जीवन में अनेकों अवसर ऐसे आते हैं जब कुछ निर्णय लेते नहीं बनता । परस्पर विरोधी विचारधाराओं के आ जाने पर बुद्धि भ्रमित हो जाती है तथा यह निर्णय नहीं हो पाता किसे स्वीकारा तथा किसे अस्वीकारा जाये। बुद्धि की कसौटी पर कसने पर तो दोनों प्रकार के विचार उपयोगी लगते हैं। ऐसी विषम स्थिति में निर्णय का दायित्व बुद्धि के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता । इस स्थिति के निवारण के लिए ‘शास्त्र’ विवेक के अवलम्बन का निर्देश देते हैं।
गायत्री की २४ शक्ति- धाराओं में एक धारा है- ऋतम्भरा की। इसी को प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि की उत्कृष्टतम स्थिति। इसे ही व्यावहारिक भाषा में विवेक कहते हैं। सत्यासत्य के बीच अन्तर करने योग्य सद्बुद्धि। विवेकशीलता, दूरदर्शिता इसी की उपलब्धियाँ हैं। गायत्री महामन्त्र में जिस तत्त्व की प्रेरणा के लिए सविता देवता से प्रार्थना की गई है वह यह ऋतम्भरा प्रज्ञा को विकसित करने के लिए ही सुविस्तृत ब्रह्मज्ञान की रचना हुई है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि -‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमहि विद्यते सद्ज्ञान से अधिक पवित्र इस संसार में और कुछ नहीं, इसकी प्राप्ति संसार की सर्वोत्तम उपलब्धि मानी गयी है। गायत्री का धियो शब्द ऋतम्भरा की आराधना की प्रेरणा देता है। विवेक के अनुशीलन को महत्त्व देता है।
संसार में मतभेदों की भरमार है। सामाजिक रीति- रिवाजों, परम्पराओं, मान्यताओं में एक स्थान से दूसरे स्थान- समाज के बीच आसमान धरती जैसा अन्तर है। विचारों में एकरूपता कहीं नहीं है। अनेकों धर्म सम्प्रदाय हैं। एक धर्म में एक बात का समर्थन किया गया है, तो दूसरे में उसका विरोध हुआ है। एक धर्म गुरू कुछ कहता है, दूसरा उसका विरोध करता है। किस शास्त्र को, किस धर्म को , किस महापुरुष को सही और किसे गलत ठहराया जाये यह निर्णय नहीं हो पाता। गायत्री का धियो शब्द ऐसी विषम परिस्थितियों में विवेक की शरण में जाने की प्रेरणा देती है। उसकी
शिक्षा है कि जो बात बुद्धि- संगत हो, विवेक- सम्मत हो, व्यवहार में आने योग्य हो, औचित्यपूर्ण हो, उसी को ग्रहण करना चाहिए । देश, काल और परिस्थतियों के अनुरूप धर्म सम्प्रदाय बने। एक सम्प्रदाय परिस्थतियों के अनुरूप किसी समूह विशेष के लिए उपयोगी हो सकता है, वही दूसरे के लिए अनुपयोगी सिद्ध होता है।
ऐसी स्थिति में केवल विवेक ही यह बता सकता है कि आज की स्थिति में क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य ? अनेकों सम्प्रदायों, शास्त्रों, आप्त वचनों में एक को अपना पथ- प्रदर्शक चुनने में विवेक ही सहायक सिद्ध होता है।
धर्म ही नहीं अनेकों परम्पराएँ, प्रथाएँ, रीति- रिवाज प्रचलित हैं। जो किसी समय भले ही उपयुक्त रही हों, पर आज तो वे सर्वथा अनुपयोगी एवं हानिकारक ही हैं। ऐसी प्रथाओं एवं मान्यताओं के विषय में पुरातन के नाम पर अपनाते जाना अदूरदर्शिता का परिचायक है। चलन को वर्तमान काल की आवश्यकताओं एवं परिस्थतियों के अनुरूप उपयोगिता की कसौटी पर कसना चाहिए ।
