प्रेमोपहार - जन्म दिन का संदेश

आपके जन्मदिवस पर एक अनुरोध-एक सन्देश

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जन्म दिन का संदेश

    मनुष्य जन्म भगवान् का सबसे बड़ा उपहार है। सृष्टि में लाखों, करोड़ों योनियाँ हैं, धरती पर रहने वाले, आकाश में उड़ने वाले और जल में निवास करने वाले अगणित प्रकार के पशु-पक्षी,कीट-पतंग, जीव-जंतु इस संसार में रहते हैं। उनमें से किसी को भी वे सुविधायें नहीं मिलीं, जो मानव प्राणी को प्राप्त हैं। व्यवस्थित रीति से बोलने और सुसंगत रूप से सोचने की क्षमता मनुष्य के अतिरिक्त और किसी को नहीं मिली है। शरीर यात्रा की समस्या को सुलझाने में ही अन्य प्राणी अपना समस्त जीवन व्यतीत करते हैं फिर भी आहार, निवास एवं सुरक्षा की उलझनें बनी ही रहती हैं। अपने समाज में पारस्परिक सहयोग से भी उन्हें वंचित रहना पड़ता है। अनेक प्रकार की जो सुविधा-सामग्री मनुष्य को प्राप्त है, वह उन बेचारों के भाग्य में कहाँ है? बुद्धि का विकास न होने से विचारणा एवं भावना क्षेत्र में मिल सकने वाले उल्लास-आनंदों से तो एक प्रकार से वे वंचित ही हैं। उनकी तुलना में मनुष्य कितना अधिक सुखी और साधन सम्पन्न है। इस पर बारीकी से विचार किया जाए, तो यही प्रतीत होता है कि भगवान् ने हमें सृष्टि का सर्वोच्च प्राणी बनाया है और सर्वोपरि साधन-सुविधाएँ प्रदान की है।

    यों छुट-पुट अभाव, असुविधाएँ और कठिनाइयाँ मनुष्य जीवन में भी बनी रहती हैं और कितने ही मनुष्य उस तिल को ताड़ बनाकर निरंतर दुःखी भी बने रहते हैं। इतने पर भी यदि विशाल दृष्टि से देखा-सोचा जाए तो प्रतीत होगा कि दुःखी-दरिद्र समझा जाने वाला व्यक्ति भी अन्य जीव जंतुओं की तुलना में अधिक सुखी है। यही कारण है कि हमें मरने से डर लगता है। मरने के बाद पथभ्रष्ट मनुष्य को जिन निकृष्ट योनियों में जाना पड़ता है, उनकी तुलना में दुःखी से दुःखी मनुष्य भी कहीं अधिक सुखी है। इसी से हम अपने को अत्यधिक प्यार करते हैं और वयोवृद्ध, अशक्त एवं रुग्ण होने पर भी मरने की बात नहीं सोचते।

    आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद एक बार मिलता है। यह उसकी परीक्षा का समय होता है। वह ऊँचा उठने, आगे बढ़ने और अधिक ऊँची स्थिति में पहुँच सकने लायक है या नहीं, इसी बात की परीक्षा देने के लिए जीव मनुष्य शरीर में आता है। यदि इस परीक्षा में सफल हुआ तो उसे आगे की उच्च स्थिति में स्वर्गादि देव योनि प्राप्त करने का अवसर मिलता है अन्यथा वह फिर पुरानी कक्षा में वापस लौटा दिया जाता है।

    संसार का एक निश्चित नियम है कि जैसे-जैसे स्तर उठता है, पदोन्नति होती है, वैसे-वैसे ही उसके कंधों पर जिम्मेदारी अधिक आती है। चपरासी की तुलना में अफसर की, सैनिक की तुलना में कप्तान की, बच्चे की तुलना में प्रौढ़, की नागरिक की तुलना में नेता की और पशु की तुलना में मनुष्य की जिम्मेदारी अधिक है। पदोन्नति का आधार ही अधिक उत्तरदायित्व वहन कर सकने की क्षमता है।

    हमें अपनी वास्तविक स्थिति समझनी चाहिए। बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्य की सबसे बड़ी मूर्खता एक यही है कि वह अपनी वस्तुस्थिति समझने में भूल करता रहता है। विचारने की बात है कि जब सभी प्राणी भगवान् के पुत्र हैं, वह सबका पिता है, सब को समान प्यार करता है, न्यायकारी, निष्पक्ष और समदर्शी है तो फिर मनुष्य को अधिक सुविधाएँ क्यों दी? जबकि सृष्टि के अन्य समस्त प्राणी उससे वंचित हैं? कोई मनुष्य-पिता जब अपने बच्चों को लगभग समान सुविधा देता है, तब भगवान् अपनी संतान को ऐसी स्थितियों में क्यों रखता है, जिनमें जमीन आसमान का अंतर है? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए बैंक चपरासी तथा बैंक मैनेजर की स्थिति को समझना होगा। मैनेजर को बैंक अधिक वेतन और सुविधाएँ इसलिए देती है; ताकि वह अधिक बड़ी जिम्मेदारी को ठीक तरह निबाह सके। लाखों रुपया बैंक मैनेजर के दस्तखतों से क्षण भर में इधर-उधर हो सकता है, इसी से ऊँचा पद एवं ऊँचा वेतन प्राप्त करता है। पुलिस सुपरिटेंडेंट, कलक्टर आदि अफसरों के हाथ बड़े अधिकार रहते हैं। वे उन अधिकारों को स्वार्थपरता की पूर्ति के लिए स्वच्छंदतापूर्वक उपयोग करने लगें तो संकट उत्पन्न हो जाए। बैंक मैनेजर सारे खजाने को अपनी निज की संपत्ति मान ले और उसे स्वच्छंदतापूर्वक खर्च कर डाले, तो मुसीबत खड़ी हो जाए।

