गायत्री उपासना अनिवार्य है - आवश्यक है

गायत्री साधना से अन्तः कायाकल्प

<<   |   <   | |   >   |   >>

सन्त इमर्सन कहा करते थे कि- ‘‘मुझे नरक में भेज दो ।। मैं वहाँ भी स्वर्ग का निर्माण कर लूँगा।’’ जिसका अन्तरंग इतना परिष्कृत एवं पवित्र हो गया वही इस प्रकार का उद्घोष कर सकता है। स्वर्ग बाह्य परिस्थितियों पर ही अपनी मनःस्थिति पर आधारित होता है। संतुलित एवं विधेयात्मक दृष्टिकोण ही स्वर्ग और निषेधात्मक अस्त- व्यस्त निकृष्ट चिन्तन ही नरक है। अपना व्यक्तित्व ही बाहरी परिस्थितियों को गढ़ता है। यदि वह निकृष्ट स्तर का हुआ तो वैसी ही स्थिति का निर्माण करेगा। उत्कृष्ट एवं पवित्र व्यक्तित्व ही स्वर्गीय वातावरण का सृजन करता है। स्पष्ट है, अन्तः करण की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता पर ही बाह्य जगत में स्वर्ग य नरक के रूप में प्रतिबिम्बित होती है।

गायत्री महामंत्र का चतुर्थ पद धियो योनः प्रचोदयात अन्तःकी पवित्रता -बुद्धि की निर्मलता की ही प्रेरणा देता है। सद्बुद्धि मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। परिष्कृत एवं उत्कृष्ट और पवित्र व्यक्तित्व सद्बुद्धि की अनुकम्पा पर ही बनते हैं। नर- पशु को देवता और महामानव बनाने की क्षमता सद्बुद्धि में है। उसी के बलबूते सामान्य व्यक्ति भी असामान्य की स्थिति में जा पहुँचते हैं। अन्तः परिशोधन की प्रक्रिया जिस आध्यात्म उपचार द्वारा सम्पन्न होती है, भारतीय संस्कृति में उसे गायत्री महामंत्र कहा गया है। यह बुद्धि को निर्मल, पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने का महामंत्र है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर के व्यामोह में जकड़ी दुर्बुद्धि मानवी व्यक्तित्व को हेय, गई- गुजरी स्तर की बनाये रहती है। गायत्री महामंत्र का अवलम्बन ‘धी’ को प्रेरित करता है। श्रेष्ठता के मार्ग पर जबरन ‘प्रचोदयात’ धकेल देता है। महामंत्र के अन्तिम पद में परमात्मा से अन्तः पवित्रता के लिए, सन्मार्ग पर बढ़ने के लिए प्रार्थना की गयी है।

नरक जैसी दृष्टिगोचर होने वाली परिस्थितियाँ उतनी बुरी नहीं होतीं, जितनी कि स्वयं का दृष्टिकोण। अपना आपा ही सर्वत्र परिलक्षित होता है। संसार तो दर्पण के समान है, जिसमें अपनी ही सूरत दिखाई देती है। क्रोधी व्यक्ति को सारी दुनिया ही लड़ती- झगड़ती  प्रतीत होगी। झूठे को सभी अविश्वासी ही जान पड़ते हैं। जो निकम्मे और आलसी है, उसे सर्वत्र बेकारी फैली मालूम देती है। व्यभिचारी, चोर, डाकू, सनकी, पागल जैसे मनोविकारों- वाले व्यक्ति सबको अपने अनुरूप ही देखते और दूसरों को भी अपने जैसा मानकर दोषारोपण करते रहते हैं। यदि वास्तविकता का, अपनी त्रुटि का बोध हो जाये तो जो बुरे जान पड़ते थे, वे अच्छे लगने लगेंगे।

दोषारोपण की दृष्टि से देखने पर तो प्रत्येक व्यक्ति में अनेकों प्रकार की बुराइयाँ मालूम पड़ती हैं। पर जब यह सोचना आरम्भ करते हैं कि किसने, कब और कितना उपकार हमारे ऊपर किया है तो प्रतीत होता है, कि अपने ऊपर तो दूसरों की सेवा, उपकार का इतना बोझ लदा है कि उससे सिर उठाना भी मुश्किल है। दृष्टि निषेधात्मक हो तो अपने निकटवर्तियों- आत्मीय जनों में ही अनेकों प्रकार के दोष ढूँढ़ने पर निकल आयेंगे। पत्नी के एक दोष पर ही चिन्तन करते रहा जाये तो पाप की प्रतिमूर्ति जान पड़ेगी। उसकी सारी सेवाएँ विस्मृत हो जायेंगी। माता- पिता की कटु बात, डाट- फटकार को गाँठ बाँध लेने पर तो उनके समस्त त्याग- बलिदान भूल जाते हैं। बच्चे को वे दुश्मन जैसे दीखते हैं। यही बात स्वजन सम्बन्धियों एवं मित्रों के विषय में लागू होती है। छोटी बुराई पर चिन्तन करते रहने से तो दुर्भाव बढ़ता ही जाता है। उनकी समस्त अच्छाइयाँ भूल जाती हैं और बुराइयों पर ध्यान जितना अधिक देते हैं उतना ही दुःखी होते हैं। इसकी अपेक्षा दृष्टिकोण परिमार्जित हो तो प्रतीत होगा कि चारों ओर से हमारे ऊपर स्नेह, वात्सल्य, सहयोग, सद्भाव एवं कृपा की वर्षा हो रही है।

