१. माता- पिता का आदर करो
सरस्वती का चित्र दिखाकर प्रशिक्षक बालकों से पूछता है, ‘‘यह कौन है?’’
बालक- ‘‘यह देवी सरस्वती है!’’
प्रशिक्षक- ‘‘यह क्या देती है?’’
बालक- ‘‘ज्ञान तथा विद्या देती है।’’
प्रशिक्षक- लक्ष्मी जी का चित्र दिखाकर पूछता है- ‘‘यह कौन है?’’
बालक- ‘‘लक्ष्मी जी हैं।’’
प्रशिक्षक- ‘‘यह क्या देती हैं?’’
बालक- ‘‘धन हैं।’’
प्रशिक्षक- ‘‘क्या आपने कभी लक्ष्मी जी को धन देते हुए और सरस्वती को विद्या देते हुए देखा है?’’
बालक- नहीं
प्रशिक्षक- आपको पैसे कौन देता है? आपके कपड़ों के लिए, पुस्तकों के लिए, विद्यालय शुल्क के लिए कौन पैसे देता है?
(ऐसे प्रश्न वह अलग- अलग बालकों से पूछता है।)
बालक- हमारे पिताजी।
प्रशिक्षक- आपको विद्या कौन देता है? आपको भाषा का ज्ञान किसने
दिया? आपको संसार की समस्त वस्तुओं का परिचय किसने करवाया?
बालक- हमारी माँ ने।
प्रशिक्षक- फिर लक्ष्मी हमें धन देती है और सरस्वती हमें ज्ञान
देती है, इस कल्पना से ही हम इन देवताओं को प्रणाम करते है और
वास्तव में हमें जो धन और ज्ञान देते हैं उन माता- पिता को
प्रणाम करना हम भूल जाते हैं। कौन- कौन अपने अभिभावकों को प्रणाम
करेगा? हाथ उठाओ। मैं कहता हूँ, इसलिए हाथ मत उठाना। सभी बालक हाथ
उठाते हैं। माता- पिता के श्रेष्ठत्व की कहानियाँ सुनाकर इस बात का वचन लिया जाता है।
२. उत्तम आरोग्य का महत्त्व
(अ) दाँत नित्य साफ करें।
प्रशिक्षक बालकों को नकली दाँत दिखाते हुए पूछता है- यह क्या है?
बालक- ये नकली दाँत हैं।
प्रशिक्षक- क्या आप मुझे अपने दाँत देंगे? उनके बदले में मैं तुम्हें पाँच हजार रूपये
और साथ- साथ में सुन्दर नकली दाँत भी दूँगा। जो बालक इस बात
के लिए तैयार हैं, वे हाथ ऊपर करें। (कोई भी बालक हाथ ऊपर नहीं
उठाता)
प्रशिक्षक- ‘‘हमारे
शरीर में परमात्मा ने ऐसे कई यंत्रों की रचना की है, जिनको
किसी भी मूल्य पर हम नहीं बेचेंगे- जैसे आँख- कैमरा, मस्तिष्क-
कम्प्यूटर, हाथ- क्रेन, पाँव- गाड़ी, पेट- भट्टी, हृदय- पंपिंग स्टेशन, किडनी रिफायनेरी
आदि। लेकिन हम जितनी सतर्कता अपने घर के प्रति रखते हैं, उतनी
अपने शरीर के अनमोल यन्त्रों के लिए नहीं रखते। इनकी स्वच्छता,
इनको सुचारू रूप से रखने के लिए आवश्यक व्यायाम आदि की ओर हम ध्यान नहीं देते।’’
आपको इस बारे में बड़ी रोचक घटना सुनाता हूँ। एक बार दाँत का रोगी डेंटिस्ट
के पास गया। डॉक्टर ने उसके कई दाँत बीस- बीस रुपये लेकर निकाल
दिये। और दो- दो हजार रुपयों में उसे नकली दाँत बनाकर दिए। उसे
समझाया कि दाँतों को नित्य सुबह- शाम साफ करना- रात को पानी में
डुबोकर रखना, बच्चों की पहुँच से दूर रखना, आदि- आदि। उसने सभी
बातों पर सिर हिलाकर स्वीकृति दी। डॉक्टर साहब ने पूछा- ‘‘पहले वाले दाँतो को सम्भालकर क्यों नहीं रखा? मरीज ने कहा- ‘‘पहले वाले दाँत मुफ्त के थे, उनका पैसा नहीं लगा था।’’ हमें अपने शरीर के किसी भाग को मुफ्त का नहीं समझना चाहिए।
फिर प्रशिक्षक बालकों को आलू दिखाते हुए पूछता है ‘‘यह क्या है और क्या काम आता है?’’