भारतीय दर्शन- शास्त्र इस सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश देता है कि व्यक्तियों एवं विचारों को आपस में सम्बद्ध मत करो। सम्भव है कोई उत्तम चरित्र का व्यक्ति भ्रान्त हो और उसके विचार अनुपयुक्त हों। इसी प्रकार यह भी सम्भव है कि कोई चरित्रहीन व्यक्ति सारगर्भित बात कहता हो। चरित्रवान् का सम्मान करना एक नैतिक कर्तव्य है, पर यह आवश्यक नहीं कि उसके उलझे विचारों को स्वीकार करने के लिए बाध्य हों। प्रधानता विवेक की है कि उपयोगी का चुनाव कहाँ से और किस प्रकार किया जाये। भगवान बुद्ध के उत्तम चरित्र एवं कठोर तपश्चर्या से प्रभावित एवं श्रद्धासिक्त होकर भारतीय जन समूह ने उन्हें अवतार की उपाधि दी, इतने पर भी बौद्ध सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं किया। ईश्वर पर अनास्था, शून्यवाद, गृह- त्याग में मोक्ष, यज्ञ- निषेध आदि बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को भारतीय जनता न केवल अस्वीकार करती है वरन् विरोध भी करती है। दर्शनों में चार्वाक दर्शन भी सम्माननीय है। विद्वत्ता एवं तर्क की दृष्टि से एक सीमा तक उसकी उपयोगिता है, पर नैतिक दृष्टि से चार्वाक सिद्धान्त अनुपयोगी एवं हानिकारक ही सिद्ध होते हैं। उन्हें व्यावहारिक जीवन में अपनाया नहीं जा सकता ।
विश्व भर में अनेक धर्म- सम्प्रदाय, मत, सिद्धान्त, शास्त्र, नेता और विचारक हैं। उनकी अपने- अपने ढंग की मान्यताएँ हैं। इनमें से स्वयं के लिए वर्तमान में किसका किस अंश में किस प्रकार अनुसरण करना चाहिए यह निर्णय जिस भी पक्ष में हो, उसके अतिरिक्त भी अन्य धर्मों, शास्त्रों एवं महापुरुषों से घृणा अथवा आलोचना करने की आवश्यकता नहीं है। उनके उपदेश वर्तमान में भले ही अनुपयोगी हो गये हों, पर कभी- कभी शुभ उद्देश्यों को लेकर ही कहे गये होंगे तथा उपयोगी सिद्ध होंगे। उनका उद्देश्य पवित्र था, इसलिए वे सम्मान के अधिकारी हैं। विवेक की कसौटी पर कसकर उपयुक्त- अनुपयुक्त, औचित्य- अनौचित्य की परख की जा सकती है। किसी देश, जाति या मनुष्य के कुछ बुरे कामों को देखकर सभी को पूर्णतया बुरा मान लेना उचित नहीं। अमुक जाति, समाज अथवा राष्ट्र बुरा है, यह मान्यता अनुचित है। मात्र बुराइयों के आधार पर कोई समाज अथवा राष्ट्र अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता । न्यूनाधिक रूप मे भले- बुरे व्यक्ति प्रत्येक समाज में होते हैं। समाज ही नहीं गुण, अवगुण एक साथ एक व्यक्ति में विद्यमान रहते हैं। विवेक के आधार पर अच्छाइयों का चयन किया एवं अपनाया जा सकता है।
व्यक्तिगत जीवन में भी अनेकों अवसर ऐसे आते हैं जब मनुष्य दिग्भ्रान्त हो जाता है। लोभ, मोह के आकर्षणों में तुरन्त का लाभ दीखता है। तात्कालिक लाभ के फेर में दूरवर्ती परिणामों की ओर ध्यान नहीं जाता। फलतः नीति- अनीति जिस भी प्रकार से बने, लाभ उठाने के लिए हर सम्भव प्रयास करता है। यह रीति- नीति अविवेक का, अदूरदर्शिता का परिचायक है। ऐसे अवसरों पर विवेक मनुष्य का मार्गदर्शन करता है। लोभ- मोह के आकर्षणों, तृष्णाओं, विकारों, भ्रान्तियों से बचाता है और सही पथ- प्रशस्त करता है।
