संसार में अभी तक ऐसा फोटो कैमरा नहीं बना जो टैक्नीकलर, विस्तार्विजन और थ्री डी के टेक्नालॉजी युक्त हो। शत- प्रतिशत फोटो खिंचता हो और क्षण भर में फोटो उतार देता हो। जिसमें फोटोग्राफर की आवश्यकता न हो और न फिल्म- प्लेट आदि लगाने की झंझट न हो ।। ऐसा कैमरा बनना तो दूर रहा किसी वैज्ञानिक के मस्तिष्क में इस तरह की संभावना की कल्पना भी नहीं आई है। यदि कोई सोचने भी लगे तो इस सारी सुविधाओं से सम्पन्न किसी विशालकाय यन्त्र की ही कल्पना की जा सकती है। इतने उपकरण होते हुए भी उसका साइज एक इन्च के बराबर हो, तो यह सर्वथा असंभव ही लगती है। यांत्रिक जगत में ऐसा फोटो यन्त्र भले ही न बना हो, उसकी सम्भावना अशक्य मानी जाये, पर ऐसा कैमरा हर मनुष्य के पास मौजूद है और प्रायः सभी मनुष्य उसका उपयोग जन्मकाल से ही करते हैं। वह कैमरा है जादू जैसा यन्त्र- नेत्र। मस्तिष्क के अग्रभाग में जकड़े हुए दो नेत्र सभी को दीखते हैं पर उनके मध्यवर्ती अन्तराल में जो तीसरा नेत्र है, उसकी जानकारी योगी जनों को ही थोड़ी मात्रा में मिली।
गायत्री- उपासना करते समय दोनों के मध्य में भृकुटी मे ध्यान किया जाता है। यह वह स्थान है जिसके नीचे अस्थि आवरण के उपरान्त एक बेर की गुठली जैसी ग्रन्थि है। इसे आज्ञा चक्र कहते हैं। शरीर शास्त्र की दृष्टि से उसका कार्य और प्रयोजन अभी पूरी तरह नहीं समझा जा सका, पर आत्म- विद्या के अन्वेषी उसके प्रति अति महत्त्वपूर्ण कार्य को बहुत पहले से ही जानते हैं। इसे तीसरा नेत्र या दिव्य नेत्र कहते हैं। दिव्य दृष्टि यहीं से निःसृत होती है।
प्रकाश की सहायता से हम वस्तुओं को देखते हैं। पर यह रहस्य किन्हीं- किन्हीं को ही विदित हैं कि हमारे भीतरी जीवाणुओं में भी प्रकाश विद्यमान है और उनसे निकलने वाली किरणें न केवल भीतर प्रकाश बनाये रहती हैं, वरन् बाहर भी तेजस्विता का परिचय देती हैं। आँखों में अपना निज का प्रकाश है। आज्ञा चक्र का प्रकाश तो ऊर्जा रूप में भी विकसित हो सकता है और उससे टेलीविजन एवं संवाद प्रेषण जैसा कार्य भी लिया जा सकता है। इस ऊर्जा से अन्य व्यक्तियों अथवा वस्तुओं को भी प्रभावित किया जा सकता है।
प्रकाश किरणों को छवि रूप में पकड़ने की कला अब फोटोग्राफी टेलीविजन तक सीमित नहीं रही अब वे आधार प्राप्त कर लिये गये हैं, जिनसे तीन आयामों वाले त्रिविमीय चित्र देखे जा सकें। आमतौर से फोटोग्राफी लम्बाई- चौड़ाई का बोध कराती है। गहराई का तो उसमें आभास मात्र ही होता है। यदि गहराई को भी प्रतिबिम्बित किया जा सके तो फिर आँखों से देखे जाने वाले दृश्य और छाया अंकन में कोई भेद नहीं रहेगा। ऐसा दृश्य प्रचलन सम्भव हो सका तो फिल्में अपने वर्तमान अधूरे स्तर की फोटोग्राफी तक सीमित नहीं रहेंगी वरन् पर्दे पर रेल, मोटर, घोड़े मनुष्य आदि उसी तरह दौड़ते दिखाई पड़ेंगे मानों वे यथार्थ स्वरूप में ही आँखों के आगे से गुजर रहे हैं। यदि सामने से अपनी ओर कोई रेल दौड़ती आ रही हो या शेर झपटता आ रहा हो तो बिल्कुल यह मालूम पड़ेगा कि वे अब अपने ऊपर ही चढ़ बैठने वाले हैं। ऐसी दशा में आरम्भिक अनभ्यास की स्थिति में सिनेमा को भयभीत होकर अपनी सीट छोड़कर भागते ही बनेगा।
प्रकाश विज्ञान एर्नस्टएये और उनके सहयोगी शिष्य डी गैवर ने होलोग्राफी के एक नये सिद्धान्त का आविष्कार किया जिसके आधार पर त्रिविमीय स्तर का छाया चित्रण आँखों से देखा जा सकेगा और भूत कालीन दृश्यों को इन्हीं आँखों से इस प्रकार देखा जा सकेगा मानो वह घटना- क्रम अभी- अभी ही बिल्कुल सामने घटित हो रहा है।