बालक- ‘‘यह आलू है.....इसकी सब्जी खाने के काम आती है।’’
प्रशिक्षक- ‘‘क्या आप आज की बनी सब्जी कल खा सकते हो?’’
बालक- ‘‘नहीं।’’
प्रशिक्षक- ‘‘क्यों?’’
बालक- ‘‘इसमें बद्बू आएगी।’’
प्रशिक्षक- ‘‘यदि चार दिनों तक वह सब्जी पड़ी रहे तो क्या होगा?’’
बालक- ‘‘उस में कीड़े पड़ जाएँगे।’’
प्रशिक्षक- ‘‘हमारे दाँत में छेद है। हमने सब्जी खाई और चार दिन दाँत साफ नहीं किए तो क्या होगा?’’
बालक- ‘‘हमारे मुँह से दुर्गन्ध आएगी और कीड़े पड़ जाएँगे।’’
प्रशिक्षक- ‘‘अतः हमें नित्य दाँत साफ करने चाहिए।’’
(ब) सफाई का महत्व
प्रशिक्षक- ‘‘आपने अपना पेट भीतर से नहीं देखा होगा? मैं आपको दिखा रहा हूँ। (एक पानी से भरी तेल की शीशी दिखाते हुये।)
देखो हमने आपके कपड़े उतार दिए- चमड़ी उतार दी- अब आपको अपना पेट
दिखाई दे रहा है। कई बालक दाँत साफ नहीं करते। कई बालक बाजार
की चीजें, मीठी सुपारी, पानमसाला खाते हैं। अब देखो इस बात का शरीर पर क्या असर होता है’’- (यह कहकर नीले रंग के दाने या स्याही शीशी में डालता है- शीशी में धीरे- धीरे वे कण फैले हुए दिखाई देते हैं।)
प्रशिक्षक- ‘‘यदि मुँह की सफाई ठीक से नहीं होती है तो क्या होता है, यह आपने देखा। ऐसे ही अपने विविध अंगो की सफाई यदि ठीक से नहीं होती है तो यह बहुमूल्य शरीर रोग ग्रस्त हो जाएगा। और आपका भविष्य चौपट हो जायेगा।’’
३. देश- कार्य महत्त्वपूर्ण
प्रशिक्षक बालकों से महाराणा प्रताप का चित्र दिखाते हुए पूछता है ‘‘यह कौन है?’’
सभी बालक एक साथ उत्तर देते हैं, यह महाराणा प्रताप का चित्र है।
प्रशिक्षक- यह एक बहुत बड़े राजा थे। इनका एक घोड़ा था। बड़ा ही स्वामीभक्त था...... क्या नाम था उसका? सभी बालक एक साथ बोलते हें ‘‘चेतक!’’
प्रशिक्षक- ‘‘बिल्कुल सही उत्तर दिया। कितने मेधावी हैं आप! आपको ४५० वर्ष पहले के घोड़े का नाम भी याद है। अब आप बताइए कि आपके घर में १००वर्ष पहले किसका जन्म हुआ था?’’ आपके परदादाजी के पिताजी का नाम आपको बताना है। सभी बालक एक दूसरे का मुँह ताकते हैं।
प्रशिक्षक- ‘‘जिन्होंने
आपके लिए कष्ट सहा, जिन्होंने आपके लिए मकान बनाया, जिन्होंने
आपके लिए दुकान बनाई, जिन्होंने आपके लिए पेड़ लगाए और सोचा कि
मेरे पोता- पोती इनके फल चखेंगे
और मुझे याद करेंगे, उनका नाम आप भूल गए। ऐसा क्यों हुआ? लोग
उसी को याद करते हैं जो औरों के लिए भी कुछ करते हैं। केवल
परिवार के लिए करने वालों को कोई याद नहीं करता।’’
प्रशिक्षक- ‘‘बताओ महाराणा प्रताप और चेतक को आप क्यों जानते हैं?’’
