शिक्षण गरिमा संदर्शिका

सार्थक शिक्षा

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 मनुष्य जिस दिशा में विचार करता है, जिन वस्तुओं का चिंतन करता है, जिन तत्वों का ध्यान करता है, वह सब धीरे- धीरे उस चिंतन करने वाले की मनोभूमि में स्थित होते और वृद्धि को प्राप्त करते जाते हैं। विचार विज्ञान का सारभूत सिद्धान्त हमें समझ लेना चाहिए कि जिन बातों पर चित्त को एकाग्र करेंगे उसी दिशा में हमारी मानसिक शक्तियाँ प्रकाशित होने लगेंगी।

     ज्ञान के दो अंग हैं- एक ‘शिक्षा’ और दूसरा ‘विद्या’। शिक्षा वह है जो स्कूल- कॉलेजों में पढ़ाई जाती है, जिसे पढ़कर लोग ग्रेजुएट,क्लर्क डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, प्रोफेसर, अफसर आदि बनते हैं। यह जीविकोपार्जन एवं लोक व्यवहार में निपुणता प्राप्त करने के लिए है। यह आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना सांसारिक जीवन में सुस्थिरता एवं उन्नति का मार्ग नहीं खुलता। पर इससे भी अधिक आवश्यक, विद्या है। जिस ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य अपनी मान्यताओं, भावनाओं, आकांक्षाओं एवं आदर्शों का निर्माण करता है, उसी ज्ञान को विद्या कहा जाता है। प्राप्त करने का माध्यम केवल स्कूल कॉलेज नहीं वरन् स्वाध्याय और सत्संग है। चिंतन और मनन से, सत्साहित्य पढ़ने से, सज्जनों के साथ रहने एवं उनके अभिवचन सुनने तथा कार्यकलाप देखने से विद्या का आविर्भाव होता है।

    शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए- यथार्थता का ज्ञान। दुनिया वैसी ही नहीं है जैसी कि हमें दिखाई देती है या बताई जाती है। व्यक्ति और समाज की समस्याएँ वही नहीं हैं, जिनकी चर्चा की जाती रहती है। यथार्थता की तली तक पहुँचने के लिए किस प्रकार की गोताखोरी की जानी चाहिए? इसी कला को सिखाना शिक्षा का उद्देश्य है। भ्रान्तियों, विकृतियों और कुरीतियों के बन्धन से छुटकारा पाकर स्वतन्त्र चिंतन की क्षमता प्राप्त करने और जीवन तथा विश्व का यथार्थ स्वरूप समझ सकने के योग्य तीक्ष्ण दृष्टि प्राप्त करना ही शिक्षा का मूलभूत प्रयोजन है।

शिक्षा एवं विद्या

    वह होनी चाहिए जो साधारण मनुष्य में भी चरित्र बल, परहित भावना तथा सिंह समान साहस पैदा कर सके। जिस शिक्षा के द्वारा जीवन में अपने पैरों पर खड़ा हुआ जाता है, वही सच्ची शिक्षा है। विद्यार्थियों का जीवन लक्ष्य न केवल परीक्षा मे उत्तीर्ण होना, स्वर्ण पदक प्राप्त करना है, अपितु देश सेवा की क्षमता एवं योग्यता अर्जित करना भी है। भावनात्मक उत्कर्ष ही शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है। चिंतन, दृष्टिकोण में आदर्शों को समावेश करने से ही किसी देश के नागरिक सच्चे अर्थों में समर्थ और सुयोग्य बन सकते हैं। प्रतिभा का निखार महत्वाकांक्षा भड़काने से नहीं, गरिमा की अनुभूति और वरिष्ठता की प्रतिस्पर्धा में उतरने से होता है। शिक्षा मानवीय शील का एक शृंगार है।

   अतः शिक्षा के साथ संस्कार जोड़ने पर जो स्वरूप विद्या का बनता है, वही विद्यालयों को मानवीय दायित्वों का निर्वाह सिखा सकता है। विद्या प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक आवश्यकता होती है सद्विचारों की, सद्बुद्धि की।

सद्बुद्धि की प्रार्थना

   विविध धर्म- सम्प्रदायों जैसे हिन्दू, इस्लाम, सिख, ईसाई, आदि में भी गायत्री मंत्र का भाव (सद्बुद्धि की प्रार्थना) सन्निहित है। गायत्री मंत्र में परमात्मा से प्रार्थना की गई है कि वह हमारे लिए सद्बुद्धि की प्रेरणा करें। हमें सात्विक बुद्धि प्रदान करें। हमारे मस्तिष्क को कुविचार, कुसंस्कार, नीच वासनाओं से, दुर्भावनाओं से छुड़ाकर सतो गुणी ऋतम्भरा बुद्धि, विवेक एवं सद्ज्ञान से पूर्ण करें। गायत्री महामंत्र सार्वभौम है।
दुर्बुद्धि एवं दुर्भाव से दुष्कर्म होते हैं जिससे दुर्गति होती है,
सद्बुद्धि एवं सद्भाव से सद्कर्म होते हैं जिससे सद्गति होती है।

     ‘‘बुद्धि की सन्मार्ग की ओर प्रगति’’ यह इतना बड़ा लाभ है कि इसे प्राप्त करना ईश्वर की कृपा का प्रत्यक्ष चिह्न माना जा सकता है। इस मंत्र के द्वारा ऋषियों ने हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया है कि सबसे बड़ा लाभ हमें इसी की प्राप्ति में मानना चाहिए। गायत्री की प्रतिष्ठा का अर्थ सद्बुद्धि की प्रतिष्ठा है। गायत्री का मार्ग अपनी बुद्धि को शुद्ध करता है, उसमें दूषित दृष्टि को हटाकर दूरदर्शितापूर्ण दृष्टिकोण की स्थापना करता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए परमात्मा की सहायता के निमित्त इस मंत्र में प्रार्थना की गई है।

गायत्री में परमात्मा को जिन गुणों के साथ संबोधित किया गया है, वे गुण मनुष्य जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। सविता, वरेण्यं, भर्ग एवं देव- इन चारों शब्दों में तेजस्वी, प्रतिभावान, शक्तिशाली, श्रेष्ठ, संयमी, सेवाभावी बनने की शिक्षा है। परमात्मा इन गुणों वाला है। यही गुण उसके उपासक में आए, इसलिए उनकी ओर इस मंत्र में संकेत किया गया है। इन विशेषणों के साथ बार- बार परमात्मा को स्मरण करने से इन गुणों की छाया बार- बार मन पर पड़ती है, और वैसा ही संस्कार मन पर जमता है।


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