ऋतम्भरा को प्रज्ञा की, विवेक की देवी कहा गया है। गायत्री- उपासक माँ के आंचल में बैठकर प्रज्ञा शक्ति का आह्वान करता है। मातृ- शक्ति में अपनी श्रद्धा एवं निष्ठा आरोपित करता है। धियो योनः प्रचोदयात् की अन्तः पुकार जब उठती है तो आद्य शक्ति ऋतम्भरा के रूप में प्रकट होती है। पयपान कराने, अपने अनुदानों से सिक्त करने के लिए माता का करुण हृदय मचलने लगता है। उसका अनुग्रह साधक पर प्रज्ञा के रूप में, विवेक के रूप में बरसता है। इस आध्यात्मिक सम्पदा को पाकर उपासक अपने जीवन को सार्थक बनाता है। भौतिक एवं आध्यात्मिक सभी प्रकार की सफलताएँ विवेक की अनुगामिनी होती है। विवेकवान्- दूरदर्शी सही अर्थों में अपना स्वार्थ साधता है और परमार्थ भी। सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवन सफल और सार्थक बनता है।
प्रज्ञा- विवेक की उपलब्धि के लिए गायत्री महाशक्ति की धारा ऋतम्भरा की शरण में जाना होगा। ऋतम्भरा की आराधना, अभ्यर्थना द्वारा साधक की अन्तःप्रज्ञा जागृत होती है। विवेक के जागरण से औचित्य- अनौचित्य के बीच अन्तर करने एवं उपयोगी का चयन कर सकने में मनुष्य समर्थ होता है। फलतः किसी प्रकार के भटकाव की सम्भावना नहीं रहती।
आत्मिक सत्ता में सन्निहित समझ को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक ‘बुद्धि’ जो शरीर यात्रा के काम आती है, तदनुरूप चिन्तन, प्रयास एवं व्यवहार का ताना- बाना बुनती है। दूसरी वह है जो ईश्वरीय नियम- मर्यादाओं में रस लेती है। क्षुद्र को महान के साथ एकीभूत बनाने के लिए उत्कृष्टता अपनाती और उच्चस्तरीय प्रगति के लिये साहस संजोती है, इसे ‘प्रज्ञा’ कहते हैं। बुद्धि दैत्य का समर्थन करती है। दिव्य के साथ तादात्म्य होने की उमंगों से भरी रहती है। बुद्धि का उपार्जन सम्पदा भर है। ललक लिप्सा की पूर्ति भर से उसका काम चल जाता है, किन्तु प्रज्ञा को विभूतियों से कम में चैन नहीं। विभूतियाँ अर्थात् श्रेष्ठता में रमण करने की सरसताएँ और उस मार्ग पर रास्ते में मिलने वाली परमार्थ प्रयोजनों में काम आने वाली सिद्धियाँ।
प्रज्ञा व्यक्ति गत जीवन को अनुप्राणित करती है, इसे ‘ऋतम्भरा’ अर्थात् श्रेष्ठ में रमण करने वाली कहते हैं। महाप्रज्ञा इस ब्रह्माण्ड में सर्वव्याप्त है ।। उसे दूरदर्शिता, विवेकशीलता, न्यायनिष्ठा, सद्भावना, उदारता के रूप में प्राणियों पर अनुकम्पा बरसाती और पदार्थों को गतिशील- सुव्यवस्थित एवं सौन्दर्य युक्त बनाती देखा जा सकता है। परब्रह्म की वह धारा जो मात्र मनुष्य के काम आती एवं आगे बढ़ाने, ऊँचा उठाने की भूमिका निभाती है, ‘महाप्रज्ञा’ है। ईश्वरीय अगणित विशेषताओं एवं क्षमताओं से प्राणि- जगत एवं पदार्थ- जगत उपकृत होते हैं, किन्तु मनुष्य जिस आधार पर ऊर्ध्वगामी बनाने, परमलक्ष्य तक पहुँचाने का अवसर मिलता है, उसे महाप्रज्ञा ही समझा जाना चाहिए। इसका जितना अंश जिसे, प्रकार भी उपलब्ध हो जाता है वह उतने ही अंश में कृत- कृत बनता है। मनुष्य में देवत्व का, दिव्य क्षमताओं का, उदय- उद्भव मात्र एक ही बात पर अवलम्बित है कि महाप्रज्ञा की अवधारणा उसके लिए कितनी मात्रा में सम्भव हो सकी ।