बालक- ‘‘उन्होंने देश हित के लिए कार्य किया- - इसलिए!’’
प्रशिक्षक- ‘‘हम
अपने पूर्वजों को भूल गए इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने
राष्ट्र के लिए कुछ नहीं किया। अपने राष्ट्र से किसे प्रेम
नहीं होता? सच तो यह है कि हमारे पूर्वजों ने आने वाली पीढ़िओं
के लिए अपनी इच्छाएँ, सपने और आकांक्षाओं का बलिदान किया है।
इसलिए उनके प्रति हमारे मन में आदर भाव होना चाहिए। परन्तु इसके
साथ- साथ हम उन्हें क्यों भूल गए, इसका कारण भी हमें ज्ञात होना
चाहिए। केवल अपनों के लिए जो जीवन समर्पित करते हैं, उनका समाज
को विस्मरण हो जाता है और जो अपनों के साथ- साथ राष्ट्र कार्य
में हाथ बँटाते हैं, उन्हें समाज याद रखता है। आप क्या चाहते
हैं? आप को समाज याद रखे या भूल जाए।’’
बालक- ‘‘समाज याद रखे।’’
प्रशिक्षक- ‘‘तो फिर देश के लिये आप क्या काम करेंगे? इस प्रश्न का उत्तर बालक यथामति देते हैं। उनके उत्तरों का तालियाँ बजाकर स्वागत- अभिनंदन करें।’’
४. सावधान! आपके प्रत्येक काम पर समाज की दृष्टि है
प्रशिक्षक बालकों को एक बनावटी गुलाब का फूल दिखाता है। ‘‘यह क्या है?’’
बालक- ‘‘गुलाब का फूल।’’
प्रशिक्षक- ‘‘सच्चा है या बनावटी?’’
बालक- ‘‘बनावटी।’’
प्रशिक्षक- ‘‘अच्छा! एक टोकरी में मैं कुछ प्राकृतिक (सच्चे) फूल डाल दूँ और एक बनावटी, तो क्या तुम आँखे बन्द करके नकली फूल निकाल दोगे?’’
बालक- ‘‘हाँ।’’
किसी एक बालक को आगे बुलाकर उसकी आँख पर पट्टी बाँधकर नकली
फूल निकालने को कहा जाता है। बालक सहजता से फूल निकाल लेता है।
प्रशिक्षक- ‘‘आपने यह फूल कैसे निकाला।’’
बालक- ‘‘सूँघकर- छूकर।’’
प्रशिक्षक- ‘‘तो
इसका अर्थ यह हुआ कि पढ़- लिखकर तुम्हें अपना चाल- चलन और
व्यवहार सुधारना होगा। हम सोचते हैं कि किसी का हमारी ओर ध्यान
नहीं, कोई हमें देखता नहीं, समाज अन्धा है, इसलिए रास्ते से चलते
हुए कूड़ा फेंक दिया, पान खाकर रास्ते पर थूक दिया, किसी अन्धे-
अपंग व्यक्ति की अवहेलना की, तो कोई देखता नहीं, पर यह गलत धारणा
है। जैसे आपकी आँख बन्द होते हुए भी आपको सच्चा फूल कौन सा
और नकली फूल कौन सा है, इसका पता चल सकता है, वैसे ही समाज भी
पता लगाता है कि अच्छा बच्चा कौन सा है और बुरा बच्चा कौन सा! और यदि कोई नहीं भी देखता हो तो आपका अन्तर्मन इस बात को देख रहा होता है। अतः सावधान!’’
५. मीठे वचन बोलिए
(अ) प्रशिक्षक बालकों को खीरा दिखाकर पूछता है- ‘‘यह क्या है?’’
बालक- ‘‘खीरा!’’
प्रशिक्षक- ‘‘इसका उपयोग क्या है?’’
बालक- ‘‘यह खाने के काम आता है।’’
प्रशिक्षक- ‘‘यह कहाँ पर मिलता है?’’
