दीक्षा और उसका स्वरूप

दीक्षा के अंग-उपअंग

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    गुरु- दीक्षा के साथ गायत्री मंत्र हमको दिया जाता है और इस ख्याल से दिया जाता है कि इसका जप भी किया जायेगा, ध्यान भी किया जायेगा। जप और ध्यान करने के साथ- साथ में इसके अंदर जो शिक्षण भरा हुआ पड़ा है, जो दिशाएँ भरी हुई पड़ी हैं, उन दिशाओं को भी ध्यान में रखा जायेगा। बस यही गुरुदीक्षा का मतलब है।    

    मंत्र दीक्षा- दोनों हाथों के अँगूठे आपस में मिला लिये जाने चाहिए। कंधे और कमर को सीधे रखा जाना चाहिए। अपने अँगूठों के ऊपर निगाह रखी जानी चाहिए और ध्यान किया जाना चाहिए। भगवान् की प्रेरणा और भगवान् का प्रकाश अब हमारे अन्तरंग में आता है। जो आदमी गुरु दीक्षा करायें। मंत्र को स्वयं धीरे- धीरे बोलना चाहिए और जो आदमी बैठे हुए हैं, उनसे दोहराने के लिए कहना चाहिए और यह कहना चाहिए कि आप लोगों को ध्यान सिर्फ अँगूठे पर रखना है और जिस तरीके से कहा जा रहा है, उस तरीके से गायत्री मंत्र कहना चाहिए।    

    गुरू- दीक्षा का संस्कार कराने वाले टुकड़े- टुकड़े में गायत्री मंत्र कहें और बाकी लोग जो बैठे हुए हैं, उसको दोहराएँ। ॐ भूर्भुवः  स्वः तत् तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। इतने शब्दों को गुरु- प्रतिनिधि इस तरीके से कहें। उसके बीच में जब रुकने का समय आता है, दूसरे दीक्षा लेने वाले लोग उसको उसी तरीके से दोहराएँ अर्थात् एक टुकड़ा गायत्री मंत्र का दीक्षा संस्कार कराने वाला व्यक्ति कहे और बाकी उसी टुकड़े को उसके बाद के लोग कहें। बस इस तरह से कहने के बाद में जल के छीटे उनके ऊपर लगा दिये जाएँ और यह कहा जाए कि आपके अंदर पाप की जो आग जल रही थी, तृष्णा की जो आग जल रही थी, वासना की जो आग जल रही थी, इन मंत्रों के द्वारा उसको शांत किया जा रहा है। पानी के पात्र लेकर के लोग खड़े हो जाएँ और जो व्यक्ति अँगूठे को मिलाए हुए, निगाह लगाये हुए बैठे थे, उन सबके ऊपर जल के छीटे लगाये जाएँ और दीक्षा देने वाला व्यक्ति शांति पाठ करता जाए- ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष œ शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः, सर्वœशान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि ॥ इन मंत्रों के साथ पानी के पात्र लिये हुए लोग पानी के छींटे सब पर लगाते जाएँ और दीक्षा लेने वालों को कहें कि आप हाथ खोल लीजिए, आपकी दीक्षा का कृत्य समाप्त हो गया। ये दीक्षा का कृत्य हुआ ।    

    यज्ञोपवीत धारण- इसी तरीके से यज्ञोपवीत जिन लोगों ने लिया है, उन यज्ञोपवीत लेने वालों को बायें हाथ पर यज्ञोपवीत रखना चाहिए और दाहिने हाथ से इसको ढँक लेना चाहिए और ये ध्यान करना चाहिए कि हम इसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यज्ञ भगवान् और सूर्य नारायण, इन पाँच देवताओं का आवाहन कर रहे हैं और ये पाँच शक्तियाँ, पाँच तत्त्व जिनसे हमारा शरीर बना हुआ है, इन पाँच तत्त्वों की अधिनायक हैं। पाँच हमारे प्राण हैं और हमारे सूक्ष्म शरीर की पाँच प्रक्रियाएँ मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और जीवात्मा- ये पाँचों देवता माने गये हैं। पाँच शरीर में रहने वाले पाँच तत्त्वों को भी पाँच देवता माना गया है। इन शारीरिक और आध्यात्मिक पाँच देवताओं को यज्ञोपवीत में बुलाते हैं और ये ख्याल करते हैं कि ये यज्ञोपवीत में सारे जीवन भर हमारे साथ में रहा करेंगे।    

    बायें हाथ पर यज्ञोपवीत रखा और दाँयें से ढका और आँखें बंद की और ध्यान किया कि इसमें ब्रह्मा की उत्पादक शक्ति यज्ञोपवीत में प्रवेश कर रही है और यज्ञोपवीत कराने वाले सज्जन ब्रह्मा जी के आवाहन का मंत्र बोलें- ॐ ब्रह्म ज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेनऽ आवः। सऽबुध्न्या उपमाऽ अस्यविष्ठाः, सतश्च योनिमसतश्च विवः। ॐ ब्रह्मणे नमः। पुष्पाक्षत को सिर पर लगा लिया जाये और ध्यान किया जाए, ब्रह्मा जी हमारे इस यज्ञोपवीत में निवास करने के लिए विराजमान हुए।    

