युगऋषि को श्रद्धांजलि अर्पित करने का सूत्र है

शिष्यत्व का स्तर बढ़ता रहे

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गुरु-सिखाने वाले का स्तर अच्छा हो, यह जरूरी है, किन्तु प्रगति के लिए सीखने वाले के स्तर का भी तो महत्त्व होता है। इसीलिए उच्च स्तरीय शिक्षण संस्थान हर किसी को प्रवेश नहीं देते। परीक्षा लेकर योग्य छात्रों को प्रवेश देने के बाद भी शिक्षकों की योग्यता का लाभ सभी शिष्य एक जैसा कहाँ उठा पाते हैं? पहले उल्लेख किया जा चुका है कि हर शिष्य, साधक, छात्र अपनी धारण करने की क्षमता के अनुसार ही लाभ उठा पाता है। गायत्री महाविज्ञान में गुरुवर आत्मकल्याण की तीन धाराओं का उल्लेख करते हुए लिखते हैं -

    आध्यात्मिक साधना का क्षेत्र तीन भागों में बँटा हुआ है। तीन व्याहृतियों में उनका स्पष्टीकरण दिया गया है। १-भूः, २-भुवः, ३-स्वः, यह तीनों भूमिकाएँ मानी गयी हैं। भूः- स्थूल जीवन, शारीरिक एवं सांसारिक जीवन। भुवः का अर्थ है अंतःकरण चतुष्टय-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का कार्यक्षेत्र। स्वः का अर्थ है-विशुद्ध आध्यात्मिकता। इन तीन स्तर की मनोभूमियों के अनुरूप दीक्षा के भी तीन स्तर बताये गये हैं।

१. प्रथम चरण ‘भूः’ स्तर के लिए मंत्रदीक्षा’।

२. दूसरे चरण ‘भुवः’ स्तर के लिए प्राणदीक्षा’ या ‘अग्निदीक्षा’।

३. तीसरे चरण ‘स्वः’ स्तर के लिए ब्रह्मदीक्षा’। इन तीनों कक्षाओं का खुलासा करते हुए  गुरुवर लिखते हैं -

   १. मंत्रदीक्षा - मंत्र का अर्थ है विचार-सलाह।   मंत्रदीक्षा के समय शिष्य यह प्रतिज्ञा करता है कि ‘‘मैं गुरु का आदेश, अनुशासन पूर्ण श्रद्धा के साथ मानूँगा। समय-समय पर उनकी सलाह से अपनी जीवन नीति निर्धारित करूँगा। अपनी सभी भूलें निष्कपट रूप से उन पर प्रकट कर दिया करूँगा।’’ यह दीक्षा वैखरी वाणी से दी जाती है। गुरु पहले चरण में उन्हें उपासना, साधना और आराधना के सुगम नियम बताते हैं। क्रमशः उनका स्तर बढ़ाया जाता है। जब साधक को आत्मोन्नति के नियमों का पालन करने में उत्साह आने लगता है। तब वह दीक्षा की दूसरी  कक्षा का अधिकारी बनता है।

२. प्राणदीक्षा - भुवः भूमिका में पहुँचने पर प्राणदीक्षा या अग्निदीक्षा दी जाती है। इस भूमिका में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चतुष्टय का शोधन, परिमार्जन एवं विकास होता है। यह कार्य मध्यमा एवं पश्यन्ती वाणी द्वारा किया जाता है।

इस स्तर के साधक की मनोभूमि स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं -

    साधारण लोग आत्मोन्नति की ओर कोई ध्यान नहीं देते। थोड़ा-सा ध्यान देते हैं, तो उसे भारी बोझ समझते हैं। कुछ जप-तप करते हैं तो उन्हें अनुभव होता है कि मानो बहुत बड़ा मोर्चा जीत रहे हों। परन्तु जब आंतरिक स्थिति भुवः क्षेत्र में पहुँचती है, तो साधक को बड़ी बेचैनी और असंतुष्टि होती है। उसे अपनी साधना बहुत साधारण और उन्नति बहुत मामूली दिखाई पड़ती है। उसे छटपटाहट होती है कि किस प्रकार शीघ्र ही लक्ष्य तक पहुँच जाऊँ। ... आत्मा में ज्ञानाग्नि का प्रकाश होते ही साधक को अपनी छोटी-छोटी भूलें, बुराइयाँ, कमियाँ भली प्रकार दीख पड़ती हैं। जिन गलतियों को साधारण श्रेणी के लोग कतई गलती नहीं मानते, उनका नीर-क्षीर विवेक वह करता है, मानसिक पापों तक से दुःखी होता है।