हम मानव प्राणी कहने को तो मनुष्य हैं, पर जीवन की वस्तुस्थिति को समझने में भारी भूल करते रहते हैं। हम समझते हैं कि जो कुछ सुविधायें प्राप्त हैं, वे विशुद्ध रूप से हमारे निज के उपयोग के लिए हैं। सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में हमें जो अधिक सुविधापूर्ण स्थिति मिली हुई है, उसका उपयोग हमें अपनी निज की वासनाओं एवं इच्छाओं की पूर्ति में ही करना चाहिए। किया भी यही जाता है। औसत मनुष्य की आकांक्षाओं और गतिविधियों का लेखा-जोखा लिया जाए, तो यही दृष्टिगोचर होगा कि वह अपने सीमित स्वार्थ की परिधि में ही सोचता है। उसकी आकांक्षायें इंद्रिय सुखों अथवा लोभ, मोह एवं अहंकार से भरी तृष्णाओं की पूर्ति तक सीमित हैं। वह जो कुछ सोचता है, जो कुछ करता है, वह इसी धुरी पर घूमता है। यह अपना स्वार्थ एक छोटी परिधि तक और आगे बढ़ सका, तो वह अपनी स्त्री तक इसके बाद बच्चों तक बढ़ जाता है। पूरे परिवार तक भी वह नहीं फैल पाता। माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, भाभी-भतीजे, बुआ, दादी आदि घनिष्ट कुटुंबियों तक भी वह स्वार्थ बढ़ नहीं पाता। संबंधित स्वजनों तक से बहुत बार बहुत हद तक वह स्वार्थपूर्ण व्यवहार करता है।

    क्या यही मनुष्य का उत्तरदायित्व है? क्या इसी घृणित स्थिति का परिचय देने के लिए भगवान् ने उसे अन्य प्राणियों की तुलना में इतनी अधिक सुविधाजनक स्थिति प्रदान की है? यह एक महत्त्वपूर्ण एवं विचारणीय प्रश्न है। इस प्रश्न को हल करने पर ही मानव-जीवन की सफलता-असफलता निर्भर है। जन्म दिन का सबसे बढ़िया और सबसे उत्तम उपयोग यही हो सकता है कि उस दिन हम अपनी सारी बुद्धिमत्ता, सारी दूरदर्शिता, सारी प्रतिभा और सारी मनोभावना को इसी समस्या को हल करने में लगाएँ।

    दैनिक जीवन में आने वाली छुट-पुट समस्याओं के उचित समाधान में हम कितनी तत्परता एवं बुद्धिमत्ता का परिचय देते हैं। बड़ी-बड़ी उलझनों को जिस चतुरता के आधार पर हम हल कर लेते हैं, उसी प्रकार क्या हम ‘जीवनोद्देश्य और उसकी सफलता’ के प्रश्न को हल नहीं कर सकते? निश्चय ही कर सकते हैं। हुआ यह कि कभी इस संबंध में विचार ही नहीं किया गया। बाहरी बातों पर सोचा-विचारा गया; पर आत्मोद्देश्य की ओर कभी दृष्टि ही नहीं डाली गई। यदि थोड़ा ध्यान इस ओर भी दिया गया होता तो स्थिति दूसरी होती। तब आज की अपेक्षा हम बहुत आगे बढ़े हुए और ऊँचे स्तर पर उठे हुए  होते।

    हमारे समाज में हँसी-खुशी के अनेक त्योहार प्रचलित हैं। होली, दिवाली, दशहरा आदि अवसरों पर बहुत खुशी मनाई जाती है। घरों की सजावट, नए कपड़े, बढ़िया भोज, मेला, ठेला, दीपदान, रंग-गुलाल, मित्र-मिलन, उपहारों का आदान-प्रदान आदि अनेक हर्षोल्लास भरे क्रियाकलाप होते हैं। यह त्योहार किसी बड़ी सफलता की स्मृति में मनाये जाते हैं।

    मानव जीवन में हमारा अपना अवतरण भी एक ऐसी ही बड़ी सफलता है। चौरासी लाख योनियों के अभाव, असुविधा एवं कष्टसाध्य क्रम से भरे अंधकार को परास्त कर जिस दिन मनुष्य शरीर जैसे अनुपम सौभाग्य को प्राप्त किया गया, वह दिन अपने लिए निश्चित रूप से  भारी सफलता का, असाधारण विजय का महान पर्व है। समष्टि की दृष्टि से देवताओं एवं महापुरुषों की जयंतियाँ, उनकी विजय विभूतियाँ जितनी महत्त्वपूर्ण हैं, अपनी व्यक्तिगत दृष्टि से अपना छोटा-सा अवतरण भी उतना ही मंगलमय है। हमारी निज की सफलता का, निज की विजय का, इससे बड़ा महान पर्व दूसरा नहीं हो सकता।

