मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम जब रामराज्य की स्थापना के
संकल्प के साथ अयोध्या के राज सिंहासन पर बैठे, तब उन्होंने
विशेष दरबार में अपनों के सामने अपना मन खोलते हुए यह बात कही :-
मम सेवक- प्रियतम मम सोई।
मम अनुशासन मानइ जोई॥
अर्थात्- मेरा सेवक और मेरा सबसे अधिक प्रिय परिजन वही है, जो मेरा अनुशासन माने।
युगऋषि, परम पूज्य गुरुदेव, शक्तिस्वरूपा वन्दनीया माताजी ने
हमेशा ऐसे ही भाव व्यक्त किए हैं। वे कहते रहे हैं कि जो मुझे
प्यार करते हैं और मेरा विशेष प्यार चाहते हैं, वे मेरे बताए
जीवन- अनुशासनों के अनुपालन का अपना अभ्यास बराबर बढ़ाते रहें।
गुरुदीक्षा देते समय वे हमेशा यह तथ्य साधकों के सामने स्पष्ट
करते रहे हैं कि दीक्षा गुरु- शिष्य के बीच किया गया एक
अनुबंध, एक करार है। गुरु- शिष्य का संबंध दाता और भिखारी का
संबंध नहीं है। वह तो एक साझेदारी है, जिसमें दोनों पक्षों को
अपने- अपने हिस्से की लागत लगानी पड़ती है और जिम्मेदारी सँभालनी
पड़ती है। जिस तरह व्यवसाय जगत में समर्थ तंत्रों (कम्पनियों) के
साथ साझेदारी की जाती है, वैसे ही अध्यात्म जगत में गुरु एवं
ईश्वर के साथ साझेदारी की जाती है। गुरुदीक्षा या ईश्वर- भक्ति
इसी साझेदारी को कहते हैं।
युगऋषि ने यह कहा है तो युग साधकों को इसे याद रखना चाहिए
तथा उसके अनुरूप अपनी पात्रता बढ़ाते रहना चाहिए। भगवान राम के
उक्त कथन की तरह यह सूत्र बराबर ध्यान में रखना चाहिए।
गुरु प्रियपात्र सिद्ध होइ सोई।
गुरुअनुशासन मानइ जोई॥
जो साधक- शिष्यगण इस सूत्र को याद रखकर अपने गुरु- अनुशासनों
का पालन जितना अधिक अंशों में कर सकेंगे, गुरु के अनुदानों में
भागीदारी (शेयर) पाने की उनकी पात्रता उतनी ही बढ़ती जायेगी।