शिष्य संजीवनी

प्रत्येक साधक की सर्वमान्य सोच यही रहती है कि यदि किसी तरह सदगुरु कृपा हो जाय तो फिर जीवन में कुछ और करना शेष नहीं रह जाता है । यह सोच अपने सारभूत अंशों में सही भी है । सदगुरु कृपा है ही कुछ ऐसी-इसकी महिमा अनन्त- अपार और अपरिमित है । परन्तु इस कृपा के साथ एक विशिष्ट अनुबन्ध भी जुड़ा हुआ है । यह अनुबन्ध है शिष्यत्व की साधना का । जिसने शिष्यत्व की महाकठिन साधना की है, जो अपने गुरु की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरा है- वही उनकी कृपा का अधिकारी है । शिष्यत्व का चुम्बकत्व ही सदगुरु के अनुदानों को अपनी ओर आकर्षित करता है । जिसका शिष्यत्व खरा नहीं है- उसके लिए सदगुरु के वरदान भी नहीं हैं । गुरुदेव का संग-सुपास-सान्निध्य मिल जाना, जिस किसी तरह से उनकी निकटता पा लेना, सच्चे शिष्य होने की पहचान नहीं है । हालांकि इसमें कोई सन्देह नहीं है, कि ऐसा हो पाना पिछले जन्मों के किसी विशिष्ट पुण्य बल से ही होता है । परन्तु कई बार ऐसा भी होता है जो गुरु के पास रहे, जिन्हें उनकी अति निकटता मिली, वे भी अपने अस्तित्त्व को सदगुरु की परम चेतना में विसर्जित नहीं कर पाते ।

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