निस्संदेह अपना जन्मदिन अपने लिए सबसे बड़ी खुशी का दिन है और जिस प्रकार हर वर्ष सामाजिक त्योहार मनाये जाते हैं, उसी प्रकार हमें अपना, अपने प्रियजनों का जन्मदिन मनाना चाहिए। संसार भर के सभ्य देशों में यह प्रथा प्रचलित है। जन्मदिन के लिए सभ्य समाज का हर सदस्य साल भर तक तैयारी करता रहता है और उस दिन अपने समाज में प्रचलित प्रथाओं के अनुसार एवं अपनी स्थिति के अनुरूप उसे एक हर्षोत्सव के रूप में मनाता है। अपने देश में भी यह प्रचलन सदा से था। मध्यकालीन अंधकार भरी अव्यवस्था में जहाँ हमने अपनी अनेक विशेषताएँ खोईं, वहाँ इस प्रेरणा पर्व का स्वरूप भी भूल गये। अब समय आ गया कि उस महत्त्वपूर्ण परंपरा का पुनः प्रचलन किया जाए।

    जन्मदिन के अवसर पर मित्र-मिलन, दीपदान, जलपान, पुष्पोपहार, गायन-वादन, परिभ्रमण, गृह-सज्जा, हवन-पूजन जैसी विधि- व्यवस्था अपनी परिस्थिति के अनुरूप बनाई जा सकती है। जन्मदिन का एक धार्मिक कर्मकाण्ड भी है। युग संस्कार पद्धति नामक पुस्तिका में उसका सरल और प्रभावोत्पादक स्वरूप दिया गया है। उक्त पुस्तिका या गायत्री परिवार के स्थानीय संगठन के सहयोग से उस दिन का धार्मिक क्रियाकृत्य बड़े आकर्षक एवं प्रेरणाप्रद ढंग से किया जा सकता है।

    इस प्रकार के आयोजन जन्मदिन वाले व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा भरने और उस उत्सव में सम्मिलित व्यक्तियों को प्रकाश देने वाले सिद्ध होते हैं। व्यक्ति और समाज के भव्य नव-निर्माण में इन आयोजनों से बड़ी प्रगति हो सकती है। इसलिए हम में से हर एक का प्रयत्न यह होना चाहिए कि अपना जन्मदिन उल्लासपूर्ण वातावरण में मनाएँ ही-साथ ही अपने अन्यान्य मित्रों को भी उसके लिए अवश्य उत्साह एवं प्रेरणा दें।

    जन्मदिन के अवसर पर प्रबुद्ध व्यक्तियों के मानव-जीवन का उद्देश्य और उसकी सफलता का मार्ग विषय पर प्रेरणाप्रद प्रवचन कराने की व्यवस्था बनानी चाहिए। इन आयोजनों से जीवन का स्वरूप, जीवन का उद्देश्य, जीवन का सदुपयोग और उसकी सफलता का मार्ग जानने में भारी सहायता मिलेगी और यदि भूला हुआ मनुष्य अपने लक्ष्य की दिशा में सुव्यवस्थित रीति से चल पड़ा, तो इस संसार का, समाज का, संस्कृति का स्वरूप ही बदल जायेगा और धरती पर स्वर्ग अवतरण की, युग निर्माण की संभावना बढ़ेगी।

    जिसका जन्मदिन मनाया जाय उसके लिए यह आवश्यक है कि एकान्त में बैठकर आत्मचिन्तन करे। अपने आप से यह प्रश्र पूछे कि (१)उसके जीवन का उद्देश्य क्या है? (२)क्या वह उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उचित प्रयत्न कर रहा है? (३) यदि नहीं, तो उस भूल को कैसे सुधारा जाए? इन तीन प्रश्रों पर जितनी ही गहराई के साथ सोचा जाएगा, जितना ही सही उत्तर ढूँढ़ निकाला जायेगा, जितना ही साहस भूलों को सुधारने के लिए एकत्रित किया जा सकेगा, उतना ही जन्मदिन मनाने का वास्तविक उद्देश्य पूरा होता चलेगा। त्योहार खाली हा-हा, ही-ही करने के लिए, धमाचौकड़ी करने के लिए नहीं मनाये जाते, वरन् उसके पीछे एक प्रेरणा छिपी रहती है। उस सन्देश को सुनना, समझना, हृदयंगम करना ही इन आयोजनों का वास्तविक उद्देश्य होता है। बाह्याचार तो उस प्रयोजन को कलात्मक, आकर्षक, मनोरंजक एवं ग्राह्य बनाने के लिए होता है। हमारा यह जन्मदिन का हर्षोल्लास भी सोद्देश्य हो। आयोजन को कलात्मक बनाया जाए पर यह ध्यान रखा जाए कि एकान्त में बैठकर आत्मनिरीक्षण एवं आत्मशोधन करना और आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास के लिए योजनाबद्ध भावी कार्यक्रम बनाना ही इस आयोजन का वास्तविक प्रयोजन है। यह प्रयोजन जितना पूरा हो सके समझना चाहिए कि जन्मदिन मनाना उतना ही सार्थक हो गया है।