बालक- ‘‘बाजार में।’’
प्रशिक्षक- ‘‘वैसे ही मिलता है या पैसे देकर?’’
बालक- ‘‘पैसे देकर।’’
प्रशिक्षक- ‘‘आपने पैसे देकर खीरा खरीदा, घर लाकर उसे धोया और काटकर उसका कड़वापन निकाला, नमक लगाया और खाने पर आप को पता चला कि यह कड़वा है तो आप क्या करते हैं?’’
बालक- ‘‘हम उसे फेंक देते हैं।’’
प्रशिक्षक- ‘‘यदि
पैसे खर्च करके लाया हुआ खीरा भी कड़वा निकला तो आप उसे फेंक
देते हैं, तो आपका मित्र जो आपकी कड़वी बातें मुफ्त में सुनता
है, आपकी कड़वी बातें- गाली आदि सुनकर उसे क्या करना चाहिए?
बालक- ‘‘कूड़ापात्र में फेंक देना चाहिए।’’
प्रशिक्षक- ‘‘क्या आप चाहते हैं कि आपको कोई इसी प्रकार कूड़ापात्र में फेंक दे? आप से दुर्व्यवहार करे?’’
बालक- ‘‘नहीं।’’
प्रशिक्षक- ‘‘तो आप को क्या करना चाहिए?’’
बालक- ‘‘सभी से मीठा बोलना चाहिए।’’
(ब) इस प्रात्यक्षिक में १०- ११
बालकों के दो गुट बनाकर आधे बालकों के हाथ में हवा भरे
गुब्बारे दिए जाते हैं और आधे बालकों के हाथ में एक- एक आलपिन (टाचनी) दी जाती है। बालकों से कहा जाता है कि १- २
कहने के पश्चात् जिनके हाथ में गुब्बारे हैं, उनको गुब्बारे
बचाने हैं और जिनके हाथ में आलपिन हैं, उनको उसका उपयोग करना
है। यह खेल कौन सी सीमा में खेलना है, यह पहले ही बताना आवश्यक
है, अन्यथा बच्चे सभागृह के बाहर भी भाग जाते हैं। १- २ कहने पर खेल आरम्भ होता है। सभी बच्चे एक दूसरे को झपटते हुए गुब्बारे फोड़ने का या हाथ उँचा करके उसे बचाने का प्रयास करते हैं। ५- ७ गुब्बारे फूटने पर बालकों को रोका जाता है। फिर से बालक अपने गुटों में खड़े हो जाते हैं और किसने कितने गुब्बारे फोड़े, इसकी गिनती की जाती है।
उसके पश्चात् प्रशिक्षक बालकों को अपने शब्द याद दिलाता है- ‘‘ आलपिन का उपयोग करना है!’’ और बालकों से पूछता है, ‘‘आपने आलपिन का उपयोग किया, या दुरुपयोग?’’
‘‘यदि दुरुपयोग किया है तो इसका उपयोग कैसे हो सकता था?’’
बालक फिर से प्रयास शुरु
करते हैं- कोई आलपिन अपनी कमीज को लगा देता है- कोई गुब्बारे
के ऊपरी भाग में आलपिन लगाकर उसे परदे पर या उचित स्थान पर
लगा देता है। यदि ऐसा करने में बालक असमर्थ दिखें तो प्रशिक्षक
उन्हें सहायता दें।
इसके बाद प्रशिक्षक इस प्रात्यक्षिक का अर्थ समझाता है।
‘‘हमें
गुब्बारा और आलपिन दिखाई देने पर आलपिन से गुब्बारे को फोड़ना,
यही विचार मन में आता है। विध्वंसक प्रवृत्तियाँ हमारे मन में
तुरन्त निर्मित होती हैं। आलपिन से उपयोगी काम भी किया जा सकता
है, यह बात हमारे मन में देरी से आती है। उसी प्रकार हम अपनी जिह्वारूपी
आलपिन से लोगों के मन के गुब्बारे फोड़ने का काम निरन्तर करते
रहते हैं। जब कि भगवान् ने होठों को धनुष का आकार देकर हमें
सूचित किया है कि इसके अन्दर से निकलने वाले शब्द बाण के समान
हैं- सावधानी बरतें!
