शिष्य संजीवनी

एक उलटबाँसी काटने के बाद बोने की तैयारी

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       शिष्य संजीवनी को शिष्यों ने अजस्र स्रोत के रूप में अनुभव किया है। इसके चिंन्तन्- मनन से उन्हें शिष्यत्व की सुगन्धि और पुष्टि का अहसास होता है। इससे उनकी भावनाएँ न केवल प्रगाढ़ होती हैं, बल्कि पवित्र भी होती हैं। इस क्रम में कइयों के मन में प्रश्र उठना स्वाभाविक है कि आयुर्वेद आदि चिकित्सा शास्त्र के ग्रन्थों में प्रत्येक संजीवनी के साथ अनुपान की विधि क्या है? सचमुच ही यह प्रश्र सार्थक है। प्रश्रकत्ताओं की भावनाओं की सघनता को दर्शाता है। इसके उत्तर में यही कहना है कि जो शिष्य संजीवनी का सेवन कर रहे हैं अथवा करना चाहते हैं, उन्हें इस उत्तम औषधि का सेवन अपनी समर्पित भावनाओं के साथ करना चाहिए। ये समर्पित भावनाएँ ही इस औषधि का अनुपान हैं।

        इस अनुपात के साथ यह औषधि अनेकों गुना प्रभावी हो जाती है। इसके शुभ परिणामों में भारी बढ़ोत्तरी हो जाती है। जो इस महासत्य को अनुभव कर रहे हैं, उन्हें अपनी नीरव भावनाओं में उस दिव्य तत्त्व की अनुभूति होती है- जो शिष्यत्व का सार है। यह क्या है? किस तरह है? इसके लिए शिष्य संजीवनी के नवें सूत्र पर चिंन्तन् करना होगा। इसमें शिष्यत्व की साधना करने वाले श्रेष्ठ साधक कहते हैं- ‘समर्पित भावनाओं की प्रगाढ़ता में नीरवता प्रकट होती है। यह नीरवता ही वह परम शान्ति है, जिसकी कामना सभी साधक करते हैं। इस शान्ति से ही परा वाणी की अनुगूंज प्रकट होती है। वह वाणी अपने परम मौन में शिष्य को कहती है कि काट तो तुम चुके अब तुम्हें बोना चाहिए। यह वाणी- शिष्य के अन्तःकरण की परम शान्ति एवं सघन नीरवता का ही एक रूप है। यह स्वयं तुम्हारे सद्गुरु के स्वर हैं। उन्हें विश्वास है कि तुम उनके आदेश का पालन करोगे। इस अवस्था में तुम अब ऐसे शिष्य हो जो अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। तुम ब्राह्मी चेतना के संकेतों को सुन सकते हो, देख सकते हो, बोल सकते हो। ऐसा इसलिए हो सका है, क्योंकि तुमने अपनी वासनाओं को जीत लिया है और आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है।

        अब तुम वह हो जिसने आत्मा को विकसित अवस्था में देख लिया है और पहचान लिया है। अब तुमने नीरवता के नाद को सुन लिया है। यह वह क्षण है जिसमें तुम उस ज्ञान मन्दिर में जा सकते हो, जो परम प्रज्ञा का मंदिर है और जो कुछ तुम्हारे लिए वहाँ लिखा है, उसे पढ़ो। नीरवता की वाणी सुनने का अर्थ है, यह समझ जाना कि एक मात्र पथ- निर्देश अपने भीतर से ही प्राप्त होता है। प्रज्ञा के मन्दिर में जाने का अर्थ है, उस अवस्था में प्रविष्ट होना, जहाँ ज्ञान प्राप्ति सम्भव होती है। तब तुम्हारे लिए वहाँ बहुत से शब्द लिखे होंगे और वे ज्वलन्त अक्षरों में लिखे होंगे। ताकि तुम उन्हें सरलतापूर्वक पढ़ सको। ध्यान रहे शिष्य के तैयार होने भर की देर है, श्री गुरुदेव तो पहले से ही तैयार हैं।’

     अब तक कहे गये पिछले सभी सूत्रों में यह सूत्र कहीं अधिक गहन है। लेकिन साधना का सारा व्यावहारिक ज्ञान इसी में हैं। जो साधना सत्य से परिचित हैं, उन्हें इसका अहसास है कि साधना के सारे पथ, सारे मत अपनी सारी विविधताओं- भिन्नताओं के बावजूद एक ही बात सुझाते हैं- नीरवता। ध्यान की विधियाँ, महामंत्रों के जप, प्राणायाम की प्रक्रियाएँ सिर्फ इसीलिए है कि साधक के अन्तःकरण में नीरवता स्थापित हो सके। यह नीरवता जो कि सभी आध्यात्मिक साधनाओं का सार है- शिष्य को अपनी सच्चाई में अनायास प्राप्त हो जाती है। उसकी समर्पित भावनाएँ- सघन श्रद्धा अपने आप ही उसे नीरवता का वरदान दे डालती है। आत्म पथ के जिज्ञासुओं के लिए यहाँ यह कहने का मन है कि मन को चंचल बनाने का एक ही कारण है मानव की तर्क बुद्धि। जितनी तर्क क्षमता उतना ही उद्वेग उतनी ही चंचलता। पर साथ ही इसमें हमारी जागरूकता के शुभ संकेत भी छुपे हैं। ये तर्क न हो- तर्कों का अभाव हो तो व्यक्ति का अन्तःकरण जड़ता से भर जायेगा। तर्कों के अभाव का अर्थ है ‘जड़ता’। यह स्थिति मूढ़ों की होती है।