भ्रूमध्य भाग में अवस्थित आज्ञा चक्र को तृतीय नेत्र कहा जाता है। शिव और पार्वती के चित्रों में उनका एक पौराणिक तीसरा नेत्र भी दिखाया जाता है। कथा के अनुसार शंकर भगवान ने इसी नेत्र को खोलकर उसमें से निकलने वाली अग्नि से कामदेव को भस्म किया था।
दिव्य दृष्टि का केन्द्र भी यही है। इससे टेलीविजन जैसा कार्य लिया जा सकता है। दूरदर्शन का दिव्य यन्त्र यही लगा हुआ है। महाभारत के सारे दृश्य संजय ने इसी माध्यम से देखे और धृतराष्ट्र को सुनाए थे। चित्र लेखा द्वारा प्रद्युम्न प्रणय इसी दिव्य दृष्टि का ही परिणाम थी।
सूक्ष्म और कारण शरीर की दिव्य दृष्टि की मर्यादा और क्षमता बहुत बढ़ी- चढ़ी है। उसे समझने, विकसित करने और प्रयोग करने की क्षमता योगाभ्यास से उपलब्ध होती है। पर स्थूल शरीर में भी यह शक्ति बहुत व्यापक है। आँखों से ही सब कुछ नहीं देखा जाता, उसके अतिरिक्त अंगों में भी देखने- समझने की क्षमता मौजूद है। मस्तिष्क, नेत्र- गोलकों का फोटोग्राफी कैमरे जैसा प्रयोग करता है और पदार्थों के जो चित्र आँखों की पुतलियों के लैंस से खींचता है, वे मस्तिष्क में जमा होते हैं। इनकी प्रतिक्रिया के आधार पर मस्तिष्क के ज्ञान तन्तु जो निष्कर्ष निकालते हैं उसी का नाम दर्शन है। आँख इसके लिए सबसे उपयुक्त माध्यम है। मस्तिष्क के रूप में दर्शन केन्द्र के साथ नेत्र गोलकों के ज्ञान तन्तुओं का सीधा और समीपवर्ती सम्बन्ध है, इसलिए आमतौर से हम नेत्रों से ही देखने का काम लेते हैं और मस्तिष्क उन्हीं के आधार पर अपनी निरीक्षण- क्रिया को गतिशील देखता है। पर ऐसा नहीं समझना चाहिए कि दृष्टि शक्ति केवल नेत्रों तक ही सीमित है। अन्य अंगों के, मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए ज्ञान तन्तुओं को विकसित करके भी मस्तिष्क बहुत हद तक उस प्रयोजन की पूर्ति कर सकता है। समस्त विश्व का हर पदार्थ अपने साथ ताप और प्रकाश की विद्युत किरणें संजोये हुए हैं। वे कम्पन्न लहरियों के साथ इस निखिल विश्व में अपना प्रवाह फैलाती हैं। ईथर तत्त्व के द्वारा वे दूर- दूर अवस्थित हैं, जो घटनायें सुदूर क्षेत्रों में घटित हो रही हैं, उन्हें निकटवर्ती वस्तुओं की तरह देखा जा सकता है। इन दृश्य किरणों को पकड़ने के लिए नेत्र उपयुक्त हैं। समीपवर्ती दृश्य वही देखते हैं और दूरवर्ती दृश्य देखने के लिए तृतीय नेत्र को भ्रूमध्य में अवस्थित आज्ञा चक्र के प्रयुक्त किया जा सकता है। इतने पर भी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि रूप तत्व का सम्बन्ध नेत्रों से ही है। अग्नि तत्त्व की प्रधानता से ‘रूप’ कम्पन्न कों उत्पन्न होते हैं। शरीर में अग्नि तत्त्व का प्रतिनिधित्व नेत्र करते हैं, पर ऐसा नहीं मानना चाहिए कि अग्नि तत्त्व अन्यत्र शरीर मे अन्य अंगों में नहीं है, समस्त शरीर पंच तत्त्वों के गुम्फन से बना है। यदि किसी अंग का अग्नि तत्त्व अनायास ही विकसित हो जायेगा या साधनात्मक प्रयत्नों द्वारा विकसित कर लिया जाये तो नेत्रों की बहुत आवश्यकता उनके माध्यम से भी पूरी हो सकती है। इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों के कार्य एक सीमा तक दूसरे अंग कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किये गये। पवहारी बाबा प्रत्यक्षतः वायु ही ग्रहण करते थे, अन्न- जल सेवन नहीं करते थे पर शरीर के अन्य अंगों द्वारा अदृश्य जगत से सूक्ष्म आहार बराबर मिलता रहता था। इसके बिना किसी के लिए भी जीवन- धारण किये रहना असम्भव है।
