युगऋषि ने कहा है कि दक्षिणा में जो नियम निभाने के संकल्प कराये गये हैं, वे व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने, समर्थ बनाने के आध्यात्मिक व्यायाम हैं। व्यायाम कभी- कभी करने से स्वास्थ्य नहीं सुधरता, बल्कि शरीर और दर्द करने लगता है। इसी प्रकार दीक्षा के अनुशासन नियमित रूप से पालने से ही साधक के दिव्य संस्कार उभरते हैं, कभी- कभी करने से तो उलटे अनगढ़, अहंकार और बढ़ने लगता है।
अपनाये गये नियमों के पालन में ईमानदारी बरतने से श्रद्धा सबल होती जाती है। यदि ईमानदारी न बरती जाय, केवल दिखावा किया जाएँ, तो कायरता विकसित होने लगती है। हममें से हर साधक को चाहिए कि वह श्रद्धा को सबल बनाने का ही क्रम अपनाए। श्रद्धा सबल हो कर ही दिव्य अनुदानों को सँभाल पाती है। कायरता तो दुर्गति को ही न्योता देती है। अस्तु, सच्चा शिष्यत्व निभाने, उसके दिव्य लाभ पाने के लिए दीक्षा के समय स्वीकार किए गये अनुशासनों- अनुबन्धों का पालन नियमितता एवं ईमानदारी के साथ ही करना पड़ता है।
अपनी समीक्षा करने पर यह तथ्य सामने आता है कि बहुत बड़ी संख्या में नर- नारी युगऋषि को अपना गुरु मानते हैं। उनका जय- जयकार भी खूब करते हैं तथा प्रयास करने पर भी काम पूरे न होने का रोना भी खूब रोते हैं। किन्तु दीक्षा के समय दक्षिणा के रूप में संकल्पित नियमों के पालन में नियमितता तथा ईमानदारी का स्तर नहीं सुधारते। यदि दुर्भाग्य से बचना है, असाधारण सौभाग्य प्राप्त करना है, तो जल्दी से जल्दी भूल सुधार करना होगा।