    अब इसके बाद में फिर ध्यान किया जाय कि विष्णु भगवान् इस यज्ञोपवीत में आये और विष्णु भगवान् ने इस यज्ञोपवीत में निवास करना शुरू किया। संस्कार कराने वाले सज्जन ये मंत्र बोलें- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे, त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पा œ सुरे स्वाहा ॥ ॐ विष्णवे नमः। मस्तक से हाथ लगा लिया जाए। ये ध्यान किया जाए कि विष्णु भगवान् हमारे इस यज्ञोपवीत में आये। अब इसके बाद शंकर भगवान् का ध्यान किया जाए और ये विश्वास किया जाए कि इस संसार की संहारक- संरक्षक और नियंत्रण में रखने वाली शक्ति हमारे इस यज्ञोपवीत में आयी और यहाँ आकर विराजमान हुई। संस्कार कराने वाले को ये मंत्र बोलना चाहिए- ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ, उतो त ऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः। ॐ रुद्राय नमः। मस्तक पर हाथ लगा लिया जाए, ध्यान किया जाए कि शंकर भगवान् हमारे इस यज्ञोपवीत में आए।     

    अब इसके बाद में यज्ञोपवीत को खोल दिया जाए और खोल करके अँगूठा, उँगली और दोनों हाथ के अँगूठे और उँगली के बीच में यज्ञोपवीत को फँसा दिया जाए। इस तरीके फँसाया जाए कि हथेली पर होकर के जनेऊ के धागे निकलते रहे और हाथ से इनको चौड़ा कर लिया जाए और हाथों को चौड़ा कर किया जाए और सीने के बराबर रखा जाए। ध्यान किया जाए कि यज्ञ नारायण इस यज्ञोपवीत में विराजमान हो रहे हैं। इस तरीके से यज्ञ नारायण के आवाहन का मंत्र बोला जाए- ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ ॐ यज्ञ नारायणाय नमः। अब इसके बाद में सूर्य नारायण का आवाहन करने के लिए दोनों हाथों को ऊपर उठा दिया जाए। आँखें बंद कर ली जाएँ और ध्यान किया जाए कि हमारे  इस यज्ञोपवीत में जो ऊपर तना हुआ है, इसमें सूर्य नारायण की शक्ति का आवाहन हो रहा है और यह मंत्र बोला जाए- ॐ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो, निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना, देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ ॐ सूर्याय नमः।

    इस तरीके से पाँच देवताओं का आवाहन करने के बाद पाँच व्यक्ति इन पाँच देवताओं के प्रतीक या प्रतिनिधि होकर अथवा पाँच सप्त जो शरीर में बने हुए उनके प्रतीक या प्रतिनिधि होकर व्यक्ति खड़े हो जाएँ और जिनको गायत्री मंत्र आता हो, यज्ञोपवीत पहनाने का मंत्र आता हो, उनको यज्ञोपवीत हाथ में ऊपर से ले लेना चाहिए। यज्ञोपवीत लेने वाले का दाहिना हाथ ऊपर रखवाना चाहिए और बायाँ हाथ नीचे कर देना चाहिए और पाँचों व्यक्ति को मिलाकर उसके बायें कंधे पर यज्ञोपवीत को धारण कराना चाहिए। यज्ञोपवीत धारण कराने के समय ये मंत्र बोला जाए- ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः। इस तरीके से यज्ञोपवीत पहना दिया जाए। बस यज्ञोपवीत संस्कार पूरा हो गया। यज्ञोपवीत संस्कार कराने के बाद यज्ञोपवीतधारी जिन्होंने यज्ञोपवीत लिये हैं, ये सिखाया जाना चाहिए कि यज्ञोपवीत के उद्देश्य क्या हैं और कर्तव्य क्या हैं?

    उद्देश्य- यज्ञोपवीत के दो उद्देश्य हैं- पहला उद्देश्य ये है कि भगवान् का प्रतीक और प्रतिनिधि यज्ञोपवीतरूपी धागा अपने बाएँ कंधे पर स्थापित करके आदमी को ये अनुभव करना चाहिए कि मेरा शरीर अब मंदिर के तरीके से हो गया। पाँचों देवताओं का प्रतीक सम्मिश्रित यज्ञोपवीत अर्थात् भगवान् की शक्तियों का समन्वय यज्ञोपवीत मेरे कंधे पर विराजमान है और भगवान् ने जो जिम्मेदारियाँ मेरे कंधे पर रखी हैं इस मनुष्य के जीवन को देकर के, मैं उन जिम्मेदारियों को निभाऊँगा। यज्ञोपवीत पहनने वाले को ये भाव रखना चाहिए कि मेरे हृदय के ऊपर भगवान् टँगे हुए हैं। यज्ञोपवीत के रूप में मेरा हृदय ऐसा होना चाहिए, जैसे भगवान् का है। वैसे मनुष्य का भी होना चाहिए। हृदय के अंदर करुणा होनी चाहिए, हृदय के अंदर निर्मलता होनी चाहिए। हृदय के अंदर दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिए और यज्ञोपवीत पहनने वाले को ध्यान रखना चाहिए कि मेरा कलेजा अर्थात् प्यार करने का स्तर।

