उस महान् पुरुष के त्याग और तपस्या का फल, जिसका नाम लेते ही भारत के बच्चे- बच्चे की आँखों में आँसू आ जाते हैं। ‘नेताजी’ को आज भी भारत का प्रत्येक नर- नारी श्रद्धा के फूल अर्पित करता है।
९. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
        आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले संवत् १८६७ में बंगाल प्रान्त में कलकत्ता के पास वीरसिंह नामक ग्राम में आपका जन्म हुआ। आपके पिता का नाम ठाकुरदास और माता का नाम भगवती देवी था। आपके पिता बहुत निर्धन थे। ईश्वरचन्द्र के जन्म के समय वे कलकत्ता में नौकरी करते थे और केवल आठ रुपये मासिक वेतन पाते थे।
      जब आपको पढ़ने के लिए गाँव के विद्यालय में भेजा गया, तब आप पाँच वर्ष के थे। नौ वर्ष की आयु में आप अपने पिता के पास कलकत्ता में पढ़ने के लिए चले गये। भर- पेट भोजन न मिलने पर भी आप इतना परिश्रम करते थे कि हर कक्षा में सदा प्रथम रहा करते थे। इसी कारण से आपको बचपन से ही छात्रवृत्ति मिलनी शुरू हो गई। जो धन आपको छात्रवृत्ति से मिलता था, उससे आप दूसरे गरीब छात्रों की सदा सहायता करते रहे। उनके रोगी होने पर उन्हें औषधि भी अपने पास से देते थे। स्वयं तो घर के कते हुए सूत से बने हुए कपड़े पहनते थे, परन्तु दूसरे गरीब छात्रों को अपने से अच्छे कपड़े खरीद देते थे। बालकों की कौन कहे, बड़ों में भी इतना त्याग नहीं मिलता। दूसरों के लिए ईश्वरचन्द्र जी सदा अपने कष्टों को भूल जाया करते। एक ओर पेट भर भोजन न मिलना और दूसरी ओर अपने और अपने पिता के लिए भोजन बनाना और जिस पर सदा गरीब बालकों की सहायता करना और फिर अपनी कक्षा में सदा प्रथम आना।
        इतना अधिक परिश्रम करने के कारण आप कई बार रोगी हो जाते थे, परन्तु अपनी पढ़ाई में कभी ढील न आने देते। आप कहा करते थे कि माता- पिता की पूजा छोड़कर या उनके दुःखों और कष्टों पर ध्यान न देकर भगवान् की पूजा करने से कोई लाभ नहीं होता। जिन्होंने स्वयं दुःख और कष्ट सहकर हमें पाला और पोसा है, वे ही हमारे परम देवता है। आप जब तक जिये, अपने माता- पिता की इच्छा के विरुद्ध कभी कोई काम नहीं किया। इक्कीस वर्ष की आयु में आपको ‘विद्यासागर’ की उपाधि मिली और संस्कृत के महान् पंडित बनकर निकले।
        आपने सबसे पहले तीस रुपये मासिक वेतन पर फोर्ट विलियम कालेज में नौकरी की। जिस दिन से आपने नौकरी शुरू की, पिताजी को नौकरी छुड़वा दी और उन्हें गाँव भिजवा दिया।
      आपके छोटे भाई का विवाह होना था, माता ने बुला भेजा। आपको छुट्टी नहीं मिली। आपने प्रिंसिपल महोदय से साफ- साफ कह दिया कि या तो छुट्टी दीजिए या त्याग- पत्र लीजिए। आपकी मातृ- भक्ति देखकर प्रिंसिपल महोदय ने प्रसन्न होकर छुट्टी दे दी। आप उसी समय एक नौकर को साथ लेकर चल दिये।
       बरसात के कारण रास्ता खराब हो गया था। आप बहुत तेज चलते थे और थकते नहीं थे, पर नौकर नहीं चल सका, इसलिए उसे लौटा दिया। दूसरे दिन ही विवाह था। आप बड़ी तेज चाल से चले और दामोदर नदी के तट पर पहुँचे। देखा नाव दूर थी, आने में देर लगेगी। आप एकदम नदी में कूद पड़े और बड़ी कठिनाई से पार पहुँचे। बिना कुछ खाए- पिए आप सनसनाते हुए घर की ओर चल दिए। मार्ग में एक और नदी मिली, उसे भी तैरकर पार किया। चलते- चलते शाम हो गई, चोरों का बड़ा डर था। परन्तु आपको तो माता के चरण- कमलों में पहँचना था। आप अपनी धुन में चलते ही गये और आधी रात को घर पहुँचे। बरात जा चुकी थी। पर ज्यों ही पुत्र की आवाज सुनी, माँ प्रसन्नता से खिल उठी। माता की आज्ञा का पालन करके ही आपने अन्न- जल ग्रहण किया।