    मनुष्य की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को परमात्मा ने इतना सीमित रखा है कि वे बड़ी आसानी से थोड़े ही समय और श्रम में उपार्जित की जा सकती हैं। अन्य प्राणियों को वहाँ भटकना पड़ता है, जहाँ उनको आहार, जल एवं निवास उपलब्ध हो सके। बेचारे इसी एक आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपना सारा समय और श्रम खर्च करते रहते हैं; किन्तु मनुष्य को इसके लिए भटकना नहीं पड़ता। सभी सुविधा सामग्री सहज ही सस्ते में एक स्थान पर मिल जाती है।

ऐसी अनुकूलता भगवान् ने इसलिए पैदा की है कि मनुष्य थोड़ा समय, थोड़ा श्रम निर्वाह कार्यों में खर्च करने के उपरान्त अपनी शेष सारी प्रतिभा लोकमंगल के लिए, ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति के लिए लगा सके।

    देखना होगा कि कहीं हम ऐसा ही अनुचित तो नही कर रहे हैं? निर्वाह की छोटी सी, सीधी-सादी और सरल आवश्यकताओं को जो कहीं कृत्रिम रूप से हमने बढ़ा-चढ़ा तो नहीं लिया है? विलासिता और अहंकार की दुर्बुद्धि से प्रेरित होकर हम ऐसा खर्चीला और ढोंगी आवरण तो नहीं बना बैठे हैं, जिसकी पूर्ति के लिए दिन-रात चिंतित रहना पड़ता हो। दूसरों की बेवकूफी की देखा-देखी हमने अपना जीवन ऐसा आडम्बरी और अस्वाभाविक तो नहीं बना लिया है, जिसको पूरा करने में सारा समय, सारा मस्तिष्क खर्च हो जाए? लोभ-मोह और तृष्णा के पिशाचों ने कहीं हमें इतना अधिक तो नहीं जकड़ लिया है कि अधिक भोग और अधिक संग्रह का पागलपन निरंतर सिर पर सवार रहता हो? गुजारे की सुविधा होते हुए भी क्या हम तृष्णा की सुरसा के मुख के ग्रास बने रहते हैं? यदि हाँ, तो समझना चाहिए कि हम मानव जीवन के महान उत्तरदायित्व का राजमार्ग छोड़कर किसी भयानक भूल के कंटकाकीर्ण बीहड़ वन में भटक रहे हैं।

    जिस देश-समाज में हम पैदा हुए हैं उसके औसत जीवन स्तर की ही जिंदगी हमें जीनी चाहिए। यही नैतिकता एवं मनुष्यता का तकाजा है। जो प्रतिभा हमें मिली है उसके बलबूते पर जो उपार्जित किया जा सकता है, उसे पूरी तरह अपने लिए ही खर्च करने की छूट नहीं है। ऐसे तो बैल खेती करके अन्न उगाता है, फिर वही उसे खाया भी करे। गाय-भैंस अपना दूध आप ही पिया करें, भेंड़ अपने कम्बल आप ही ओढ़ा करें, पेड़ अपने फल आप ही खाया करें। बादल अपना पानी अपने ही घर जमा रखें। ऐसी अव्यवस्था चल पड़े, तो संसार का सर्वनाश हो जाए। जो मनुष्य अपनी कमाई को अपने लिए ही प्रयुक्त करना चाहते हैं, उसे अनावश्यक मात्रा में जमा करना चाहते हैं, वे ईश्वर का कानून तोड़ते हैं। परिग्रह और अपव्यय निश्चित रूप से दो बड़े पाप हैं, भले ही उन्हें कानून ने दण्डनीय न माना हो।

    हमें जीवनोद्देश्य की सफलता के लिए सबसे पहला कदम यह उठाना चाहिए कि तृष्णा और वासना के पिशाचों से छुटकारा पाने के लिए साहसपूर्ण प्रयत्न आरम्भ करें। सादा जीवन जियें। उस स्तर का जैसा कि औसत भारतीय स्तर को जीना पड़ता है। अमीरी के ढोंग को बचकाने लोगों की बालबुद्धि समझें। जो संग्रह हो चुका है उसे सत्कर्मों में लगाएँ और उतना ही कमाने की बात सोचें जितना निर्वाह के लिए आवश्यक है। उद्देश्य एक ही प्रधान रहता है। यदि भौतिक वैभव जीवन का लक्ष्य माना जायेगा, तो परमार्थ के लिए न फुरसत मिलेगी, न इच्छा उठेगी और न सुविधा मिलेगी। पर यदि लक्ष्य आत्मकल्याण का, ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति का बना लिया जाए, तो तृष्णा घट जायेगी और उतना ही उपार्जन पर्याप्त प्रतीत होने लगेगा जितना निर्वाह के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। धन-प्रधान जीवन लक्ष्य को बदलकर यदि उसे परमार्थ-प्रधान बनाया जा सके , तो जीवन-क्रम में शेष सारा परिवर्तन सहज ही हो जायेगा। जन्मदिन के अवसर पर हमें अपने दृष्टिकोण को शरीर-प्रधान, भोगवादी, लोभी और मोह ग्रस्त न रहने देने का निश्चय करना चाहिए और जीवनोद्देश्य के अनुरूप विचारणा एवं क्रिया-पद्धति अपनाने का व्रत धारण करना चाहिए।