इजवेस्तिया (रूस में छपने वाला समाचार- पत्र) में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार निझानी तागिल (रूस) की रोजा नामक युवती पंक्तियों पर उंगली चला कर मामूली प्रेस में छपी पुस्तकें पढ़ लेती हैं। कई समाचार- पत्रों ने उसके प्रमाण सहित फोटो भी छापे हैं। आश्चर्य तो यह है कि पुस्तकों में बने हुए किसी फोटो को उँगलियाँ रखकर ही वह बता देती है कि वह फोटो महात्मा गाँधी की है अथवा इब्राहीम लिंकन की है। यदि वह जानती नहीं होती तो आकृति का वर्णन कर देती कि इसके इतनी बड़ी मूँछें हैं, ऐसे कान और अमुक पोशाक पहने हुए फोटो उतारी गई है।सांप चुपचाप पड़ा होता है और इस अवयव से यह जान लेता है कि किस दिशा में कहाँ पर शिकार है, बस उधर ही झपट कर उसे पकड़ लेता है। इसी तरह के तन्तुओं से चिड़ियों और कबूतरों के मस्तिष्क भी सजे होते हैं, जिससे वे हजारों मील की यात्रा का भी रिकॉर्ड करके रखते हैं। दस वर्ष बाद भी उसकी सहायता से वे अपने मूल निवास को लौट सकते हैं। मेंढक की आँख और मस्तिष्क के बीच में इस तरह के ज्ञान तन्तु होते हैं, उन्हीं से वह अपने दुश्मनों की आक्रमण करने ही इच्छा तक को पहचान लेता है। ( यह मनुष्य के आज्ञा चक्र भ्रूमध्य में भी एक ऐसी ही संवेदनशील शक्ति के होने का सबसे बड़ा प्रमाण है ।) और आक्रमण होने से पहले ही बच निकलता है।
इन जानकारियों के आधार पर वैज्ञानिकों ने रोजा की जाँच की। उन्होंने प्रकाश में से इन्फ्रारेड किरणें निकाला हुआ और उसके साथ अक्षर एक कागज पर डाले गये तब भी रोजा ने उन्हें पढ़ दिया। बेशक वह इस स्थिति में आकृतियाँ नहीं पहचान पाई पर वैज्ञानिकों को यह मालूम पड़ गया कि आँखें ही नहीं, शरीर के अन्य अंगों में भी दृष्टि तत्त्व हो सकते हैं। रोजा के हाथों में एक मिलीमीटर ऐसे दस तत्त्व पाये भी गये। वैज्ञानिकों ने बताया, यह सामान्य स्थिति है, हम कह नहीं सकते कि क्या शरीर में ऐसे तत्त्व और भी कहीं हैं या विकसित किये जा सकते हैं। हम इस बात को जानने की शोध अवश्य करेंगे कि प्रकाश को ग्रहण करने वाले तत्त्व उँगलियों में कैसे आ गये ।। यदि इस बात को ढूँढ़ निकाला गया तो ध्यान के रूप में प्रकाश- कणों को आकर्षित करने पर शरीर में अतीन्द्रिय ज्ञान (एक्सट्रा ऑर्डिनरी सेन्सेपरसेप्शन) की क्षमता उत्पन्न करने की भारतीय योग प्रणाली पूर्ण विज्ञान- सम्मत हो जायेगी ।।
गायत्री- उपासना में भृकुटी के मध्य आज्ञा- चक्र के स्थान पर ध्यान करने का यही उद्देश्य है कि अपने भीतर की प्रकाश सत्ता को विकसित किया जा सके। यदि उसे विकसित किया जा सके तो कई दिव्य क्षमताएँ अपने भीतर जागृत हो सकती हैं। बल्ब अपने आप में प्रकाशित होता है, तो उसके प्रकाश में अन्य वस्तुएँ भी दिखाई पड़ती हैं। आकाश में जगमगाते तारे भी रात्रि के सघन अन्धकार को कम कर देते हैं कि आस- पास की चीजों को किसी सीमा तक देखा जा सके। हमारे आंतरिक प्रकाश कण यदि कुछ अधिक जगमगाने लगें तो संसार में अन्यत्र घटित हो रही घटनाओं को देखा- समझा जा सकता है।
इसके अतिरिक्त भी आज्ञा- चक्र के जाग्रत हो जाने पर अनेकों दिव्य लाभ हैं। इसके द्वारा कई शक्तियाँ और दैवी विभूतियाँ अर्जित की जा सकती हैं। गायत्री साधना अपने साधक को उन सभी दिव्य लाभों के साथ आत्म- कल्याण के पथ पर अग्रसर करती हैं।