जिह्वा का रंग लाल बनाकर, भगवान् ने इसके खतरे की ओर सूचित
किया है। पर इस बात को भूल कर हम जिह्वा का ठीक उपयोग नहीं
करते। भविष्य में हमें यह सावधानी बरतनी है कि मधुर वचनों से हम
लोगों के हृदय जीतेंगे’’ कौआ और कोयल का उदाहरण देकर भी हम मधुर वाणी की श्रेष्ठता सिद्ध कर सकते हैं।
६. सहकार्य
इस प्रात्यक्षिक
में दो बालकों को आमने- सामने खड़ा किया जाता है। उनके हाथ कील
दिये जाते हैं और कहा जाता है कि यदि तुम्हारे हाथ बिल्कुल
सीधे होते, कोहनी का मोड़ यदि प्रकृति निर्माण नहीं करती तो ये चुरमुरे आप कैसे खाते?
काफी प्रयास करने पर चुरमुरे
पकड़ा हुआ हाथ अपने मुँह तक नहीं जाता है, यह देखकर बालक
लज्जित हो जाते हैं। यह कैसे सम्भव होगा, यह शेष बालकों को पूछने
पर एकाध मेधावी बालक आगे आकर एक दूसरे के मुँह में चुरमुरे देने की बात कहता है। हाथ सीधे होने पर एक दूसरे के मुँह में कौर देने के अलावा दूसरा पर्याय नहीं बनता।
यह प्रात्यक्षिक पूरा होने पर देव और दानवों के सहभोजन
की कहानी बालकों को सुनाई जाती है। जिसमें उनके हाथों पर
लम्बे- लम्बे लकड़ी के चम्मच बाँधकर भोजन करने को कहा जाता है।
दानव हवा में भोजन उड़ाकर उसे मुँह में पकड़ने की चेष्टा करते
हैं और सारा भोजन उनके कपड़ों पर गिरता है। देवता एक दूसरे के
मुँह में कौर देकर बड़े आनंद से भोजन का स्वाद लेते हैं। ‘‘जहाँ
सहकार्य की भावना होती है, वहीं देवत्व का निर्माण होता है।
जहाँ केवल स्वार्थ होता है, वहाँ दानवी प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं।’’ यह भाव इस प्रात्यक्षिक द्वारा सिखाया जाता है।
७. जीवन जीने के लिए आवश्यक है- विधेयात्मक विचारधारा
एक मोमबत्ती जलाकर बालकों से पूछा जाता है कि एक मोमबत्ती
जलने के लिए कौन- कौन सी बातें आवश्यक होती हैं? बालक उत्तर देते
हैं कि बत्ती (धागा) प्राणवायु, मोम, चिनगारी, माचिस आदि।
प्रशिक्षक जलती हुई मोमबत्ती को उलटी कर देता है। कुछ ही
क्षणों में वह अपना ही मोम गिरने से बुझ जाती है। इसका अर्थ यह
है कि केवल प्राणवायु, मोम आदि बातें होने पर भी जब तक
मोमबत्ती सीधी नहीं है, तब तक वह जलती नहीं रह सकती। उसी तरह,
जीवन में जब तक विधेयात्मक विचारधारा, सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं
होता, तब तक जीवन सार्थक नहीं बनता। यदि विचारधारा नकारात्मक हो,
अधोगामी हो तो जीवन का अधःपतन भी दूर नहीं होता।
८. हर समय शारीरिक शक्ति से काम लेना ठीक नहीं
इस प्रात्यक्षिक में दो- दो बालकों की जोड़ियाँ
बनाकर उन्हें आमने- सामने बैठाया जाता है। इसमें से एक बालक को
अपने दोनों हाथ कसकर पकड़े रहने को कहा जाता है और दूसरे बालक
को उसके हाथ छुड़ाने के लिए प्रयास करना होता है। जिस जोड़ी के
हाथ सबसे पहले छूटेंगे, वह जोड़ी विजेता होगी, यह भी कहा जाता है।
१- २ कहने पर प्रयास शुरु होता है। जिसके हाथ सबसे पहले छूटेंगे-
वह जोड़ी विजेता होगी, यह मालूम होते हुए भी जिसने हाथ पकड़ रखे
हैं, वह हाथ छोड़ता नहीं और सामने वाला हाथ छूटे, इसलिए अपनी
पूरी शारीरिक शक्ति लगाकर प्रयास करता है। (३- ४ मिनट) के बाद प्रशिक्षक रुकने का आदेश देता है और कहता है- ‘‘यदि शारीरिक बल लगाने के बजाय केवल मुँह से कह देते कि ‘‘भाई हाथ छोड़ो, हमें जीतना है,’’ तो शायद सामने वाला झट से हाथ छोड़ देता। लेकिन सामनेवाला
बल से काम ले रहा है, यह देखकर हाथ पकड़े रहने वाला भी अपनी
शक्ति का प्रयोग करने लगा। काम कोई भी हो, उसे शारीरिक शक्ति से
ही सुलझाया जा सकता है, यह हमारा भ्रम है। जो काम, शान्ति और
प्रेम से हो सकता है, उसके लिए भी शारीरिक शक्ति क्यों?