    हमारी सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता का, सबसे बड़ी दूरदर्शिता का मार्ग यही है कि हम मानव जीवन जैसे अनुपम सौभाग्य का सदुपयोग करें और भगवान् के उस पुण्य-प्रयोजन को पूर्ण करें, जिसके लिए प्राणियों में यह सर्वोच्च स्थिति हमें प्रदान की गई है। यदि इस लक्ष्य की उपेक्षा की जाती है और बेवकूफ पड़ोसियों का अनुसरण करके तृष्णा और वासना से भरी गंदी और रद्दी जीवन-पद्धति अपनाई जाती है, तो यही कहा जायेगा कि संसार की  दृष्टि में भले ही सफल या चतुर हों, आत्मा की दृष्टि से असफल एवं अविवेकी ही रहे।

    जिसके अन्तःकरण में यह निष्ठा गहराई तक जम गई है कि ‘मेरा जीवन किसी महान प्रयोजन के लिए है और उपार्जन शरीर-रक्षा, पोषण भर की एक छोटी सी आवश्यकता है’ वही व्यक्ति जीवन को सार्थक बनाने के लिए कुछ सोच और कुछ कर सकेगा। यदि निष्ठा उथली हुई, केवल जीभ से इस प्रकार के विचार दुहराये जाते रहे, तो ढोंग या यश के लिए यदा-कदा हुए तथाकथित परमार्थ विज्ञापित होंगे। आस्था के अभाव में वास्तविकता का उदय न होगा। मात्र ढोंग से न आत्मा को संतोष होगा और न घट-घट वासी परमात्मा प्रसन्न होगा।

जब दृष्टिकोण भौतिकवादी न रहकर अध्यात्मवादी बन जाता है तो हर इच्छा, हर कामना, हर भावना और हर प्रक्रिया उसी ढाँचे में ढलने लगती है, तब बिना किसी योजना के सहज स्वाभाविक रीति से जीवन-क्रम में अधिकाधिक आध्यात्मिकता का समावेश होता चलता है और स्वतः इस बात की अनुभूति होती है कि अपना प्रत्येक क्षण, प्रत्येक पग जीवनोद्देश्य की पूर्ति के पथ पर तेजी से अग्रसर हो रहा है। ऐसी दशा में वही हम बनते हैं जो बनना चाहिए, वही हम करते हैं जो करना चाहिए। जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ ठोस काम इसी स्थिति की मनोभूमि में संभव हो सकता है। जन्मदिन के अवसर पर हमें अपने में ऐसा ही भावनात्मक परिवर्तन लाने का प्रयत्न करना चाहिए।

    दूसरा कदम इस विचारणा को कार्य रूप में परिणत करने के लिए एक व्यवस्थित कार्य-पद्धति निर्धारित करने का है। हमें अपना सामान्य जीवन क्रम असामान्य दृष्टिकोण के साथ जीने की तैयारी करनी चाहिए। यदि हम अपने साधारण जीवन क्रम में महान आदर्श एवं उद्देश्य का समन्वय कर लें, तो वे सामान्य कार्य ही अपने उत्कृष्ट स्वरूप के कारण हमारे लिए पुण्य-परमार्थ की साधना जैसे और संसार के लिए कल्याणकारक हो जायेंगे। इसलिए दूसरा कार्य यह है कि हमें अपने हर कार्य में उत्कृष्टता का दृष्टिकोण समन्वित करना चाहिए। जो करें, यह सोंच कर करें कि यह सब हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिए नहीं; वरन् इस विश्व-वसुन्धरा को अधिक सुन्दर, अधिक समुन्नत, अधिक सुखी बनाने के लिए कर रहे हैं। यह भावना निश्चय ही हमारे हर क्रियाकलाप को आदर्श बना देगी।

    हमारा व्यक्तित्व शरीर, मन और आत्मा इन तीन आधारों पर खड़ा है। इन तीनों को पवित्र एवं प्रकाशपूर्ण बनाने के लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की तीन साधनाओं का क्रम अपनाना पड़ता है। जीवन साधना का अर्थ है अपनी प्रत्येक गतिविधि को आदर्शवादिता से परिपूर्ण रखना। कर्मयोगी बन कर शरीर को, ज्ञानयोगी बनकर मन को और भक्तियोगी बनकर आत्मा को परिष्कृत किया जाता है। हमारी हर शारीरिक क्रिया कर्त्तव्यपालन के लिए, हर विचारणा सत्य और विवेक के प्रतिपादन के लिए और हर भावना आत्मीयता एवं प्रेम-प्रीति का अभिवर्धन करने के लिए हो, तो समझना चाहिए कि शरीर, मन और आत्मा के तीनों ही आधार उस दिशा में अग्रसर हो रहे हैं, जिसके लिए ईश्वर की इच्छा एवं प्रेरणा है। इसी मार्ग पर चलकर हम जीवनोद्देश्य की परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकते हैं।

    इन तीनों योगाभ्यासों को यों तो हर घड़ी अपने विचार और कार्यों में उत्कृष्टता का समावेश करके ही पूरी तरह सम्पन्न किया जा सकता है, पर उनके लिए कुछ विशेष क्रिया-विधान भी निर्धारित हैं। इन्हें एक अभ्यास के रूप में प्रतिदिन कार्यान्वित किया जाए, तो साधनामय जीवन जीने का उद्देश्य बहुत अंशों में पूरा हो सकता है।

