परिवार निर्माण

स्वच्छता एवं सुव्यवस्था परिवार भर को सिखाएँ

<<   |   <   | |   >   |   >>
       स्वच्छता के बिना सुन्दरता नहीं रह सकती। कितनी भी भव्य इमारत हो, उसकी सफाई, देख- रेख न की जाये तो न तो वह आकर्षक लगेगी, न ही टिकेगी। कितना भी सुन्दर बच्चा हो, यदि गन्दगी लिपटी हो, तो लोग उसे हाथ लगाने में झिझकेंगे तथा माँ और अभिभावकों को कोसेंगे। इसलिये स्वच्छता एवं सुव्यवस्था की आदत घर के प्रत्येक सदस्य में डाली जानी चाहिए। व्यक्तित्व की अतिरिक्त स्वच्छता का सम्बन्ध मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक प्रगति से तो है ही स्वास्थ्य से भी है। बाहरी स्वच्छता का भी स्वास्थ्य एवं मानसिक प्रसन्नता से सीधा सम्बन्ध है। वा. ४८/१.४३

      घर के सभी सदस्यों को प्रातः उठकर शौचादि कर्म से निवृत्त हो मंजन एवं स्नान करने का नियमित अभ्यास होना चाहिए। बचपन से ही यदि शौच या मंजन की नियमितता की आदत नहीं बनी तो बाद में शौच की अनियमितता पेट- सम्बन्धी गड़बड़ियों का कारण बनती है, मंजन न करने से दाँत- मसूड़े खराब हो जाते हैं। युवावस्था में ही दाँत- दर्द एवं दाँतों के गिरने के कष्ट का सामना करना पड़ता है। जिन्हें नित्य स्नान का अभ्यास नहीं रहा या स्नान के सम्बन्ध में जिनके स्वभाव में आलस्य- प्रमाद जड़ जमा बैठा, उन्हें हाथ- मुँह धोकर चेहरे पर क्रीम- पाउडर लगा लेने की आदत बन जाती है। ऐसों के शरीर से पसीने की दुर्गन्ध निकलती है और अस्वच्छता से फुन्सियाँ, रक्तविकार आदि उत्पन्न होते हैं। ठीक से स्नान करने का भी हमारे यहाँ अधिकांश लोगों को अभ्यास नहीं कराया जाता है। किसी प्रकार नदी- तालाब में डुबकी लगा लेना या बाल्टी दो बाल्टी पानी लोटे से शरीर के ऊपर डाल लेना स्नान नहीं। ऐसे नहाने की आदत बन जाने पर रोज- रोज नहाने वालों के भी शरीर में मैल की परत जमती जाती है। घुटने, कोहनी, कनपटी, टखने, एड़ी जैसी जगहों में ऐसे लोगों के प्रायः मैल जमी देखी जाती है। अतः ठीक से स्नान कर मैल छुड़ाने, तौलिये से शरीर रगड़कर पोंछने की आदत हर सदस्य को डाली जानी चाहिए।

     यही बात कपड़ों के बारे में है। नीचे मैली- कुचैली चड्डी बनियान या गन्दा पेटीकोट आदि पहनकर ऊपर से चमकती साड़ी या कुर्ता- धोती, पैंट, पतलून पहन लेना ही वस्त्रों की स्वच्छता नहीं। शरीर से लगने वाले कपड़े भी सदा स्वच्छ रखने चाहिए। उन्हें नित्य धोया जाना चाहिए। ऊपर पहनने वाले कपड़े भी अपनी शक्ति के अनुसार सादे, अच्छे एवं स्वच्छ रहने चाहिए।