९. बहिर्मुखता के लिये आवश्यक है, नम्रता
इस प्रात्यक्षिक में १५ से २०
बालकों का मण्डल बनाया जाता है। एक दूसरे का हाथ पकड़कर सभी
बालक गोला बनाकर खड़े होते हैं। सभी के मुँह अन्दर की ओर रहते
हैं। उनसे यह कहा जाता है कि आपको अपना मुँह तथा सम्पूर्ण शरीर
बाहर की ओर लाना है, परन्तु यह करते समय हाथ छूटे नहीं।
बालक काफी प्रयास करते हैं लेकिन उनसे यह करना सम्भव नहीं
होता। प्रशिक्षक यह काम अपने निर्देश द्वारा पूरा करता है। सबसे
पहले किसी भी दो बालकों के हाथ ऊपर किए जाते हैं, और उनके नीचे
से हाथ छोड़े बिना एक- एक कर सभी बालक निकल जाते हैं। अब
अन्तिम बालक नीचे से चला जाता है तो अपने आप सभी बहिर्मुख हो
जाते हैं। इसका अर्थ- बहिर्मुख (पर चिंतक, दूसरों का चिंतन- विचार
करने वाला, केवल आत्मकेंद्रित नहीं) होने के लिए दो बातों की आवश्यकता होती है-
१. दूसरों को रास्ता देना आवश्यक है। (जैसे, दो बालकों ने दूसरों के लिए अपने हाथ ऊँचे कर रास्ता बनाया।)
२. नम्रता, (जैसे, दिए गए रास्ते से बचे हुए बालक झुक कर निकले।) अहंकार मुक्त, नम्र लोग ही बहिर्मुख बन सकते हैं और वे ही लोग जन- प्रिय होते हैं।
१०. अपनी पुस्तकों से प्रेम करो
कई बालक ऐसे होते हैं, जो विद्यालय से घर जाते ही अपनी
पुस्तकें जहाँ- तहाँ फेंक देते हैं। यदि एक दो पुस्तकें ले जानी
हों तो उसी के अन्दर कम्पास, रूलर, पेन आदि ले जाते हैं। इस से पुस्तकें फटने का डर रहता है। इस बात को प्रात्यक्षिक
द्वारा सिखाने के लिए एक बालक को आगे बुलाकर उसकी दो उँगलियों
के बीच पेन रखकर हलके से उँगलियाँ दबाई जाती हैं। उँगलियों पर
जोर पड़ते ही बालक जोर से चिल्लाता है। इस बात को लेकर
प्रशिक्षक कहता है कि, ‘‘यदि
हमारी दो उँगलियों के बीच कुछ रखकर दबाया जाये तो हमें क्षति
पहुँचती है, कष्ट होता है। पुस्तकों के बीच कुछ रखने से क्या
पुस्तकों को क्षति नहीं पहुँचती?’’
