गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

आत्म- कल्याण जप के साथ पय- पान का ध्यान

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आत्म- कल्याण के लिए गायत्री महामन्त्र की पहली एक माला जप करते समय अपने को एक वर्ष आयु के छोटे बालक के रूप में अनुभव करना चाहिए और सर्व- शक्तिमान गायत्री माता की गोद में खेलने, क्रीड़ा- कल्लोल करने की भावना करनी चाहिए। उसका पय- पान करते हुए यह अनुभूति जगानी चाहिए कि इस अमृत दूध के साथ मुझे आदर्शवादिता, उत्कृष्टता, ऋतम्भरा- प्रज्ञा, सज्जनता एवं सदाशयता जैसी दिव्य आध्यात्मिक विभूतियाँ उपलब्ध हो रही हैं और उनके माध्यम से अपना अन्तःकरण एवं व्यक्तित्व महान् बनता चला जा रहा है।

ध्यान का स्वरूप नीचे दिया जा रहा है-

() प्रलय के समय बची हुई अनन्त जलराशि में कमल के पत्ते पर तैरते हुए बाल भगवान् का चित्र बाजार में बिकता है। वह चित्र खरीद लेना चाहिए और उसी के अनुरूप अपनी स्थिति अनुभव करनी चाहिए। इस संसार से ऊपर नील आकाश और नीचे नील जल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। जो कुछ भी दृश्य पदार्थ इस संसार में थे इस प्रलय काल में ब्रह्म के भीतर तिरोहित हो गए। अब केवल अनन्त शून्य बना है जिनमें नीले जल और आकाश के ऊपर कोई वस्तु शेष नहीं। यह उपासना भूमिका के वातावरण का स्वरूप है। पहले इसी पर ध्यान एकाग्र किया जाये।

() मैं कमल पत्र पर पड़े हुए एक वर्षीय बालक की स्थिति में निश्चित भाव से पड़ा क्रीड़ा- कल्लोल कर रहा हूँ। न किसी बात की चिन्ता है, न आकांक्षा और न आवश्यकता। पूर्णतया निश्चित निर्भय, निर्द्वन्द्व, निष्काम जिस प्रकार छोटे बालक की अनुभूति हुआ करती है, ठीक वैसी ही अपनी है। विचारणा का सीमित क्षेत्र एकाकीपन के उल्लास में ही संव्याप्त है। मैं उसी की अनुभूति करता हुआ परिपूर्ण तृप्ति एवं सन्तुष्टि का आनन्द ले रहा हूँ।

() प्रातःकाल जिस प्रकार संसार में अरुणिमा युक्त स्वर्णिम आभा के साथ भगवान् सविता अपने समस्त वरेण्य, दिव्य भर्ग ऐश्वर्य के साथ उदय होते हैं, उसी प्रकार उस अनन्त आकाश की पूर्व दिशा में से ब्रह्म की महान् शक्ति गायत्री का उदय होता है। उसके बीच अनुपम सौन्दर्य से युक्त अलौकिक सौन्दर्य की उपमा जगद्धात्री गायत्री माता प्रकट होती है। वे हँसती- मुस्कराती अपनी ओर बढ़ती आ रही है। हम बालसुलभ किलकारियाँ लेते हुए उनकी ओर बढ़ते चले जाते हैं। दोनों माता- पुत्र आलिंगन आनन्द से आबद्ध होते हैं और अपनी ओर से असीम वात्सल्य की गंगा- यमुना प्रवाहित हो उठती है और दोनों का संगम परम- पावन तीर्थराज बन जाता है।

माता और पुत्र के बीच क्रीड़ा कल्लोल भरा स्नेह वात्सल्य का आदान- प्रदान होता है। उनका पूरी तरह ध्यान ही नहीं भावना भूमिका में भी उतारना चाहिए। बच्चा माँ के बाल, कान, नाक आदि पकड़ने की चेष्टा करता है, मुँह- नाका में अंगुली देता है, गोदी में ऊपर चढ़ने की चेष्टा करता है, हँसता, मुस्कुराता और अपने आनन्द की अनुभूति उछल- उछल कर प्रकट करता है वैसी ही स्थिति अपनी अनुभव करनी चाहिए। माता अपने बालक को पुकारती है, उसके सिर- पीठ पर हाथ फिराती है, गोदी में उठाती- छाती से लगाती, दुलराती हैं, उछालती हैं वैसी ही चेष्टाएँ माता की ओर से प्रेम- उल्लास के साथ हँसी- मुस्कान के साथ की जा रही है, ऐसा ध्यान करना चाहिये।