१-कर्मयोग का जीवन-क्रम में समावेश इस प्रकार होता है कि हम अपनी प्रत्येक विचारणा और क्रिया-पद्धति पर कड़ी निगाह रखें और उसके जो दोष हों उनका निवारण और जिन सद्गुणों की कमी है उनका संवर्धन करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा करें। अध्यात्म का हमारे जीवन के कण-कण में, क्षण-क्षण में समावेश होना चाहिए। पूजा की कोठरी में महन्त बन जाएँ और बाजार में आते ही दुष्टता बरतने लगें यह दोमुँही नीति हमारी आत्मिक प्रगति में तनिक भी सहायक सिद्ध नहीं हो सकती।

    उपासना एक आत्मिक व्यायाम की तरह थोड़ी देर ही की जा सकती है, पर साधना तो हर घड़ी करने की चीज है। आत्म-कल्याण के लिए साधना का मार्ग अपनाना पड़ता है। उपासना तो साधना का बहुत छोटा सा अंग है। जीवन की सार्थकता का लक्ष्य अकेली उपासना के बल पर नहीं हो सकता, उसमें साधना का समावेश होना ही चाहिए। इस जीवन-साधना का ही नाम कर्मयोग है। हमारी प्रत्येक क्रिया यदि आदर्शवादिता के अनुरूप ढलने लगे, तो समझना चाहिए हम कर्मयोग की साधना कर रहे हैं।

    कर्मयोग की एक महत्त्वपूर्ण साधन प्रक्रिया यह है कि ‘हर दिन को एक नया जन्म और हर रात को एक नई मृत्यु’ समझने की निष्ठा को अन्तःकरण में गहराई तक समाविष्ट किया जाए। प्रातः काल जैसे ही आँख खुले, चारपाई पर पड़े-पड़े ही यह भावना की जाए कि आज का दिन एक नया जन्म है, इसे अच्छे ढंग से व्यतीत करेंगे। इस संदर्भ में दिन भर की योजना बना लेनी चाहिए कि आज अपने समय और धन का व्यय किस प्रकार करेंगे। एक क्षण भी व्यर्थ बर्बाद न होने देंगे। सारा समय उपयुक्त कार्यों में सदुपयोग करने की दिनचर्या बनाई जाए, साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि न तो अनावश्यक कार्यों में एक पाई खर्च होने दें और न उपयोगी कार्यों में रत्ती भर भी कंजूसी बरतें।

धन और समय यह दो ही शक्तियाँ मनुष्य के पास सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। उन्हें अनुपयुक्त रीति से खर्च न होने देकर उपयुक्त कार्य में लगाया जा सके, तो जीवन की सार्थकता का पथ सहज ही प्रशस्त हो सकता है। अस्तु, प्रातः उठते ही दिन भर की ऐसी योजना, दिनचर्या बना लेनी चाहिए, जिसमें आदर्शवादिता का, उत्कृष्टता का पूरा-पूरा समावेश हो। इस दिनचर्या का कड़ाई के साथ पालन करने का निश्चय भी उसी समय कर लेना चाहिए। वर्तमान स्थिति में आदर्शवादिता का जितना समावेश जीवन क्रम में हो सके, आरम्भ में उतना ही रखें। उच्च स्तर पर आज ही पहुँच सकना सम्भव न हो तो धीरे-धीरे चलें। धीरे-धीरे कदम बढ़ाएँ, दिनचर्या में उतनी आदर्शवादिता समन्वित करें, जितनी आज की स्थिति में सम्भव हो; किन्तु जो निश्चय कर लिया जाए, उसे कड़ाई से पालन अवश्य करें। संकल्पों को पूरा करना यही तो आत्मबल बढ़ाने का एक मात्र अभ्यास है। ‘निश्चय करना और उन्हें अधूरे छोड़ना’ यह दुर्बलता ही मनोबल को दिन-दिन गिराती चली जाती है। इसलिए आत्मबल बढ़ाने के अभ्यास के रूप में प्रातःकाल किये हुए निश्चयों को दिन भर कठोरतापूर्वक पालन करते रहने के लिए तत्पर तो होना ही है।

    मनुष्य में अनेक दोष भरे रहते हैं और अनेक गुणों का अभाव रहता है। हमें निरन्तर इन्हीं दोनों समस्याओं को हल करते रहना है। जो दोष हैं उन्हे हटाया जाए और जिन गुणों की कमी है, उन्हें बढ़ाया जाए। ये उभयपक्षीय चेष्टाएँ यदि नियमित और व्यवस्थित रीति से चलती रहें, तो हमारी कर्मयोग की साधना द्रुतगति से सफलता की ओर अग्रसर होती रहेगी।