पुस्तकें बोल नहीं सकतीं, इसलिए उन पर अत्याचार करना ठीक नहीं।
पुस्तकें हमारी गुरु हैं, इसलिए उनका उचित आदर करना हमारा कर्त्तव्य है। पुस्तकों पर छपे हुए महापुरुषों के चित्रों पर मूँछे बनाना, उन्हें गन्दा करना, बिना आवरण की पुस्तकें रखना, ये बातें हमें शोभा नहीं देतीं।’’ इसी के आगे जोड़ कर पुस्तिकाओं पर क्रमांक लिखना आदि बातें हम बता सकते हैं।
११. विचारों की सम्पन्नता सर्वश्रेष्ठ
प्रशिक्षक किन्हीं दो बालकों से एक- एक रुपये के सिक्के माँगता
है। जिनके पास सिक्का हो, उन दो बालकों को आगे बुलाया जाता है।
उनका नाम पूछ कर वह सिक्का ले लेता है। ‘अ’ का सिक्का ‘ब’ को देता है और ‘ब’ का ‘अ’ को। सिक्कों का आदान- प्रदान करने के पश्चात् प्रशिक्षक बालकों से पूछता है कि ‘अब कौन धनी बना?’
बालक- दोनों के पास पहले भी एक रुपया था और अभी भी एक ही रुपया है।
प्रशिक्षक- इसका अर्थ कोई भी धनी नहीं बना। यदि दोनों को धनी
बनना है तो दोनों को एक दूसरे को क्या देना होगा? ऐसी कौन सी
चीज है, जिसके आदान- प्रदान से दोनों ही धनी बनेंगे?’’
बालक अनेक विकल्प देने का प्रयास करते हैं, परन्तु वे इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं दे पाते।
प्रशिक्षक- ऐसी कोई भौतिक वस्तु नहीं, जिसके आदान- प्रदान से
दानों ही धनी बनी जाएँ, परन्तु आनन्द, हास्य, इनके साथ- साथ यदि
अच्छे विचारों का आदान- प्रदान एक दूसरे से किया जाय तो दोनों
ही विचारों से सम्पन्न बन सकते हैं। एक दूसरे के साथ अच्छे
विषयों पर चर्चा करने से दोनों का ज्ञान बढ़ेगा। केवल व्यर्थ की
बातें करके अपना समय मत गँवाओ, अच्छी चर्चा करो।’’ इसके पश्चात् व्यर्थ चर्चा और सार्थक चर्चा कौन सी होती है, इस बारे में बालकों से संवाद करें।
१२. कहने से अच्छा है, करना
हम जो अच्छी बात सुनते हैं, पढ़ते हैं और कहते हैं, उन्हें यदि
जीवन में नहीं अपनाएँ तो ये सारी बातें व्यर्थ हैं। कुछ लोग
केवल कहते हैं, करते कुछ भी नहीं। कुछ लोग कहते भी हैं और करते
भी हैं। और कुछ लोग कहते कुछ भी नहीं, केवल करते हैं।
सर्वश्रेष्ठ वही लोग हैं, जो कहते नहीं और कर दिखाते हैं।
यह बात बालकों को समझाने के लिये प्रशिक्षक बालकों से पहले
ही कह देता है कि उन्हें केवल वही क्रिया करनी है, जो प्रशिक्षक
कहते हैं, इसलिए प्रशिक्षक की बात को ध्यान से सुनें। सबसे पहले
प्रशिक्षक बालकों को अपना बायाँ हाथ ऊपर उठाने को कहता है। फिर
हाथ की उँगलियाँ फैलाने को, यह क्रिया प्रशिक्षक भी साथ- साथ
करता है। फिर अँगूठा और अनामिका को जोड़कर एक गोला बनाने को कहा
जाता है। फिर धीरे- धीरे हाथ नीचे मुँह की ओर लाना है, इसके लिए
प्रशिक्षक अपनी उँगलियों को गाल पर लगाते हुए हाथ ठोड़ी
पर लगाने की आज्ञा देता है। प्रशिक्षक का हाथ गाल पर देखकर
बालक भी अनजाने में अपना हाथ गाल पर लगा देते हैं। फिर एक बार
वही क्रिया पहले से दोहरायी जाती है। दूसरी बार भी उसी तरह बालक आपना हाथ ठोड़ी पर रखने के बजाय गाल पर रख देते हैं। हाथ गाल पर ही रखकर प्रशिक्षक बालकों से पूछता है, ‘‘मैंने हाथ गाल पर रखने को कहा था या ठोड़ी पर?’’ बालक इस बात पर हँस पड़ते हैं। और कहते हैं कि प्रशिक्षक ने हाथ ठोड़ी पर रखने के लिए कहा था, लेकिन वह स्वयं अपना हाथ गाल पर रख रहा था, इसलिए उन्होंने भी अपना हाथ गाल पर रखा। प्रशिक्षक-
इसका अर्थ यह है कि मैं जो कह रहा था, उससे अधिक आपका ध्यान
मैं जो कर रहा था, उस बात पर था। शब्द से भी अधिक प्रभाव आप
पर क्रिया का पड़ रहा था। आप जो कह रहे हैं, इस से भी अधिक
महत्त्व इस बात का है कि आप क्या कर रहे हैं। इसलिए श्रेष्ठ
बातें कहकर रुक मत जाना। उन्हें जीवन में अपनाने का प्रयास भी
करना। वही मनुष्य श्रेष्ठ होता है, जो सत्कार्यों से अपनी महानता
सिद्ध करता है।’’
१३. आगे बढ़ो!