स्मरण रहे केवल उपर्युक्त दृश्यों की कल्पना करने से ही काम न चलेगा वरन् प्रयत्न यह करना होगा कि वे भावनाएँ भी मन में उठें जो ऐसे अवसर पर स्वाभाविक माता- पुत्र के बीच उठती रहती हैं। दृश्य की कल्पना सरल है पर भाव की अनुभूति कठिन है। अपने स्तर को वयस्क व्यक्ति के रूप में अनुभव किया गया तो कठिनाई पड़ेगी किन्तु यदि सचमुच अपने को एक वर्ष के बालक की स्थिति में अनुभव किया गया, जिसको माता के स्नेह के अतिरिक्त और कोई वस्तु प्रिय होती ही नहीं, तो फिर विभिन्न दिशाओं में बिखरी हुई अपनी भावनायें एकत्रित होकर उस असीम उल्लास भरी अनुभूति के रूप में उदय होंगी जो स्वभावतः हर माता और हर बालक के बीच में निश्चित रूप से उदय होती है। प्रौढ़ता भूलकर शैशव का शरीर और भावना स्तर पर स्मरण कर सकना यदि सम्भव हो सका तो समझना चाहिए कि साधक ने एक बहुत बड़ी मंजिल पार कर ली ।।

मन प्रेम का गुलाम है। मन भागता है पर उसके भागने की दिशा अप्रिय से प्रिय होती है। जहाँ प्रिय वस्तु मिल जाती है, वहाँ वह ठहर जाता है। प्रेम ही सर्वोपरि प्रिय है। जिससे भी अपना प्रेम हो जाय वह भले ही कुरूप य निरूप भी हो पर लगता परमा प्रिय है। मन का स्वभाव प्रिय वस्तु के आस- पास मँडराते रहने का है। उपयुक्त ध्यान- साधना में गायत्री माता के प्रति प्रेम भावना का विकास करना पड़ता है फिर उसका सर्वांग सुन्दर स्वरूप भी प्रस्तुत है। सर्वांग सुन्दर प्रेम की अधिष्ठात्री गायत्री माता का चिंतन करने से मन उसी परिधि में घूमता रहता है। उसी क्षेत्र में क्रिड़ा- कल्लोल करता रहता है। अतएव मन को रोकने, वश में करने की एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक आवश्यकता भी इसी साधना के माध्यम से पूरी हो जाती है।

इस ध्यान- धारणा में गायत्री माता को केवल एक नारी मात्र नहीं माना गया है। वरन् उसे सत् चित् आनन्दस्वरूप- समस्त सद्गुणों, सद्भावनाओं, सत्प्रवृत्तियों का प्रतीक, ज्ञान- विज्ञान का प्रतिनिधि और शक्ति- सामर्थ्य का स्रोत मानते हैं। प्रतिमा नारी की भले ही हो पर वस्तुतः वह ब्रह्म- चेतना क्रम दिव्य- ज्योति बनकर ही- अनुभूति में उतरे।

जब माता के स्तन- पान का ध्यान किया जाय तो यह भावना उठनी चाहिए कि यह दूध एक दिव्य प्राण है जो माता के वक्षःस्थल से निकल कर मेरे मुख द्वारा उदर में जा रहा है और वहाँ एक धवल विद्युत- धारा बनकर शरीर के अंग- प्रत्यंग में ही नहीं- वरन् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय, अन्तःकरण, चेतना एवं आत्मा में- अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोशों में समाये हुए अनेक रोग शोकों- कषाय का निराकरण कर रहा है। इस पय- पान का प्रभाव एक कायाकल्प कर सकने वाली संजीवनी रसायत जैसा हो रहा है। मैं नर से नारायण, पुरूष से पुरूषोत्तम, अणु से विभु, क्षुद्र से महान् और आत्मा से परमात्मा के रूप में विकसित हो रहा हूँ। ईश्वर के समस्त सद्गुण धीरे- धीरे व्यक्तित्व का अंग बन रहे हैं, मैं द्रुतगति से उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो रहा हूँ। मेरा आत्म- बल असाधारण रूप में प्रखर हो रहा है।

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