    आमतौर से लोग कानूनी अपराधों को ही पाप समझते हैं। चोरी, डकैती, हत्या, व्यभिचार, बेईमानी आदि पुलिस की पकड़ में आने वाले अपराध ही पाप माने जाते हैं और नशेबाजी, जुआ, झूठ आदि बुराइयों को ही बुराई समझते हैं। यदि ये दोष अपने में नहीं हैं, तो अपने आप को निष्पाप मान लेते हैं। आत्म-कल्याण का उद्देश्य इतनी मोटी परिभाषा की परिधि में रहने से परिपूर्ण नहीं हो सकता। आध्यात्मिक दृष्टि से वे दुर्गुण भी पाप हैं, जो हमारे व्यक्तित्व के विकास में बाधा बनकर अड़े हुए हैं। हमें इनका भी निवारण करना होगा। आलस्य, प्रमाद, गन्दगी, कटुभाषण, आवेश, छिद्रान्वेषण, ईर्ष्या, चुगली, निन्दा, हरामखोरी, पक्षपात, स्वार्थपरता, अनुदारता, लोभ, परिग्रह, तृष्णा, वासना, असंयम, लापरवाही, भीरुता, कायरता, आशंका,अविश्वास, उच्छ्रंखलता, कृतघ्रता जैसे अनेक मानसिक दोष-दुर्गुण जो भले ही छुपे रहें, भले ही उपेक्षणीय समझे जायें पर अपने  व्यक्तित्व के विकास में यही सबसे बड़े बाधक हैं। हजार शत्रु मिलकर उतना अहित नहीं कर सकते, जितना ये मन की गुफा में छिपकर बैठे हुए अविज्ञात, अदृश्य शत्रु करते हैं। इसलिए अपने दोष-दुर्गुणों का निराकरण करने का अभियान चलाते हुए हर कर्मयोगी को बारीक दृष्टि से अपने क्रियाकलापों पर दृष्टि रखनी चाहिए कि उन आंतरिक शत्रुओं का कितना प्रभाव अपने ऊपर है और जब कभी अपना आधिपत्य जमाने का प्रयत्न करें, उन्हें तुरंत ही झिड़क देना चाहिए, लात मारकर भगा देना चाहिए। आंतरिक दोष-दुर्गुणों से निरन्तर संर्घष करते रहना ही वास्तविक महाभारत है। भगवान् ने गीता में अर्जुन को इसी संग्राम में कटिबद्ध रहने के लिए प्रोत्साहित किया है। यही कर्मयोग की आत्मा है। गीता के इस सन्देश को भगवान् द्वारा अपने लिए भी किया गया निर्देश मानना चाहिए और आत्मशोधन और आत्मसुधार के धर्मयुद्ध में निरन्तर जुटे रहना चाहिए।

    इन दुर्गुणों की अभावपूर्ति स्वभाव में, जीवन-क्रम में सद्गुणों के समावेश से ही हो सकती है। प्रयत्न यह भी किया जाना चाहिए कि हमारी दैनिक गतिविधियों में सद्गुणों की मात्रा निरन्तर बढ़ती रहे। पुरुषार्थ, परिश्रम, नियमितता, स्वच्छता, मधुर भाषण, मानसिक संतुलन, धैर्य, नम्रता, गुणग्राहकता, आत्मीयता, निष्पक्षता, न्याय-प्रियता, उदारता, संयम, सज्जनता, सच्चरित्रता, शिष्टता, सतर्कता, शौर्य, साहस, श्रद्धा, कृतज्ञता आदि सदगुणों का अपनी विचारणा एवं क्रियापद्धति में जितना अधिक समावेश होता चलेगा, उतनी ही आंतरिक महानता बढ़ेगी और जीवन-लक्ष्य की पूर्णता सरल होती चली जायेगी। इस अभिवर्धन का प्रयास भी हमें अहर्निश करना चाहिए। इस सन्दर्भ में जितनी अधिक तत्परता बरती जाए, समझना चाहिए कि उतनी ही कर्मयोग की साधना का योगाभ्यास सफलता पूर्वक चल रहा है।

जीवन-निर्वाह के लिए हमें अनेक प्रकार के छुटपुट काम करने पड़ते हैं। उन्हें प्रसन्नतापूर्वक करें, पर उनके पीछे दृष्टिकोण ऊँचा रखें। यही सोचते रहें कि इन कार्यों को पवित्र धर्म कर्तव्य की पूर्ति के लिए, लोक मंगल के लिए, भगवान् की सभी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए किया जा रहा है, लोभ, मोह, तृष्णा और वासना से प्रेरित होकर नहीं। स्वार्थपरता की संकीर्णता यदि दृष्टिकोण में से निकाल दी जाए, उसमें कर्त्तव्य पालन की भावना जोड़ दी जाए, तो सामान्य से दिखने वाले छुटपुट काम ही उच्चकोटि के पुण्य-परमार्थ बन सकते हैं।

    दृष्टिकोण ही सब कुछ है। मान्यताएँ बदलीं कि सब कुछ बदल जाता है। नरक को स्वर्ग में और पतन को उत्थान में परिणत कर देने का पूरा-पूरा श्रेय अपने दृष्टिकोण को ही है। अस्तु, हमें हर घड़ी यही प्रयत्न करना चाहिए कि हमारा प्रत्येक विचार और प्रत्येक कार्य उच्च आदर्शों से, पुनीत भावना से ओत-प्रोत हो। कर्मयोगी का भी आहार-विहार, रहन-सहन सामान्य लोगों जैसा होता है पर उसकी विचारणा, मान्यता एवं दृष्टि उच्च स्तर की होती है। हमें अपनी मनोभूमि को इसी प्रकार की बनाने के लिए जुट जाना चाहिए। हमें हर क्रिया-कलाप के पीछे ऐसा ही दृष्टिकोण जोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। इस दिशा में जितनी प्रगति होती चलेगी, हम जीवन लक्ष्य के उतने ही निकट पहुँचते चले जायेंगे।

