गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

परम तेज- पुंज ज्योति अवतरण- साधना

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ज्योति अवतरण पुंज साधना एक विशिष्ट उपासना पद्धति है। इसका अनुपम लाभ लेने से किसी को भी नहीं चूकना चाहिए। प्रस्तुत ध्यान- साधना के लिए रात्रि का समय ही अधिक उपयुक्त है। यों उसे दिन में भी सुविधानुसार समय पर किया जा सकता है पर रात्रि की नीरवता में जितनी अच्छी तरह इसका सत्परिणाम मिलता है उतना दिन में नहीं ।।

इसके लिए चित्र आदि की आवश्यकता नहीं। रात्रि को यदि कभी आँख खुल जाये तो बिस्तर पर पड़े- पड़े भी इसे किया जा सकता है। बैठ कर करनी हो तो दीवार, मसनद आदि का सहारा लिया जा सकता है। आराम कुर्सी भी काम में लाई जा सकती है। शरीर को शिथिल, मन को एकाग्र करके सुविधा के समय इस साधना को करना चाहिए। समय कितना लगाना है यह अपनी सुविधा एवं परिस्थिति पर निर्भर है। पर जितना भी समय लगाना हो उसे तीन भागों में विभक्त कर लेना चाहिए। एक तिहाई में स्थूल शरीर, एक तिहाई में सूक्ष्म शरीर और एक तिहाई में कारण शरीर में ज्योति का अवतरण करना चाहिए। यों थोड़ी न्यूनाधिकता रहने से भी कोई हर्ज नहीं होता। पर क्रम ऐसा ही बनाना चाहिए, जिससे शरीर, मन और आत्मा तीनों स्तरों को समुचित प्रकाश मिल सके।

सूक्ष्म जगत् में ईश्वरीय दिव्य प्रकाश की प्रेरणापूर्ण किरणें निरन्तर बहती रहती हैं। उन्हें श्रद्धा, एकाग्रता और भावनापूर्ण ध्यान करके इस लेख में वर्णित विधि से कोई भी साधक ग्रहण कर सकता है। पर अपने परिवार के लिए इस साधना में संलग्न साधकों के लिए दो- दो घण्टे के दो ऐसे समय भी नियुक्त हैं, जिनमें किन्हीं महान् दिव्य शक्तियों द्वारा अपना शक्ति प्रवाह भी जोड़ दिया जाता है और उस समय ध्यान करने में विशेष आनन्द आता है और विशेष प्रभाव पड़ता है। यह समय रात्रि को बजे से १० बजे और प्रातः से बजे का है। इन दोनों अवसरों में से जब जिसे सुविधा हो वह अपनी सुविधा के अनुरूप समय निर्धारित कर सकते हैं।

आरम्भ में यह समय एका बार में आधा घण्टे से अधिक का नहीं होना चाहिए। धीरे- धीरे समय बढ़ाकर एक घण्टे तक का किया जा सकता है। रात्रि के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में दोनों बार भी यह साधन किया जा सकता है। तब दो बार में कुल मिलाकर एक घण्टे से लेकर दो घण्टे तक का यह समय हो सकता है। २४ घण्टे में घण्टे इसके लिए अधिकतम समय हो सकता है। अधिक तेज के ग्रहण करने और धारण करने में कठिनाई पड़ती है, इसलिए ग्रहण उतना ही करना चाहिए जितना पचाया जा सके। कौन किस समय इस साधना को करे, कितनी देर, किस प्रकार बैठकर करे यह निर्धारण करना साधक का काम है। अपनी परिस्थतियों के अनुसार उसे अपनी व्यवस्था स्वयं ही करनी चाहिए। पर जो क्रम या समय निर्धारित किया जाय, उसे उसी क्रम से चलना चाहिए। समय और स्थिति का एक ही क्रम चलना किसी भी साधना की सफलता के लिए उचित एवं आवश्यक है।


ज्योति अवतरण साधना निम्न प्रकार करनी चाहिये-
() शरीर को शिथिल कर देना चाहिए और ऐसी भावान करनी चाहिए कि अपना मन, शरीर और आत्मा पूर्ण शान्त निश्चिन्त एवं प्रसन्न स्थिति में अवस्थित है। यह भावना पाँच मिनट करने से चित्त में ध्यान के उपयुक्त शान्ति उत्पन्न होने लगती है।
() ध्यान कीजिये चारों ओर प्रकाश- पुंज फैला हुआ है। आगे- पीछे ऊपर- नीचे सर्वत्र प्रकाश फैल रहा है। भगवती आदिशक्ति की आभा सूर्यमंडल में से निकल कर सीधी आप तक चली आ रही है और आप उस प्रकाश के घेरे में चारों ओर से घिरे हुए हैं।
() यह प्रकाश किरणें धीरे- धीरे आपके शरीर में त्वचा छिद्रों में प्रवेश करती हुई प्रत्येक अवयव में घुस रही है। हृदय, फेफड़े, आमाशय, आँतें, मस्तिष्क, हाथ,पैर आदि अंग उस प्रकाश- पुंज को अपने भीतर धारण करके परिपुष्ट हो रहे हैं। जिह्वा, गुह्येन्द्रिय, नेत्र, कान, नाक आदि इन्द्रियाँ इस प्रकार से आलोकित होकर पवित्र बन रही हैं। उनकी असंयम वृत्ति जल रही है। पवित्रता की यह ज्योति शरीर के कण- कण को पवित्र बनाने में संलग्न है।
स्थूल शरीर में रक्त- माँस अस्थि आदि के बने हुए अवयवों के प्रकाश पुंज बनने और उनके परिपुष्ट, पवित्र, स्फूर्तिवान एवं ज्योतिर्मय का ध्यान करने के उपरान्त सूक्ष्म शरीर पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। सूक्ष्म शरीर का स्थान मस्तिष्क है।
() ध्यान करना चाहिए कि मस्तिष्क के भीतर मक्खन जैसे कोमल- बालू के जैसे बिखरे हुए कणों में अगणित प्रकार क मानसिक शक्तियों एवं विचारणाओं के केन्द्र छिपे हुए हैं। उन तक आदिशक्ति माता के प्रकाश की धाराएँ बह रही हैं और वे सभी कण उसके द्वारा रत्नकणों की तरह ज्योतिर्मय होकर जगमागाने लगे हैं।

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