शिक्षण गरिमा संदर्शिका

अध्यापक ‘युग पुरोधा’

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 भारतीय संस्कृति अध्यात्म का पर्याय है। अध्यात्म अर्थात् जीवन जीने की कला जिसे संस्कृति कहते हैं। हमारी भारतीय संस्कृति देने वाली संस्कृति- देव संस्कृति रही है जो जीवन शैली का अंग है। पाश्चात्य देशों में संस्कृति नहीं मात्र सभ्यता है जो बाहरी जीवन को सुन्दर व रहन सहन के तरीके सिखाती है।
      भारतीय संस्कृति में ‘‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, तथा आचार्य देवो भव’’ की मान्यता रही है। विदेशों में उनका उतना महत्व नहीं है। वर्ष में एक बार फादर्स डे, मदर्स डे, टीचर्स डे मनाकर उन्हें याद किया जाता है जबकि हमारे यहाँ हमेंशा उन्हें आदर- सत्कार से देखा व माना जाता है।

         पश्चिम की सभ्यता आज व्यक्ति, परिवार, समाज पर हावी है। पश्चिम की सभ्यता बाजार वाद का पर्याय है। इसके हावी होने से भारतीय संस्कृति पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। यह अपनी भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा इस ओर बढ़ाया गया कदम है। यह चार शब्दों में निहित भावों को प्रदर्शित करता है। भारतीय से तात्पर्य जिस संस्कृति का उद्भव पोषण व प्रचलन भारत की पावन भूमि पर भारतीय ऋषियों, तत्व वेत्ताओं द्वारा किया गया। संस्कृति जो श्रेष्ठ व कल्याणकारी जीवन जीना सिखाती है, उसका ज्ञान होना आवश्यक है, उसे व्यवहार में कैसे लाएँ? उस की क्या विशेषताएँ हैं, क्या- क्या उपलब्धियाँ हैं, यह समझ आयी या नहीं, उसका मूल्यांकन, आत्मशोधन, आत्मनिर्माण व आत्मोन्नति के रूप में किया जाना ही परीक्षा है। यह परीक्षा, भारतीय संस्कृति का भली भाँति ज्ञान (जानकारी व समझ) कराने वाली शिक्षण व्यवस्था है।
    आज संस्कृति नाचना, गाना, मात्र से समझी जाती है जिसे संस्कृति नहीं अपसंस्कृति कहें तो ज्यादा ठीक है। कल्चर अर्थात् जीवन जीने की पद्धति है जिसमें प्रत्यक्षवाद, उपभोक्तावाद का बोलबाला है जिसने सांस्कृतिक मूल्यों का अवमूल्यन किया है।

संस्कृति अर्थात् विद्या जो जीवन में मूल्यों की स्थापना करने का ज्ञान कराती है। विनम्रता, आध्यात्मिकता के गुणों का अन्तस्थ होना ही संस्कृति है। ज्ञान का विस्तार अध्यापकों में हो और उनकी सहायता से विद्यार्थियों में विनम्रता, सदाशयता, साहस एवं विवेक जैसे गुण तथा चिन्तन, चरित्र व व्यवहार में उत्कृष्टता आए यही परीक्षा का उद्देश्य है।

    सद्गुणों की खेती करना ही भारतीय संस्कृति है। विचार क्रांति ऐसे आती है। विद्या अर्थात् विनम्रता का भाव। ज्ञान का अनुपान संवेदना के साथ अन्दर जाएगा तभी व्यक्ति महान बनेगा। ज्ञान ही संस्कृति है। ज्ञान पवित्र होता है जैसा गीता में कहा है ‘‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते  ’’ ।। सबसे बड़ा ज्ञान है अपनी आत्मा अर्थात् स्वयं को जानना, स्वयं का सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है। ज्ञान के अभाव में तनाव ग्रस्त जीवन है। व्यक्ति आर्थिक एवं व्यावसायिक हानि से परेशान है। ज्ञान (समझदारी) ही समस्त समस्याओं का हल है।
    भोगवाद एवं विषम परिस्थितियों में भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हुए बिना बच्चों में आध्यात्मिकता (आशा- विश्वास) को बढ़ाना है ताकि वे तनाव, अवसाद व भटकाव से बचें अर्थात् अनुतीर्ण या कम अंक प्राप्त होने पर आत्महत्या जैसे कार्य न करें। इसका ध्यान शिक्षक व अभिभावकों को रखना है। उनके अन्दर सोये हुए अर्जुन को जगाना है। उन्हें ‘‘हारिये न हिम्मत’’ भविष्य में सफलता के लिए पूर्ण मनोयोग से कार्य करें जैसे वाक्यों से प्रोत्साहित करें न कि डराएँ या अपशब्द कहकर अपमानित करें। अब्दुल कलाम साहब का कथन है कि बच्चों को सपना देखने के लिए प्रोत्साहित करें अच्छा व्यक्ति, श्रेष्ठ मानव, अच्छा शिक्षक एवं अच्छा पिता बनने की चाह जगाए।
     शिक्षक वही है जो वाणी के साथ- साथ आचरण से शिक्षा दे। वही जो ज्ञान अर्जित करे, ज्ञान बाँटे और ज्ञान से जिए। पाठ्य विषयों में से जीवन के आदशों को उभारना है। आजकल जोर शिक्षा देने पर है विद्या अर्थात् सद्गुण सिखाने पर नहीं। शिक्षा वह जो सभी विषयों की जानकारी देती है जबकि विद्या- ज्ञान देती है अध्यात्म, संस्कृति एवं उच्चस्तरीय गुणों को जीवन में उतारने की मनःस्थिति देती है। जीवन में सहज ही घटित होने वाली घटनाओं की समीक्षा करते हुए भूलों से बचने तथा आदर्शों को अपनाने का महत्व समझना है। भारत का इतिहास, ऋषियों और संतों का तथा गुरु- शिष्य परम्परा को आगे बढाने का इतिहास रहा है। भा.सं.ज्ञा.परीक्षा के माध्यम से निकली प्रतिभाएँ आने वाले भविष्य के महामानव हैं। बच्चों में अलग- अगल वृत्तियाँ होती हैं उन्हें ही विकसित करना है, उनमें भावना पैदा करना है। वातावरण व्यक्ति को, बालकों को प्रभावित करता है अतः घर का तथा विद्यालय का वातावरण शांतिकुंज की तरह दिव्यता से भरा प्रेरणादायी होना चाहिए।

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