     जो शिष्य हैं उनकी समर्पित भावनाओं में तांत्रिक प्रश्र स्वयं ही अपना समाधान पाते जाते हैं। ज्यों- ज्यों प्रश्रों के समाधान होते जाते हैं- त्यों तर्क विलीन हो जाते हैं। तब श्रद्धा का उदय होता है। श्रद्धा तर्क के विलय ही परम भाव दशा है। यहाँ न तो तर्कों का अभाव है और न ही तर्कों की दमन, बल्कि तर्कों की सम्पूर्ण विलीनता है। सघन श्रद्धा में ही नीरवता प्रकट होती है। परम शान्ति अथवा समाधि इसी के अनेकों रूप हैं। भेद शब्दों का है भावों का नहीं। यह सत्य शास्त्र अथवा पण्डित नहीं अनुभवी साधक बताते हैं। श्रद्धा की सम्पूर्णता को समाधि का नाम देना अतिशयोक्ति नहीं अनुभूति है। ईश्वर प्रणिधान की चर्चा करते हुए महिष पतंजलि भी इससे अपनी सांकेतिक सहमति जताते हैं।

    इस नीरवता की भावदशा में परम ज्ञान का उदय होता है। यही परम प्रज्ञा के महामंदिर का द्वार है। यहीं साधक का ब्राह्मी चेतना से संवाद होता है। यहीं उसे उसके सद्गुरु का परम ब्रह्म परमेश्वर के रूप में साक्षात्कार होता है। ‘गुरुर्ब्रह्मा, गुरुविष्णु गुरुरेव महेश्वरः, गुरुः साक्षात् परमब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः’ इस मंत्र के अर्थ की अनुभूति चेतना की इसी अवस्था में होती है। यहीं उससे कहा जाता है कि तुम अब काट चुके अब बोने की तैयारी करो। जिन्दगी के सामन्य क्रियाकलापों में बोने के बाद काटा जाता है। पर यहाँ बड़ी उलटबाँसी है, यहाँ काटने के बाद बोया जाता है।

   बुद्ध ने यही किया, महावीर ने यही किया, रमण महर्षी एवं परमयोगी श्री अरविन्द ने यही किया। प्रत्येक साधक यही करता है। हर एक शिष्य को यही करना है। इस अवस्था के ज्ञान के अक्षय कोष शिष्य के लिए खुल जाते हैं। श्री सद्गुरु उसे दक्षिणामूर्ति शिव के रूप में दर्शन देते हैं। सच में बड़ी आश्चर्य मिश्रित श्रद्धा और भक्ति के अलौकिक प्रवाह का उदय होता है उस समय। ये अपने परम पू. गुरुदेव ही दक्षिणामूर्ति शिव हैं। यह अनुभूति ऐसी है जिसे अनुभवी ही जान सकते हैं। इसे ठीक- ठीक न तो कहा जा सकता है और न ठीक तरह से सुना जा सकता है। जो जानता है उसके लिए बोलना सम्भव नहीं है। और यदि वह बोले भी तो सुनने वाले लिए ठीक तरह से समझना सम्भव नहीं है।

        गुरुदेव तो सदा से अपना खजाना लुटाने के लिए तैयार खड़े हैं, लेकिन शिष्य में पाने के लिए पात्रता इसी अवस्था में आती है। गुरुदेव के अनुदानों के रूप में शिष्य अपनी साधना की फसल काटता है। शिष्य को उसकी फसल सौंपते हुए गुरुदेव उससे कहते हैं कि अब तुम इसको बो डालो। एक बीज भी बेकार न जाने पाये। तुम बुद्ध पुरुषों की परम्परा को आगे बढ़ाओ। तुम जाग्रत हो गये अब औरों को जगाओ। सबने यही कही किया है- मैंने भी और मेरे गुरुदेव ने भी। तुम्हें भी अपने गुरुओं के योग्य शिष्य के रूप में यही करना है। ज्ञान की गंगा थमने न पाये- उठो पुत्र! आगे बढ़ो! इस आज्ञा का अनुपालन ही शिष्य का धर्म है।
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