इसके लिए चित्र आदि की आवश्यकता नहीं। रात्रि को यदि कभी आँख खुल जाये तो बिस्तर पर पड़े- पड़े भी इसे किया जा सकता है। बैठ कर करनी हो तो दीवार, मसनद आदि का सहारा लिया जा सकता है। आराम कुर्सी भी काम में लाई जा सकती है। शरीर को शिथिल, मन को एकाग्र करके सुविधा के समय इस साधना को करना चाहिए। समय कितना लगाना है यह अपनी सुविधा एवं परिस्थिति पर निर्भर है। पर जितना भी समय लगाना हो उसे तीन भागों में विभक्त कर लेना चाहिए। एक तिहाई में स्थूल शरीर, एक तिहाई में सूक्ष्म शरीर और एक तिहाई में कारण शरीर में ज्योति का अवतरण करना चाहिए। यों थोड़ी न्यूनाधिकता रहने से भी कोई हर्ज नहीं होता। पर क्रम ऐसा ही बनाना चाहिए, जिससे शरीर, मन और आत्मा तीनों स्तरों को समुचित प्रकाश मिल सके।
सूक्ष्म जगत् में ईश्वरीय दिव्य प्रकाश की प्रेरणापूर्ण किरणें निरन्तर बहती रहती हैं। उन्हें श्रद्धा, एकाग्रता और भावनापूर्ण ध्यान करके इस लेख में वर्णित विधि से कोई भी साधक ग्रहण कर सकता है। पर अपने परिवार के लिए इस साधना में संलग्न साधकों के लिए दो- दो घण्टे के दो ऐसे समय भी नियुक्त हैं, जिनमें किन्हीं महान् दिव्य शक्तियों द्वारा अपना शक्ति प्रवाह भी जोड़ दिया जाता है और उस समय ध्यान करने में विशेष आनन्द आता है और विशेष प्रभाव पड़ता है। यह समय रात्रि को ८ बजे से १० बजे और प्रातः ३ से ५ बजे का है। इन दोनों अवसरों में से जब जिसे सुविधा हो वह अपनी सुविधा के अनुरूप समय निर्धारित कर सकते हैं।
आरम्भ में यह समय एका बार में आधा घण्टे से अधिक का नहीं होना चाहिए। धीरे- धीरे समय बढ़ाकर एक घण्टे तक का किया जा सकता है। रात्रि के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में दोनों बार भी यह साधन किया जा सकता है। तब दो बार में कुल मिलाकर एक घण्टे से लेकर दो घण्टे तक का यह समय हो सकता है। २४ घण्टे में २ घण्टे इसके लिए अधिकतम समय हो सकता है। अधिक तेज के ग्रहण करने और धारण करने में कठिनाई पड़ती है, इसलिए ग्रहण उतना ही करना चाहिए जितना पचाया जा सके। कौन किस समय इस साधना को करे, कितनी देर, किस प्रकार बैठकर करे यह निर्धारण करना साधक का काम है। अपनी परिस्थतियों के अनुसार उसे अपनी व्यवस्था स्वयं ही करनी चाहिए। पर जो क्रम या समय निर्धारित किया जाय, उसे उसी क्रम से चलना चाहिए। समय और स्थिति का एक ही क्रम चलना किसी भी साधना की सफलता के लिए उचित एवं आवश्यक है।