       कुछ समय बाद आपका वेतन डेढ़ सौ रुपया मासिक हो गया। आप गरीब रोगियों को होम्योपैथिक औषधियाँ बाँटा करते थे। एक बार एक मेहतर रोता हुआ आपके पास आया और बोला मेहतरानी को हैजा हो गया है, आप कृपा करें। आप उसके घर गये। दिन भर वहीं रहकर इलाज किया और सायंकाल रोगी को ठीक करके ही घर आये। जिस तरह सूर्य, चाँद, वर्षा और वायु ऊँच- नीच का विचार किए बिना सबको एक- सा फल देते है, उसी तरह ईश्वर चन्द्र विद्यासागर भी सबके साथ एक- सा बर्ताव करते थे।
       कुछ समय बाद आपका वेतन पाँच सौ रुपया मासिक हो गया। परन्तु नौकरी में आत्म- सम्मान को बहुत ठेस लगती थी, इसलिए नौकरी छोड़कर देश- सेवा में लग गये। आप कहते थे- दूसरे के पैर चाटते- चाटते यह जाति भीरु बन गई है। जब लोग नौकरी करना पसन्द नहीं करेंगे, तभी देश का कल्याण होगा। अब आप पुस्तकें लिखने लगे और अपना प्रेस खोलकर पुस्तकें छपाकर बेचने लगे।
      एक बार आप रेल में सवार होकर एक स्थान पर भाषण देने जा रहे थे। एक छोटे- से स्टेशन पर आपको उतरना था। ज्यों ही गाड़ी उस स्टेशन पर पहुँची, आपने देखा कि नवयुवक ‘कुली- कुली’ पुकार रहा है। वहाँ कोई कुली था ही नहीं। आप नवयुवक के पास गए और उसका सामान अपने सिर पर उठा लिया और उसके घर पहुँचा दिया। वह आपको कुछ पैसे देने लगा। आपने कहा- मुझे भी यहीं आना था, तुम्हारा सामान उठा लिया तो क्या हुआ!
शाम के समय ईश्वरचन्द्र जी का भाषण हुआ, जिसे सुनने नवयुवक भी गया। उसने आपको झट पहचान लिया और पाँव में गिरकर फूट- फूटकर रोने लगा। आपने उसे प्रेम से गले लगाया और समझाया कि सदा अपना काम अपने हाथ से किया करो।
        एक बार प्रातःकाल आप घूमने जा रहे थे। आपने देखा कि एक आदमी रोता हुआ जा रहा है। आप उसके पास गये और प्रेम से उसके दुःख का कारण पूछा। इनको सादी वेश- भूषा में देखकर वह बोला कि मैं बड़े- बड़े धनवानों के पास गया, पर किसी ने मेरी सहायता न की, आप क्या कर सकेंगे? ईश्वरचन्द्र जी के बहुत विनय करने पर वह बोला- भाई! मेरे बाप- दादों की सम्पत्ति केवल एक घर ही है, वह आज नीलाम होगा, अब हम लोग कहाँ रहेंगे? आपने उसका पता पूछ लिया।
      अगले दिन आप कचहरी में गए और उसके नाम तेईस सौ रुपया जमा करा आए। उधर वह आदमी दिन- भर कचहरी वालों की राह देखता रहा। जब कोई न आया तो घबराकर वह कचहरी में गया। पता लगा कि कोई सज्जन तेईस सौ रुपया जमा कर गये हैं। वह सोचने लगा कि हो न हो, यह काम उन्हीं सज्जन का है, जो मुझे प्रातःकाल मिले थे। वह आपको ढूँढ़ने लगा।

  एक दिन प्रातःकाल वायु- सेवन को जाते समय उसने आपको पहचान ही लिया और दोनों हाथ जोड़कर बोला- आपने मुझे बचा लिय है, मेरा बड़ा उपकार किया है। इस पर आपने उत्तर दिया -तुम्हें उपकारी की भलाई का बदला चुकाना चाहिए, इसलिए मैं तुमसे यह चाहता हूँ कि इस बात को किसी से भी मत कहना। वह आपका त्याग देखकर हैरान रह गया।