    जब प्राणदीक्षा होती है तो गुरु अपना प्राण शिष्य के प्राण में घोल देता है। तब शिष्य अपने दोषों को पहचानने, उन्हें परास्त करने में सक्षम होने लगता है। प्राणदीक्षा-अग्निदीक्षा की दिव्य अग्नि से तपकर साधक का अंतःकरण पुष्ट हो जाता है। उसमें गुरु के सामने अपनी पात्रता सिद्ध करने का साहस तथा मनोबल जाग जाता है। इस स्थिति के बारे में वे लिखते है-

    अग्नि दीक्षा पाकर शिष्य गुरु से पूछता है कि ‘‘आदेश दीजिए कि मैं आपके लिए क्या गुरु-दक्षिणा उपस्थित करूँ?’’ गुरु देखता है कि शिष्य की मनोभूमि, सामर्थ्य, योग्यता, श्रद्धा, त्यागवृत्ति कितनी है, उसी आधार पर वह उससे गुरु-दक्षिणा माँगता है। यह माँग अपने लिए रुपया, पैसा, धन, दौलत के रूप में कदापि नहीं हो सकती। सद्गुरु सदा परम त्यागी, अपरिग्रही, कष्ट-सहिष्णु तथा स्वल्प संतोषी होते हैं। उन्हें अपने शिष्य से या किसी से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं होती। जो गुरु अपने लिए कुछ माँगता है, वह गुरु नहीं। ऐसे व्यक्ति गुरु जैसे परम पवित्र पद के अधिकारी कदापि नहीं हो सकते। अग्निदीक्षा देकर गुरु जो कुछ माँगता है, वह शिष्य को अधिक उज्ज्वल, अधिक सुदृढ़ अधिक उदार, अधिक तपस्वी बनाने के लिए होता है।... साधक को अपनी महानता पर आत्मविश्वास कराने के लिए गुरु अपने शिष्य से गुरु-दक्षिणा माँगता है। शिष्य उसे देकर धन्य हो जाता है। शिष्य जब गुरुसत्ता की इस कसौटी पर  खरा सिद्ध होता हो जाती है तब वह अगली कक्षा में प्रवेश कर सकती है।

   
३. ब्रह्मदीक्षा -
इस संदर्भ में पूज्यवर लिखते हैं . ‘‘पिछली दो कक्षाओं को पार कर जब साधक तीसरी श्रेणी में पहुँचता है, तब उसे सद्गुरु से ब्रह्मदीक्षा लेने की आवश्यकता होती है। यह परावाणी से होती है। जीभ वैखरी वाणी बोलती है। मन ‘मध्यमा’ बोलता है। हृदय की वाणी पश्यन्ति कहलाती है; और आत्मा परावाणी बोलती है। ब्रह्मदीक्षा में जीभ, मन, हृदय; किसी को नहीं बोलना पड़ता। एक आत्मा के अंतरंग क्षेत्र में जो अनहद ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे दूसरी आत्मा ग्रहण करती है। उसे ग्रहण करने के बाद वह भी ऐसी ही ब्राह्मीभूत हो जाती है, जैसे थोड़ा दही पड़ने पर औटाया हुआ दूध भी पूरा का पूरा दही बन जाता है।  लकड़ी का टुकड़ा या कोयला भी अग्नि के सान्निध्य से अग्नि के गुणों वाला हो जाता है। ब्रह्मदीक्षा की दक्षिणा उन्होंने आत्मदान को बताया है।
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