    कहते हैं कि हमारे कलेजे में ये आदमी समा गया है और हमारे कलेजे में ये बात चुभ गयी है। ये बात मुहावरे के रूप में प्यार का अर्थ समझाती है। कलेजा अर्थात् प्यार। हम भगवान् को सर्वतोमुखी प्यार करते हैं और यज्ञोपवीत को पीठ के ऊपर रखा जाता है और ये ध्यान किया जाता है और ये विश्वास किया जाता है कि भगवान् हमारे पीठ पर विराजमान हैं। हमको श्रेष्ठ मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा देंगे और भगवान् के वाहन को जिस तरीके से होना चाहिए, मैं उसी तरीके से बनकर रहूँगा।

    भगवान् का वाहन गरुड़ और गायत्री माता का वाहन हंस। मैं गरुड़ के तरीके से साँपों को खाने वाला और श्रेष्ठ निर्मल भगवान् की भक्ति से ओत- प्रोत रहूँगा। साँपों को खाऊँगा, साँपों  (दोषों) को जिन्दा नहीं रहने दूँगा और हंस नीर और क्षीर का विवेक करने वाला। पानी नहीं पियेगा, दूध ही पियेगा, मोती ही खायेगा, कीड़े नहीं खायेगा। हंस सफेद ही रहेगा, काला- कलूटा धब्बेदार नहीं रहेगा। यही तो हंस है। अनुभव करना चाहिए कि हम गायत्री माता के हंस हैं और हमारी पीठ के ऊपर गायत्री माता सवार हैं- यज्ञोपवीत के रूप में। ये विश्वास अगर आदमी कर सके, तो यज्ञोपवीत धारण करने का पहला उद्देश्य पूरा हो जाये और फिर आदमी चारों ओर अपने- आप को भगवान् से लपेटा हुआ अनुभव करने के बाद में बुरे काम न करे और बुरे कामों से डर जाए और अपने अंदर की दुष्प्रवृत्तियों को हटाये।

    यज्ञोपवीत का दूसरा उद्देश्य यह है कि हमारे गले में धर्म का रस्सा बँधा हुआ है। हम धर्म बंधनों से बँधे हुए हैं और हम मर्यादाओं से बँधे हुए हैं और हम जिम्मेदारियों से बँधे हुए हैं और हम राष्ट्रीय और सामाजिक और नैतिक उत्तरदायित्वों से बँधे हुए हैं। उच्छृंखल हम नहीं हैं। जिस तरह से पशु के गले में रस्सा बाँध देते हैं और रस्सा बाँधने के पीछे यह विश्वास करते हैं कि यह जो रस्सा है, हमको सत्कर्मों के जंजीरों से बाँधे हुए हैं। ऐसा मनुष्य उच्छृंखल नहीं बनता है, अनुशासनहीन नहीं बनता। मनचाही बात नहीं कहता, सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करता। उसके गले में रस्सा बाँधा हुआ है।

नियम-

    ये दो उद्देश्य यज्ञोपवीत के और पाँच नियम यज्ञोपवीत के। पहला नियम यह है- प्रत्येक यज्ञोपवीत पहनने वाले आदमी को- दीक्षा लेने वाले आदमी को कम से कम एक माला का जप अर्थात् छः मिनट गायत्री मंत्र का जप करना ही चाहिए। नम्बर दो- पेशाब- टट्टी के लिए जाए, तो कान के ऊपर जनेऊ को चढ़ा लिया जाए। हाथ धोकर के जनेऊ को उतारा जाए। हाथ धोने के लिए पानी न हो, तो मिट्टी से हाथ माँज लिया जाए। मिट्टी भी न हो, पानी भी न हो, तो सूरज की धूप और हवा में पाँच बार हाथों को हिलाकर कर जनेऊ उतार सकते हैं। तीसरा नियम  ये है- कोई धागा खण्डित हो जाए या ६ महीने पुराना हो जाए, घर में किसी बच्चे का जन्म या मृत्यु हो जाए, तो पुराना जनेऊ उतार देते हैं और नया जनेऊ पहन लेते हैं। चौथा नियम यह है- जब साबुन लगाना हो, तो थोड़ा- थोड़ा हिस्सा करके साबुन लगाना चाहिए और उसको शरीर से बाहर नहीं निकालना चाहिए। शरीर से बाहर जब जनेऊ को निकाल देते हैं, तो यह बेकार हो जाता है फिर नया जनेऊ पहनना पड़ता है। इसलिए थोड़े- थोड़े हिस्से को साबुन लगाना चाहिए। उसको वहीं सफाई कर लेनी चाहिए। पाँचवाँ नियम यह है कि इसमें चाबी के गुच्छे वगैरह नहीं बाँधना चाहिए। बस, यज्ञोपवीत के पाँच नियम और दो उद्देश्य हैं- यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति जब दीक्षा लें, उस समय उन्हें कुछ नियम और प्रतिज्ञाएँ लेनी चाहिए।
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