बड़े- बड़े लॉट और गवर्नर आपके विचारें का बड़ा आदर करते थे। बड़े- बड़े अंग्रेज पदाधिकारियों को आप सदा अपनी वेश- भूषा में ही मिलते। आप सदा चादर और खड़ाऊँ पहनते। आपने बंगाल में संस्कृत भाषा का बहुत प्रचार किया, सैकड़ों पाठशालाएँ खुलवाईं और उन्हें सरकारी सहायता दिलाई। आप सारी आयुभर विधवा- विवाह और कन्याओं में शिक्षा- प्रचार के लिए लड़ते रहे।
      ये हैं, उस महापुरुष के जीवन की कुछ घटनाएँ जो एक निर्धन परिवार में जन्में और जब तक जिये दूसरों के लिए जिये। आप सदा कठिनाई में रहकर भी दुखियों की सहायता करते रहे।
१०. परमयोगिनी मुक्ताबाई
जो लोहेको सोना कर दे, वह पारस है कच्चा।
जो लोहेको पारस कर दे, वह पारस है सच्चा॥
    महाराष्ट्र में समर्थ रामदास स्वामी, श्री एकनाथजी, नामदेवजी ऐसे ही संत हुए। एक परिवार का परिवार वहाँ संतों की सर्वश्रेष्ठ गणना में है और वह परिवार है श्रीनिवृत्तिनाथ जी का। निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर, सोपानदेव और इनकी छोटी बहिन मुक्ताबाई- सब के सब जन्म से सिद्ध योगी, परमज्ञानी, परमविरक्त एवं सच्चे भगवद्भक्त थे। जन्म से ही सब महापुरुष। आजन्म ब्रह्मचारी रहकर जीवों के उद्धार के लिये ही दिव्यजगत् से इस मूर्ति चतुष्टय का धरा पर अविर्भाव हुआ।
       ‘नाम और रूप की पृथक- पृथक कल्पना मिथ्या है। सब नाम विट्ठल के ही नाम हैं। सब रूप उसी पण्ढरपुर में कमर पर हाथ रखकर ईंट पर खड़े रहने वाले खिलाड़ी ने रख छोड़े हैं। उन पाण्डुरंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।’ बड़े भाई निवृत्तिराथ ही सबके गुरु थे। उन्होंने ही छोटे भाईयों और बहिन को यह उपदेश दिया था।
‘विठोबा बड़े अच्छे हैं।’ बारह वर्ष की बालिका मुक्ता बाई कभी- कभी बड़ी प्रसन्न होती। किसी सुन्दर पुष्प को लेकर वह तन्मय हो जाती। ‘इतना मृदुल, इतना सुरभित, इतना सुन्दर रूप बनाया है, उन्होंने।’ अपने बड़े भाई के उपदेश को हृदय से उसने ग्रहण कर लिया था।
‘बड़े नटखट हैं पाण्डुरंग।’ कभी वह झल्ला उठती, जब हाथों में काँटा चुभ जाता। ‘काँटा, कंकड़ ,, पत्थर- जाने इन रूपों के धारण में उन्हें क्या आनन्द आता है। अपने हाथों के दर्द पर उसका ध्यान कम ही जाता था।’
      ‘छिः, छिः, विठोबा बड़े गंदे हैं।’ एक दिन उसने अपने बड़े भाई को दिखाया। ‘दादा! देखो न, इस गंदी नाली में कीड़े बने बिलबिला रहे हैं! राम! राम!’ उसके दादा ने उसे डाँट दिया। यह डाँटना व्यर्थ था। उस शुद्ध हृदय में मनन चल रहा था। पशु- पक्षी, स्थावर- जङ्गमं एक व्यापक सर्वेश को देखने की साधना थी यह।
    ‘दादा! आज दीपावली है। ज्ञान और सोपान दादा भिक्षा में सभी कुछ ले आये हैं। क्या बनाऊँ, भिक्षा में आटा, दाल, बेसन, घी, शाक देखकर बालिका अत्यन्त प्रसन्न हो गयी थी। अपने बड़े भाई की वह कुछ सेवा कर सके, इससे बड़ा आनंद उसने दूसरा कभी समझा ही नहीं था।’
     ‘मेरा मन चील्हा खाने का होता है।’ निवृत्तिनाथ ने साधारण भाव से कह दिया।