      प्रत्येक सदस्य शौचालय एवं स्नानघर स्वच्छ रखने में सहभागी बनें, यह प्रवृत्ति परिवार में विकसित की जानी चाहिए। ‘फ्लश सिस्टम’ के पाखाने हों तो उनमें पर्याप्त पानी डाला जाय तथा ब्रुश- विम आदि द्वारा उनकी सफाई की जाय। कच्चे पखानों में रेत या राख का टोकरा रखा रहे, हर सदस्य मलविर्सजन के बाद उसे मैले पर ऊपर से डाल दे और टोकरा फिर भरकर रख दे। मेहनत द्वारा नियमित सफाई की व्यवस्था की जाय। भली- भाँति पानी डालकर कड़ी बुहारी द्वारा धोया जाय और फिनाइल मिला जल छोड़ा जाय। पेशाब जाने के बाद भी हर व्यक्ति को पानी डालने की आदत होनी चाहिए। देहातों में भी गड्ढे वाले पाखाने और पेशाबघर बनाये जाने चाहिए ताकि जहाँ- तहाँ गन्दगी न फैले और न ही परेशानी उठानी पड़े या बेपर्दगी अपनानी पड़े, साथ ही उसका इस्तेमाल खाद के रूप में हो सके। गड्ढे न बन पायें तब तक लोटे के साथ खुरपी लेकर जाने की परम्परा डाली जाय और खुरपी से गड्ढा खोदने के बाद वहीं मल- त्याग किया जाय तथा उसे ढक दिया जाय। मलमूत्र विसर्जन के स्थानों पर नाकबन्द करके जाना और जैसे- तैसे भागने की सोचना स्वच्छताप्रियता नहीं है। उन स्थानों को स्वच्छ रखना ही स्वच्छता है, यह हर एक को बताया- सिखाया जाय। जिस प्रकार हमारे शरीर में पाचन प्रक्रिया का जितना महत्व है, उतना ही मल- विर्सजन प्रक्रिया का भी। उसी प्रकार घर में रसोई घर को जितना साफ रखा जाता है, उतना ही टट्टी या पेशाब घर को।

      स्नान घरों में भी सफाई रखने में हर सदस्य सहयोग करे। कपड़े धोने या नहाने के बाद स्नानघर में साबुन का झाग और मैला पानी फैले रहने देने की लापरवाही को टोका- सुधारा जाय। स्नानघर सदा स्वच्छ रखा जाना चाहिए, ताकि वहाँ न तो गन्दगी रहे, न ही काई जमे।

       रसोई को भी भली- भाँति साफ रखा जाना चाहिए। अन्न के कणों- टुकड़ों को समेट कर पशु- पक्षियों को खिला देना चाहिए या कूड़ेदान में डाल देना चाहिए। थाली में डाले गए अन्न के सड़ने से असह्य दुर्गन्ध उत्पन्न होती है, वहाँ कीड़े पैदा हो जाते हैं। दुर्गन्ध और कीड़े दोनों स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं। भोजन के समय थाली- लोटे, गिलास- कटोरी आदि में कहीं जरा भी मिट्टी- जूठन लगी हो तो खाने से मन बिदक जाता है। इसलिये बर्तनों की धुलाई- सफाई के साथ ही उन्हें ठीक से रखने की भी चिन्ता करनी चाहिए और इस्तेमाल के पूर्व फिर से देख लेना चाहिए कि स्वच्छ तो है। धूल- मिट्टी लग गई हो तो साफ कर लिये जायें। रसोई का फर्श पक्का है तो गीले टाट से पोंछना जरूरी होता है। कच्ची रसोई में लिपाई करना आवश्यक होता है। चौका- रसोई की स्वच्छता और खाद्य पदार्थ रखने के स्थान की स्वच्छता का ध्यान रखने से ही भोजन व्यवस्थापिका की सुघड़ता का पता चलता है। खाद्य पदार्थ सीलन भरी जगह में न रखे जायें, उन्हें ढककर रखा जाय और समय- समय पर सुखाते रहा जाय, सफाई तथा खाद्य पदार्थों को ढकने का ध्यान न रखने पर चूहे, मकड़ी, छिपकली, तिलचट्टे, झींगुर, घुन, पई आदि अनेक छोटे- बड़े कीड़ों के उपद्रव का डर रहता है। उनका थूक, मल- मूत्र आदि पेट में पहुँच सकता है और हानि पहुँचा सकता है। ये कीड़े- मकोड़े वहीं मर गये और उनके टुकड़े खाद्य- पदार्थ के साथ पेट में पहुँचे तो विषैली प्रतिक्रिया उत्पन्न करेंगे।

      पीने के पानी की स्वच्छता के लिए प्रयुक्त छानने वाले कपड़े को साबुन से धोना तथा सुखाना आवश्यक होता है। पानी को भी ढककर रखना होता है। पेय जल का पात्र रखने के लिये लकड़ी की तिपाई या पक्की चकती का प्रबन्ध कर लेना चाहिए। पानी भरने के घड़े भीतर से भली- भाँति धोए जायँ, लोटा- गिलास आदि धोकर ही पानी लिया दिया जाए। ये सभी आदतें बच्चों में शुरू से ही डाली जानी चाहिए। सभी कमरों, मेज, कुर्सी, पलंग, फर्नीचर समेत घर भर का एक कार्य नित्य झाड़- पोंछ, सफाई होनी चाहिए। इस काम की जिम्मेदारी फेर बदल कर दी जाती रहना चाहिए। वा. ४८/१.४४