१५- २०
बालकों का एक मण्डल (गोला) बनाकर खड़ा किया जाता है। एक दूसरे
का हाथ पकड़ कर सभी बालक मण्डल को अधिक से अधिक (खींचकर) खड़े
होते हैं। उन्हें एक- दूसरे का हाथ अपनी- अपनी छाती से लगाने को
कहा जाता है। सीटी बजते ही हाथ अपने सीने से लगाने के प्रयास
में बालक खींचातानी शुरु
करते हैं। बल के प्रयोग से सभी दूसरे का हाथ अपनी छाती पर
लगाने का प्रयत्न करते हैं। अपना हाथ दूसरे की छाती से न लगे,
इसकी भी चेष्टा होती है। जो बालक अधिक बलवान हैं, वे दूसरों का
हाथ बलपूर्वक अपनी छाती से लगाकर विजय का आनंद पाते हैं। फिर
प्रशिक्षक सभी को रुकने का आदेश देकर कहता है ‘‘छाती से हाथ लगाने का अर्थ है कि दूसरे को अपने हृदय से लगाओ!
सभी के हृदय एक दूसरे से जुड़ जायेंगे तो संगठन की शक्ति
बढ़ेगी। यह कार्य बल से सम्पन्न नहीं होगा। यदि बलपूर्वक भी किसी
का हाथ अपने हृदय से लगाने में आप सफल होते हैं तो भी जिसका
हाथ आपके हृदय पर है, वह सन्तुष्ट नहीं होगा। यह काम करने के
लिए सभी को एक कदम आगे बढ़ना होगा।’’
तने हुए गोले से सभी बालक एक कदम आगे बढ़ते हैं। फिर
प्रशिक्षक सभी को अपने बायें हाथ से बायें बाजू में खड़े बालक
का दायाँ हाथ अपने हृदय से लगाने को कहता है। इस प्रयास में किसी भी खींचतानी के बिना सभी का एक हाथ दूसरे के हृदय पर लग जाता है।
प्रशिक्षक- ‘‘यदि किसी को अपनाना हो तो आपको स्वयं एक कदम आगे बढ़ना होगा। जो अंहकार
को छोड़कर एक कदम आगे बढ़ता है, वही मनुष्य दूसरे के हृदय जीतने
में सफल होता है। किसी भी काम के लिए आवश्यक बात यही है कि
एक कदम आगे बढ़ो।’’
१४. विचारों की चौखट बढ़ाइए
अनेक विषयों पर एकांगी विचार करके अथवा संकुचित दृष्टि रखकर
हम उस विषय में गलत धारणा बना लेते हैं। बालकों के साथ यह बात
विशेष रूप से लागू होती है। माँ बालक से कहती है कि शाम के
समय जल्दी घर आ जाना। कभी वह किसी पार्टी में या किसी मित्र के
घर जाने से मना भी कर देती है। कभी दूरदर्शन का कोई धारावाहिक
अथवा चलचित्र देखने से मना कर देती है। इस बात पर बालक का
अन्तर्मन दुःखी हो जाता है। उसे इस मनाही का कारण समझाना माँ के
लिए कठिन होता है, इसलिए वह सोचता है कि हर समय माँ मुझे रोक
देती है।