    रात्रि को सोते समय हमें एक जीवन की समाप्ति का अनुभव करना चाहिए। आत्मिक प्रगति की दिशा में प्राप्त हुई सफलता के लिए भगवान् को धन्यवाद देते हुए, भूलों के लिए पश्चात्ताप करते हुए, निद्रा-माता की गोद में शांतिपूर्वक, संतोष और आनन्द अनुभव करते हुए निमग्र हो जाना चाहिए। हर दिन का जीवनक्रम इसी ढर्रे पर चलने लगे, तो समझना चाहिये कि कर्मयोग की साधना ठीक तरह होती चली जा रही है और इस मार्ग पर चलते हुए हम निश्चित रूप से मनुष्य जीवन के ईश्वरीय प्रयोजन को पूर्ण कर लेंगे।

    २- ज्ञानयोग दूसरी जीवन साधना है। विचारों में उत्कृष्टता, आदर्शवाद की ओर चलने की प्रेरणा, सत्य और असत्य की गुत्थी सुलझाने वाली विवेकशीलता जो साहित्य हमें प्रदान कर सके , उसको पढ़ना स्वाध्याय है। ऐसे ही विचारों को सुनना सत्संग है। हमारे दैनिक  क्रम में इस प्रकार के स्वाध्याय-सत्संग के लिए आवश्यक स्थान होना चाहिए। शरीर पर नित्य मल जमता है उसकी सफाई के लिए कुल्ला, दातौन, स्नान आदि की रोज व्यवस्था करनी पड़ती है। घर, बर्तन, कपड़े, फर्नीचर आदि को रोज साफ करना पड़ता है। इसी प्रकार संसार के दूषित वातावरण का जो दुष्प्रभाव हमारे मन पर जमता है, उसका परिष्कार करने के लिए प्रतिदिन स्वाध्याय की आवश्यकता पड़ती है। जिस प्रकार शरीर को आहार की जरूरत रहती है उसी प्रकार मस्तिष्क को भी भावनात्मक पोषक आहार देना होता है। यदि आत्मा को मलिन, बुभुक्षित और दुर्बल नहीं रखना है, तो स्वाध्याय का साधन हमें अनिवार्य रूप से जुटाना होगा। विवेक की स्थिरता और उत्कृष्टता की अभिवृद्धि के लिए ज्ञानयोग की साधना को अपनाये बिना किसी प्रकार का काम नहीं चल सकता।

    स्वाध्याय के नाम पर कई व्यक्ति हजारों वर्ष पूर्व की स्थिति में लिखी गई कथा-कहानियाँ हर रोज रटते रहते हैं। ये तथाकथित स्वाध्यायशील बेकार का कूड़ा-करकट ही उलटते-पलटते  रहते हैं। इससे किसी का कोई भला नहीं हो सकता। आज की परिस्थितियों के अनुरूप जो उत्कृष्टता का पथ-प्रदर्शन कर सके , ऐसा विवेक संगत, प्रकाश एवं प्रेरणा से परिपूर्ण साहित्य ही इस आवश्यकता को पूरा करेगा। इसलिए स्वाध्याय के लिए जो कुछ अपनाया जाए, उसे भली प्रकार परख लेना चाहिए कि जो पढ़ा-सुना जा रहा है, वह उपर्युक्त प्रयोजनों को पूरा करता है या नहीं। भ्राँतियों में उलझा देने वाले विचारों को तो अभक्ष्य विषैले आहार की तरह त्याज्य ही समझना चाहिए।

दैनिक नित्यकर्म में स्वाध्याय का समावेश करके हमें ज्ञानयोग की महती आवश्यकता पूर्ण करनी चाहिए; पर काम इतने से ही नहीं चलेगा। व्यक्ति और समाज की दुर्गति का एक मात्र कारण सद्भावनाओं एवं सद्विचारों का अभाव ही है। आज इसी दुर्भिक्ष के कारण संसार में सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई है। हमें इस अभाव की पूर्ति करनी चाहिए और जनमानस में सद्विचारणा का बीजारोपण करने के लिए सद्ज्ञान के प्रकाश को अधिकाधिक व्यापक बनाना चाहिए।

    युग निर्माण योजना द्वारा इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए इस युग का सर्वाेपरि ज्ञान यज्ञ आरम्भ किया गया है। उसमें सम्मिलित होकर हम मानव जाति की सबसे बड़ी कठिनाई को, सद्भावना के अकाल को दूर करने का पुण्य परमार्थ कर सकते हैं। शहद की मक्खियाँ जिस प्रकार फूलों का सार भाग अपने छत्ते में एकत्रित कर लेती हैं और उस मधु का सेवन करने वाला सहज ही लाभान्वित हो सकता है उसी प्रकार की पुण्य-प्रक्रिया युग निर्माण योजना के अंतर्गत चल रही है। अत्यन्त सस्ता, सर्वांग सुन्दर और प्रखर प्रकाश से परिपूर्ण साहित्य इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित किया जा रहा है।

    हमें ज्ञान यज्ञ का महत्त्व समझना चाहिए और उसके लिए रोज कम से कम आधा कप चाय या आधी रोटी की कीमत के बराबर धन का अंश रोज निकालना चाहिए। उस पैसे से घर में एक ज्ञान मन्दिर बनना चाहिए। अपने परिवा�
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