          साप्ताहिक सफाई छुट्टी के दिन की जानी चाहिए। उस दिन घर भर के लोग सोत्साह उसमें जुटें। उस दिन घर के कोनों में, दीवाल व छतों में जमा हो गये जाले, बर्र- ततैये के छत्ते वगैरह साफ करें। आस- पास की भी सफाई कर डालें। नालियों, कूड़ेदानों को साफ कर लें। कुँआ हो तो उसके आसपास की सफाई कर दें। पाखाना आदि सब स्थान भली- भाँति धो डाले जायें। काँच वगैरह सब साफ कर डालें। उसी दिन ओढ़ने- बिछाने के कपड़े आदि सुखा लें। जूते- चप्पलों की मरम्मत कर डालें। परिवार के सभी सदस्य उत्साहपूर्वक इसमें जुटें तो काम सरलता से निपट जाता है और मनोरंजन भी होता है।

         कभी- कभी विशेष सफाई का अभियान भी चलाना चाहिए। वर्षा की समाप्ति के बाद और ग्रीष्म ऋतु में पूरे घर की सफाई- मरम्मत का काम आवश्यक होता है। नियमित सफाई के बाद भी नमी बनी रहने तथा धूप कम होने के कारण मकान और सामान की हालत खराब हो जाती है। कपड़ों में नमी चढ़ जाने से उनमें गंध आने लगती है, मकान में सीलन आ जाती है।

          जहाँ हवन होता रहता है, वहाँ कीटाणु बहुत कुछ नष्ट होते रहते हैं, तो भी वर्षा की समाप्ति पर एक बार घर की पूरी तरह सफाई जरूरी होती है। दीपावली का त्यौहार इस प्रयोजन की पूर्ति कर देता है। दैनिक एवं साप्ताहिक सफाई में परिवार भर के लोगों द्वारा सहयोग का अभ्यास हो गया तो इस वार्षिक सफाई में भी बहुत सारा काम घर के सदस्य सम्हाल लेते हैं और खर्च कम पड़ता है।

          वास्तविक बात यह है कि यदि स्वच्छता का सिद्धान्त मन में बैठ गया तो हरेक को गन्दगी खटकेगी, कुरूपता, अस्त- व्यस्त को हटाने की इच्छा उठेगी उसमें आलस्य और प्रमाद की गुंजाइश नहीं रहेगी। कहीं थोड़ी भी अस्वच्छता दिखाई देगी, अव्यवस्था अनुभव होगी तो गृहणी या परिवार के सदस्य को खटकने लगेगी और तब कहीं अस्वच्छता, अस्त- व्यस्तता का रहना सम्भव न होगा। प्रायः अपने परिवारों में शौकीनी ठाठ- बाट और फैशन के नाम पर थोड़ी साज, सजावट दिखाई देती है।

           तीज- त्यौहार, विवाह- शादी अथवा किसी महत्वपूर्ण अतिथि के आने के अवसर पर सफाई में उत्साह दिखाई देता है, अन्यथा चारों ओर अस्वच्छता का ही साम्राज्य छाया रहता है। स्वभाव न होने से वह खटकती भी नहीं है। कमरों में कपड़े अस्त- व्यस्त, कापी- किताबें इधर- उधर बिखरी हुई, सामान अव्यवस्थित, आलस्यवश सब ऐसा ही पड़ा बिखरा रहता है। रसोई में बरतन इधर- उधर फैले, धुयें की कालिख का साम्राज्य, धूल भरे जाले लटके रहते हैं। आँगन में बच्चों ने सब में कूड़ा- करकट फैलाया हुआ। कहीं साग की टोकरी पड़ी है तो कहीं अनाज का टीन। एक तरफ कुर्सी पड़ी है तो बीच रास्ते में चौकी। स्नान घर में पानी बह रहा है, काई जम गई, सीलन और पेशाब की बदबू आ रही है, पाखाने से दुर्गन्ध फैल रही है, पानी डालने की किसी को फुरसत नहीं है, मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। ध्यान दीजिए, यह दृश्य कहीं अपने यहाँ का ही तो नहीं है? यदि ऐसा ही है तो हमें मानना चाहिए कि हम घर में नहीं नरक में रह रहे हैं।