‘नमकीन भी बनाऊँगी और मीठे भी।’ बड़ी प्रसन्नता से उछलती- कूदती वह चली गयी। परन्तु घर में तवा तो है ही नहीं। बर्तन तो विसोबा चाटी ने कल रात्रि में सब चोरी करा दिये। बिना तवे के चील्हे किस प्रकार बनेंगे। जल्दी से मिट्टी का तवा लाने वह कुम्हारों के घर की ओर चल पड़ी। मार्ग में ही विसोबा से भेंट हो गयी। ईर्ष्यालु ब्राह्मण के पूछने पर मुक्ताबाई ने ठीक- ठीक बता दिया।
        माँगेंगे भीख और जीभ इतनी चलती है। विसोबा साथ लग गया। उसने कुम्हारों को मना कर दिया ‘जो इस संयासी की लड़की को तवा देगा, उसे मैं जाति से बाहर करा दूँगा।’
विवश होकर मुक्ताबाई को लौटना पड़ा। उसका मुख उदास हो रहा था। घर पहुँचते ही ज्ञानेश्वर ने उसकी उदासी का कारण पूछा। बालिका ने सारा हाल सुना दिया।
‘पगली, रोती क्यों है! तुझे चील्हे बनाने हैं या तवे का अचार डालना है?’ बहिन को समझाकर ज्ञानेश्वर नंगी पीठ करके बैठ गये। उन योगिराज ने प्राणों का संयम करके शरीर में अग्नि की भावना की पीठ तप्त तवे की भाँति लाल हो गयी। ‘ले; जितने चील्हे सेंकने हो, इस पर सेंक ले।’
       मुक्ताबाई स्वयं परमयोगिनी थीं। भाइयों की शक्ति उनसे अविदित नहीं थी। उन्होंने बहुत से मीठे और नमकीन चील्हे बना लिये। ‘दादा! अपने तवे को अब शीतल कर लो!’ सब बनाकर उन्होंने भाई से कहा। ज्ञानेश्वर ने अग्निधारण का उपसंहार किया।
‘मुक्ति ने निर्मित किये और ज्ञान की अग्नि में सेंके गये! चील्हों के स्वाद का क्या पूछना।’ निवृत्तिनाथ, भोजन करते हुए भोजन की प्रशंसा कर रहे थे। इतने में एक बड़ा- सा काला कुत्ता आया और अवशेष चील्हे मुख में भरकर भागने लगा। तीनों भाई साथ ही बैठे थे। उनका भोजन प्रायः समाप्त हो चुका था। निवृत्तिनाथ ने कहा- ‘मुक्ता! जल्दी से कुत्ते को मार, सब चील्हे ले जायेगा तो तू ही भूखी रहेगी!’
‘मारूँ किसे? विट्ठल ही तो कुत्ता भी बन गये हैं!’ मुक्ताबाई ने बड़ी निश्चिन्तता से कहा। उन्होंने कुत्ते की ओर देखा तक नहीं।
तीनों भाई हँस पड़े। ज्ञानेश्वर ने पूछा- ‘कुत्ता तो विट्ठल बन गये हैं और विसोबाचाटी?’‘वे भी विट्ठल ही हैं!’ मुक्ता का स्वर ज्यों का त्यों था।
विसोबा चाटी मुक्ता के साथ ही कुम्हार के घर से पीछा करता आया था। वह देखना चाहता था कि तवा न मिलने पर ये सब क्या करते हैं? ज्ञानेश्वर की पीठ पर चील्हे बनते देख उसे बड़ी जलन हुई। जाकर कुत्ते को वही पकड़ लाया था। मुक्ता के शब्दों ने उसके हृदय बाण की भाँति आघात किया। वह जहाँ छिपा था वहाँ से बाहर निकल कर मुक्ताबाई से बोला, ‘‘मैं महा- अधम हूँ। मैंने आप लोगों को कष्ट देने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। आप दयामय हैं, साक्षात् विट्ठल के स्वरूप हैं। मुझ पामर को क्षमा करें। मेरा उद्धार करें, मुझे अपने चरणों में स्थान दें।’’
     कई दिनों तक विसोबा ने बड़ा आग्रह किया। उसके पश्चात्ताप एवं हठ को देखकर निवृत्तिनाथ ने मुक्ताबाई को उसे दीक्षा देने का आदेश दिया। मुक्ताबाई ने उसे दीक्षा दी। मुक्ताबाई की कृपा से विसोबा चाटी जैसा ईष्यालु ब्राह्मण प्रसिद्ध महात्मा विसोबा खेचर हो गया। उसने योग के द्वारा समाधि अवस्था प्राप्त की। महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध महात्मा नामदेव जी इन्हीं विसोबा खेचर के शिष्य हुए हैं।




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