सही दृष्टिकोण के अभाव में तो अनेकों प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। किसी वस्तु का अभाव रहने पर ईश्वर को, भाग्य को कोसते हैं। उसके असीम अनुदानों को भूल जाते हैं, जो पग- पग पर उपलब्ध होते रहते हैं। आपत्ति आ पड़ने पर मात्र दुःख को देखते हैं, पर यह नहीं देखते कि इसके कारण साहस एवं पुरूषार्थ को जाग्रत करने का अवसर भी मिलता है। ईश्वर तो करुणा का सागर है। वह द्वेष- वश अथवा निष्ठुर होकर क्यों अपने ही पुत्रों को कष्ट देगा। आई हुई विपदाओं में मनुष्य का दूरवर्ती लाभ निहित होता है। अध्यापक के पीटने में , माता- पिता के धमकाने में, डॉक्टर के ऑपरेशन में किस प्रकार बालक मा हित सन्निहित होता है, उसी प्रकार अनेकों कष्टों के पीछे प्रभु की करुण- कृपा ही छिपी रहती है। यह विवेक बुद्धि गायत्री- उपासना से सहज ही जाग्रत हो जाती है। यही कारण है कि गायत्री साधक सामने आए अवरोधों से घबड़ाता नहीं है। जीवन का एक अनिवार्य पक्ष विकास का साधन मानकर उनको दूर करने का प्रयत्न करता है। वह अपनी आन्तरिक महानता से परिचित हो जात है और जानता है कि घटनाएँ तो नित्य बदलती रहती हैं? वे धूप- छाँह जैसी होती हैं। इस कारण उन्हें अनावश्यक महत्त्व क्यों दिया जायें। जीवन शान्ति, सन्तोष एवं प्रसन्नता से जीने की वस्तु है। उसे क्रीड़ा, कल्लोल, विनोद, विलास ही समझना चाहिए। इस तत्त्वज्ञान से परिचित गायत्री उपासक अनावश्यक शोक, मोह, चिन्ता, भय, क्रोध और आवेश से बचा रहता है। कर्तव्य- मार्ग पर निर्लिप्त भाव से आरूढ़ रहना ही रुचता है। फलतः मानसिक उद्वेग उसे परेशान नहीं कर पाते।

गायत्री मन्त्र का अन्तिम पद साधक को इतना आत्मबल देता है, जिससे वह सामने आई बाधाओं का सामना सहज ही कर सके। सफलता- असफलता से वह उतना प्रभावित नहीं होता। उसका ध्यान मात्र कर्तव्यों पर बना रहता है। अन्तः का परिष्कार- मनोभूमि का संशोधन- यही है अध्यात्म का मूलभूत लक्ष्य। गायत्री के तृतीय चरण का यही सन्देश है। अनुकूल- प्रतिकूल हर प्रकार की परिस्थिति में सन्तुलित एवं प्रसन्नचित्त बने रहना गायत्री- उपासना की सबसे बड़ी उपलब्धि है।


इस महामन्त्र का सन्देश है कि हर प्रकार की परिस्थितियों का उपयोग बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से करें। अच्छे से अच्छे भविष्य की आशा करे, पर बुरे से बुरे परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहें। यदि कठिनाइयों को अपने पुरुषार्थ एवं साहस को विकसित करने की चुनौती मात्र समझा जाये, उनसे भयभीत न हुआ जाये तो निश्चय ही कोई अप्रिय घटना हमें दुःखित नहीं कर सकती। अपनी प्रसन्नता में बाधक नहीं बन सकती ।। प्रसन्न रहना अपना स्वभाव बना लेने की सद्बुद्धि को अपना लिया जाये तो छोटे- मोटे कारणों से दुःखी होने की कुबुद्धि से सहज ही छुटकारा मिल सकता है। जीवन खिलाड़ी की भावना से खेलने के लिए प्राप्त हुआ है। खिलाड़ी पूरे उत्साह से खेलते हैं, पर जीत- हार की चिन्ता ही नहीं करते। रंगमंच पर अभिनय करने वाले अभिनेता कुशलता के साथ अपना पार्ट निभाते हैं, पर स्वयं अप्रभावित बने रहते हैं। खिलाड़ी और अभिनेता की भाँति जीवन का खेल खेलना चाहिए। ध्यान दिया जाये तो प्रतीत होगा कि जो सुविधाएँ एवं परिस्थितियाँ हमें मिली हैं, वे अनेकों की तुलना में कहीं अधिक श्रेयस्कर एवं सुखद हैं। प्राप्त सुविधाओं की तुलना में दुःख की मात्रा तो नगण्य, अल्प है। यह दृष्टिकोण बन सके तो प्राप्त सुविधाओं पर प्रसन्न रहा जा सकता है। दुःखों की उपेक्षा की जा सकती है।

गायत्री का तृतीय चरण अन्तः का परिशोधन करता है। बुद्धि इतनी परिमार्जित एवं निर्मल बन जाती है कि सदचिन्तन का महत्त्व समझ सके। दृष्टिकोण विधेयात्मक बनता है। बाह्य परिलक्षित होने वाली स्वर्गीय अथवा नारकीय परिस्थितियों में इस दृष्टिकोण की ही प्रधान भूमिका होती है। इस मनःस्थिति का निर्माण जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। अन्तः उत्कृष्टता से ओत- प्रोत व्यक्ति को सर्वत्र सतचित एवं आनन्द का ही दिग्दर्शन होता है। यही गायत्री- उपासना की उपलब्धि है। जिसको प्राप्त कर कोई भी व्यक्ति सन्त इमर्सन की भाँति कह सकता है कि ‘‘मुझे नरक में भेज दो, मैं स्वर्ग का सृजन कर लूँगा। ’’ यह परिष्कृत एवं परिशोधित मनःस्थिति का ही सत्परिणाम है, जो इस प्रकार के उद्गारों के रूप में प्रकट होते हैं। गायत्री उपासना के अवलम्बन से इस प्रकार की मनःस्थिति की प्रगति अवश्यम्भावी है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118