          हम घर की थोड़ी बहुत सफाई करते भी हैं तो घर तो साफ करते हैं और गन्दगी घर के सामने डाल देते हैं, सड़क पर गिरा देते हैं, अपनी नाली साफ करके कचरा, मैला पड़ोसी के दरवाजे की ओर बढ़ा देते हैं। यह बहुत ही गन्दी और अनैतिक आदत है। अपनी खुद की सफाई के साथ- साथ सार्वजनिक सफाई का भी ध्यान रखें। जिसके मन में स्वच्छता सिद्धान्त एवं अभ्यास रूप में आ जायेगी वह घर और बाहर सब जगह स्वच्छता के नियमों का पालन करेगा। चलते- फिरते, उठते- बैठते, खाते- पीते कहीं भी वह उनका उल्लंघन नहीं करेगा। जहाँ- कहीं उसका विकृत रूप देखेगा उसे खटकेगा और वह उसे ठीक करने का प्रयत्न करेगा। स्वच्छता का अर्थ है सभ्यता। स्वच्छता से सभ्यता, नागरिकता और स्वस्थ व्यक्त्वि का बोध होता है। अस्वच्छता- अस्वस्थ वातावरण और असभ्यता की परिचायक होती है। वा. ४८/१.४५

           अव्यवस्था का अभ्यास हो गया तो मौका पड़ने पर कोई काम समय पर शुरू ही नहीं हो पाता। पहले बिखरे सामान को सम्हालने में ही जुटना पड़ता है। अव्यवस्था से मनःस्थिति भी प्रभावित होती है। जहाँ व्यवस्था है वहाँ चित्त में स्फूर्ति रहती है, कार्य में सुगमता रहती है। व्यवस्थित कमरे और घर की छाप देखने वालों पर अच्छी पड़ती है।

स्कूल से लौट आने के बाद बच्चे अपना बस्ता कहीं फेंकते हैं, जूता कहीं और कपड़े जैसे- तैसे उतारकर पटक देते हैं। उस समय उन्हें हर वस्तु को यथास्थान रखने का मार्गदर्शन दिया जाना आवश्यक है। बड़ों को वैसा प्रत्यक्ष मार्गदर्शन न देकर कुशलता एवं नम्रता का आश्रय लेना होता है। वे जो सामान अस्त- व्यस्त कर दें, उसे उन्हीं के सामने सहेजा जाय। कभी- कभी मौका देखकर सुव्यवस्था के आवश्यकता की चर्चा की जाये। जूते नियत स्थान पर पंक्तिबद्ध रखे जाएँ। कपड़े हेंगर या खूँटी पर ही टाँगे जायें। धुलने के योग्य कपड़े भी एक जगह बाँधकर या पेटी में भरकर रखे जायें। किताब, कागज, कलम, पुस्तक, पेन्सिल बच्चे चाहे जहाँ न बिखेर दें। बड़े लोग अखबार पढ़ने के बाद उसे यों ही न पटक दें, निश्चित स्थान पर रखें। रद्दी कागज रद्दी की टोकरी में ही डाले जायें। कलम रुक जाये तो निब को फर्श दीवाल पर न छिड़का जाय। रद्दी कागज से पोंछ लिया जाय। पान की पीक, थूक को चाहे जहाँ न फेंके- पटकें। बीड़ी- सिगरेट जो पीते हैं वे उसके बचे टुकड़े व राख निश्चित जगह ही रखें- गिरायें। माचिस की बुझी तीली चाहे जहाँ न फेकी जाय।

            ये सब बातें हैं तो छोटी- छोटी पर घर के सब लोगों को इनका प्रशिक्षण दिया जाय, तो उनके व्यक्तित्व में व्यवस्थाप्रियता का समावेश होता चला जाता है। स्वच्छता एवं सुव्यवस्था ही सौन्दर्य दृष्टि का निर्माण करते हैं। व्यक्ति की सुरुचि- सम्पन्नता तथा सुघड़ता व्यवस्थाप्रियता का पता उनकी इन्हीं प्रवृत्तियों के प्रत्यक्ष प्रतिफल को देखकर चलता है। छोटी- छोटी आदतों के तिनके मिलकर ही व्यक्त्वि का घोंसला बनाते हैं। अतः हर परिवार में इन प्रवृत्तियों के प्रशिक्षण पर ध्यान दिया जाना चाहिए। वा. ४८/१.४६
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118