महाप्रज्ञा को अध्यात्म की भाषा में ‘गायत्री’ कहते हैं। इसके दो पक्ष हैं- एक दर्शन और दूसरा व्यवहार। तत्त्वदर्शन अर्थात्- ‘ अध्यात्म’ । शालीनता युक्त आचरण अर्थात् ‘धर्म’ । आत्मिकी क्षेत्र पर ‘गायत्री’ का आधिपत्य है और भौतिक का सूत्र- संचालन ‘सावित्री’ करती है । ये दोनों नाम एक ही दिव्य सत्ता के हैं। यह नाम- भेद उनकी प्रयोग- प्रक्रिया को देखकर किया गया । एक ही व्यक्ति को कुश्ती लड़ते समय पहलवान, प्रवचन करते समय विद्वान कहा जा सकता है। दो समयों पर दो नामों से सम्बोधन किये जाने पर भी वस्तुतः वह रहता एक ही है। महाप्रज्ञा है तो एक ही, पर उसे श्रद्धा- भक्ति के और पुण्य- प्रयोजनों में अपनी भूमिका अलग- अलग ढंग से निभाते हुए देखा जा सकता है। बिजली कभी हीटर जलाकर गर्मी पैदा करती है और कभी रेफ्रिजरेटर के माध्यम से बर्फ जमाती है । यह एक ही शक्ति की दो प्रक्रियाएँ मात्र हैं। गायत्री की, महाप्रज्ञा की परिणति अंतःक्षेत्र में, दिव्य लोक में, विभूतियों की तरह और भौतिक क्षेत्र में, लोक व्यवहार में, सम्पदाओं के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इन्हीं को ‘ऋद्धि’ एवं ‘सिद्धि’ कहते हैं ।
महाप्रज्ञा असंख्य समर्थताओं की जन्मदात्री है, गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। इसके तीन चरण- सत्, चित्त, आनन्द नाम से जाने जाते हैं। उन्हें गंगा, यमुना, सरस्वती का त्रिवेणी- संगम भी कहा जाता है।
देव- प्रतिपादन में इन्हीं का ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं सरस्वती, लक्ष्मी, काली के नाम से आलंकारिक उल्लेख होता है। तत्त्वदर्शी इन्हीं त्रिविध प्रवाहों को सत्- रज की संज्ञा देते और समग्र सृष्टि का आधारभूत कारण मानते हैं। गायत्री को वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता कहा गया है। (१) वेद अर्थात् दिव्य ज्ञान। वेदमाता अर्थात् दिव्य ज्ञान की अधिष्ठात्री। (२) देव अर्थात् पवित्र और प्रखर ।। देवमाता अर्थात् अपने अंचल में बैठने वाले की सत्ता को देवोपम बना देने वाली। (३) विश्व अर्थात् विराट्। विश्वमाता अर्थात् अनेकता को एकता में, बिखराव को केन्द्रकरण में समेटने वाली, वसुधैव कुटुम्बकम् के आधार पर आत्मीयता को व्यापक बनाने वाली। इस त्रिवेणी में मनुष्य की आस्था, विचारणा एवं प्रवृत्ति को, समग्र चेतना को स्नान करने का अवसर मिलता है, तो स्थिति काया- कल्प जैसी बन जाती है। इन त्रिविध अनुदानों की प्राप्ति के लिये भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की पुण्य प्रक्रिया का सुविस्तृत साधना तन्त्र खड़ा किया गया है। इन्हीं के सहारे कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर को परिष्कृत किया जाता है।
देव संस्कृति का भाव पक्ष ब्रह्म विद्या कहलाता है। ब्रह्म विद्या का विवेचन आर्ष वाङ्मय में हुआ है। आप्त वचनों में उसी का चर्चा होती है। वेद, उपनिषद्, दर्शन, आरण्यक, ब्राह्मण, सूत्र, पुराण आदि- आदि के रूप में जितना भी शास्त्र- विवेचन है उसे ब्रह्म विद्या की व्याख्या कह कहते हैं, इस सारे विस्तार में महाप्रज्ञा गायत्री के ही विभिन्न स्तरों पर प्रकाश डाला गया है। भगवान के अवतार २४ हुए हैं। गायत्री के चौबीस अक्षरों में