भारतीय धर्म के अनुसार मनुष्यों को दो बार जन्म लेने वाला होना चाहिए। एक बार जन्म सभी कीट- पतंगों और जीव- जन्तुओं का हुआ करता है। एक बार जन्म का अर्थ है- शरीर का जन्म। शरीर के जन्म का अर्थ है- शरीर से सम्बन्धित रहने वाली इच्छाओं और वासनाओं, कामनाओं और आवश्यकताओं का विकास और उनकी पूर्ति। दूसरा जन्म है- जीवात्मा का जन्म, उद्देश्य का जन्म और परमात्मा के साथ आत्मा को जोड़ देने वाला जन्म। इसी का नाम मनुष्य है। जो मनुष्य पेट के लिए जिया, सन्तान उत्पन्न करने के लिए जिया, वासना और तृष्णा के लिए जिया, वो उसी श्रेणी में भावनात्मक दृष्टि से रखा जा सकता है, जिस श्रेणी में पशु और पक्षियों को रखा गया है, कीड़े और मकोड़ों को रखा गया है। कीड़े, मकोड़ों का भी उद्देश्य यही है- पेट पाले, बच्चा पैदा करे, दूसरा उनके सामने कोई लक्ष्य नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई आकांक्षा नहीं, कोई उद्देश्य नहीं। जिन लोगों के सामने यही दो बातें हैं, उनको इसी श्रेणी में गिना जायेगा। चाहे वो विद्वान् हों, पढ़े- लिखे हों, लेकिन जिनका अन्तःकरण इन दो ही क्रियाओं के पीछे लगा हुआ हैं, दो ही महत्त्वाकाँक्षाएँ हैं, उन्हें पशु योनि से आगे कुछ नहीं कह सकते, उनको नर- पशु कहा जायेगा।
भारतीय धर्म की एक बड़ी विशेषता यह है, जिसने नर को पशु की योनि में पैदा होने के लिए इनकार नहीं किया, लेकिन इस बात पर जोर दिया है कि जैसे- जैसे मानवीय चेतना का विकास होना चाहिए, उस हिसाब से उसको मनुष्य के रूप में विकसित होना चाहिए और मनुष्यता की जिम्मेदारियों को अपने सिर पर वहन करना चाहिए। मनुष्य की जिम्मेदारियाँ क्या हैं? मनुष्य की वे जिम्मेदारियाँ जो जीवात्मा की जिम्मेदारी है। भगवान् के उद्देश्यों को लेकर के मनुष्य को पैदा किया गया है, उसको पूरा करने की जिम्मेदारियाँ हैं। भगवान् ने मनुष्य को कुछ विशेष उद्देश्य से बनाया और उसके पीछे उसका विशेष प्रयोजन था। ऐसा न होता, तो जो अन्य कीड़े और मकोड़ों को, जीव और जन्तुओं को सुख- सुविधाएँ दी थीं, उससे ज्यादा मनुष्यों को क्यों दी होतीं?
मनुष्यों को बहुत सुविधाएँ दी गयी हैं। मनुष्यों को बोलना आता है, मनुष्यों को पढ़ना आता है, लिखना आता है, सोचना आता है। उसको इतनी बुद्धि मिली हुई है, जिससे उसने प्रकृति के अनेक रहस्यों को ढूँढ़ करके प्रकृति को अपने अनुकूल बना लिया है और जो सूक्ष्म शक्तियाँ हैं, उससे अपना काम लेना शुरू कर दिया है। जबकि दूसरे जीव और जन्तुओं को प्रकृति की शक्तियों के ऊपर नियंत्रण कर पाना तो दूर, उनका मुकाबला करने की भी सामर्थ्य नहीं है। ठंड पड़ती है, हजारों कीड़े- मकोड़े व मच्छर मर जाते हैं। गर्मी पड़ती है, हजारों कीड़े- मकोड़े मर जाते हैं। प्रकृति का मुकाबला करने तक की शक्ति नहीं है और प्रकृति को अपने वश में करने की शक्ति कहाँ?
ऐसा चिंतन और ऐसा मन, ऐसी विशेषताएँ और ऐसी विभूतियाँ और ऐसी सिद्धियाँ जो मनुष्यों को मिली हैं, उसे मनुष्यों को भगवान् ने अनायास ही नहीं दी हैं। पक्षपाती नहीं है भगवान्। किसी भी जीव के साथ में पक्षपात करे और किसी से न करे, ये कैसे हो सकता है? सारी की सारी योनियाँ और सभी जीव भगवान् को समान रूप से प्यारे थे। क्या कीड़े- मकोड़े क्या मनुष्य ? सभी तो उसके बालक हैं। कोई पिता अपने बालकों के साथ क्यों पक्षपात करेगा ? किसी को ज्यादा क्यों देगा? किसी को कम क्यों देगा? कोई न्यायशील पिता- सामान्य मनुष्य तक ऐसा नहीं कर सकता, तो भगवान् किस तरीके से ऐसा कर सकता है?