सन्निहित रहस्यों का, एक- एक करके एक- एक प्रयोजन के लिए किया गया रहस्योद्घाटन ही समझा जा सकता है । एक ही तथ्य को मानवी संरचना एवं आवश्यकता को ध्यान में रखकर किया गया वह विवेचन भी है, जिसे ब्रह्म विद्या के अन्तर्गत माना गया यह विवेचन भी है, जिसे ब्रह्म विद्या के अन्तर्गत माना गया विशालकाय शास्त्रीय निर्धारण कहा जा सकता है। एक शब्द में इस समस्त परिवार को गायत्री का तत्त्व दर्शन भी कह सकते हैं। इस प्रतिपादन में वह समूचा निर्धारण विद्यमान है, जो मनुष्य को उच्चस्तरीय प्रगति के मार्ग पर चलते हुए अभीष्ट- अनिवार्य होता है।
ज्ञान और कर्म का युग्म है। सिद्धान्त और अभ्यास के समन्वय में ही किसी तथ्य को हृदयंगम करना, स्वभाव व्यवहार में ही उतारना शक्य होता है। ज्ञान का दूसरा पक्ष विज्ञान है। ज्ञान अर्थात् आस्था, विज्ञान अर्थात् पराक्रम। दोनों के समन्वय से ही एक पूरी बात बनती है। बिजली के ऋण और धन प्रवाहों के समन्वय से ही करेन्ट (विद्युतीय प्रवाह) उत्पन्न होता है। महाप्रज्ञा का ब्रह्म विद्या पक्ष अन्तःकरण को उच्चस्तरीय आस्थाओं से आनन्द विभोर करने के काम आता है। दूसरा पक्ष साधना है जिसे विज्ञान या पराक्रम कह सकते हैं। इसके अन्तर्गत आस्था को उछाला और परिपुष्ट किया जाता है। मात्र ज्ञान ही पर्याप्त नहीं होता । कर्म के आधार पर उसे संस्कार, स्वभाव- अभ्यास के स्तर तक पहुँचना होता है। साधना का प्रयोजन श्रद्धा को निष्ठा में, निर्धारण की अभ्यास की स्थिति में पहुँचना है, इसलिये परमहंसों, तत्त्व- ज्ञानियों एवं जीवन- मुक्तों को भी साधना का अभ्यास- क्रम से चलाना होता है।
चिन्तन को उत्कृष्टता के साथ जोड़ने की प्रक्रिया योग से और आदतों को निकृष्टता से विरत कर उत्कृष्टता के क्षेत्र में उछाल देने की आवश्यकता ‘तप’ के सहारे सम्पन्न की जाती है। प्रवाह को मोड़ने- मरोड़ने के लिए इससे कम में बात बनती ही नहीं । मान्यताएँ और आदतें बड़ी ढीठ होती हैं। समझाने- बुझाने से वे औचित्य के सामने हतप्रभ तो हो जाती हैं पर अपनी स्थिति बदलने को तैयार नहीं होती। तर्क में हार जाने पर ऊपरी मन से स्वीकार करना एक बात है और इस आधार पर अपने स्वभाव- व्यवहार में परिवर्तन कर लेना दूसरी। तर्क- प्रमाणों से काम चल गय होता तो स्वाध्याय, सत्संग की प्रचलित प्रक्रिया ने ही लोक- मानस का काया- कल्प कर दिया होता। लेखनी- वाणी से ही अवांछनीयता का प्रवाह कब उलट दिया गया होता। किन्तु यथार्थता दूसरी ही है। गुण- कर्म की- मान्यता और आदत के रूप में अन्तरंग की जैसी भी संरचना बन गई होती है, उसे रास्ता बदलने के लिए तत्पर कर लेना टेढ़ी खीर है। सदाशयता का ढोल बजाने वाले, दुष्ट प्रयोजनों में निरत देखे गये हैं। कारण एक ही हैं। हठी अन्तराल- अभ्यस्त आदतों को बदलने के लिए जितने दबाव की जरूरत थी, उतना दबोचा नहीं गया। अनुपयोगी को गलाने और उपयोगी को ढालने के लिए ऊँचे तापमान की भट्टी जलानी पड़ती है।
इससे कम में, मात्र उलट- पुलट करने भर से अशुद्ध धातुओं का परिशोधन कहाँ बन पड़ता है? हठी अन्तराल को उत्कृष्टता की दिशा में उछालने के लिए योग और तप का साधना- क्रम अपनाये बिना काम नहीं चलता।