गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

कुमुहूर्त और अशकुनों का परिहार

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मुहूर्ता योग दोषा वा येऽप्यिमंगल कारिणः ।।

भस्मतां यान्ति ते सर्वे गायत्र्यास्तीव्र तेजसा

(अमंगल कारिणः) अमंगल करने वाले (येऽपि) जो भी (मुहूर्ताः) मुहूर्त (वा) अथवा (योगदोषाः) योग दोष हैं (ते सर्वे) वे सब (गायत्र्याः) गायत्री के (तीव्र तेजसा) प्रचंड तेज से (भस्मतां यान्ति) भस्म हो जाते हैं ।।

काल की सूक्ष्म गति का ज्ञान रखने वाले तत्त्वदर्शी आचार्यों ने अपनी चिरकालीन साधना और सूक्ष्म दृष्टि से यह जान लिया था कि विविध ग्रह नक्षत्रों की सूक्ष्म शक्तियाँ पृथ्वी पर किस समय और किस शक्ति के साथ आती हैं उनका आपस में एक- दूसरे से सम्मिश्रण होने पर कैसी प्रतिक्रिया होती है और उस प्रतिक्रिया का मानव प्राणियों पर तथा भू- लोक की वस्तुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस विज्ञान की जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने कार्यारंभ के लिए ऐसे नियम निर्धारित किये जिनके अनुसार मानो वे अनिष्टकर प्रभाव से बच जाते हैं जो ग्रह नक्षत्रों की सूक्ष्म शक्तियों के कारण मनुष्यों के लिए हानिकारक होते हैं। इस विज्ञान के आधार पर मुहूर्तों की रचना की गई है। जो घड़ियां जिस कार्य के लिए अशुभ हैं उन्हें छोड़ कर ऐसे क्षणों में काम करना जो मंगल- मय है मुहूर्त कहलाता है। शुभ मुहूर्त में काम करने से कर्त्ता के मन पर एक उत्साहवर्धक छाप पड़ती है, उसे विश्वास रहता है कि मैंने शुभ घड़ी में कार्य आरम्भ किया है और उसका परिणाम भी शुभ ही होगा। इस विश्वास के आधार पर सचमुच ही उसका कार्य सफल होता है। विश्वास की फलदायिनी शक्ति का महत्त्व अब किसी से छिपा हुआ नहीं है।

कार्य आरम्भ करते समय कुछ संयोग भी ऐसे आते हैं जिनसे कार्य की सफलता असफलता का संकेत मिलता है। ऐसे संयोगों को शकुन नाम से पुकारते हैं। कई बार कोई पशु पक्षी अपनी क्रियाओं द्वारा भविष्यवाणी करते हैं। भली और बुरी संभावनाओं की आगाऊ सूचना देते हैं, इसकी विस्तृत विवेचना हम अपनी ‘जीव जन्तुओं की बोली समझना’ पुस्तक में सविस्तार कर चुके हैं। कुछ आकस्मिक संयोग आते हैं जैसे तेली, या खाली बर्तन सामने आना, छींक होना, बांया अंग फड़कना आदि अशुभ और भोजन, मृतक, मेहतर, जल भरे हुए घड़े, दाहिना अंग फड़कना आदि शुभ संयोग अकस्मात सामने आ जाते हैं इनसे भी भविष्य के बारे में कुछ पूर्वाभास मिलता है।

कभी- कभी ऐसे अवसर आते हैं कि कार्य आरम्भ करना अत्यन्त आवश्यक है, उसकी पूर्ण तैयारी हो चुकी है। उस समय कार्य आरम्भ न करने से कोई प्रत्यक्ष हानि या असुविधा दिखाई दे रही है किन्तु उस समय मुहूर्त या शकुन के अशुभ होने के कारण द्विविधा उत्पन्न हो गई है। इसे करें या न करें, कार्यक्रम को स्थापित करें या चालू करें, यात्रा को आरम्भ करें या रूक जायें, इस प्रकार के संकल्प विकल्प मन में उठते हैं। कार्य को रोका जाता है तो पूर्व योजना के खटाई में पड़ने से उत्साह शिथिल होता है और निश्चित योजना में विघ्न पड़ने से चित्त खिन्न होता है तथा समय पर कार्य न होने से, आवश्यक कार्य में हानि होने की संभावना रहती है, दूसरी ओर यह अशकुन और कुमुहूर्त होते हुए भी कार्य आरम्भ होता है तो जी में यही आशंका बनी रहती है कि इस कार्य में सफलता मिलेगी या कोई अनिष्टकर परिणाम होगा। ऐसी स्थिति में करने या न करने का कोई भी निर्णय क्यों न किया जाय मनुष्य की मनोदशा साँप- छछूँदर की सी रहती है।

उस द्विविधा जनक स्थिति से बचने का एक रामबाण उपाय गायत्री माता का आश्रय ग्रहण करना है। उसका  ब्रह्मतेज अपने अन्दर धारण करने से मुहूर्त और शकुनों के दोषों का समूह उस ज्वाला में जल कर भस्म हो जाता है। ग्रह नक्षत्रों कार अनिष्टकर प्रभाव, तथा शकुनों का पूर्वाभास यद्यपि किसी कारण पर अवलम्बित होता है पर वे कारण इतने प्रबल नहीं हो सकते जो गायत्री के ब्रह्मतेज से अधिक शक्तिशाली हों। भूत- प्रेतों का आक्रमण गायत्री शक्ति से विफल हो जाता है, अशुभ पूर्वाभास भी भगवती की शक्ति से निष्फल हो जाते हैं।

अशुभ लक्षणों के होते हुए भी जब कार्य आरम्भ करना हो तो स्वस्थ चित्त में पूर्वाभिमुख होकर भगवती का ध्यान करना चाहिए और श्रद्धापूर्वक एक सौ आठ मंत्र जपकर मन ही मन प्रणाम करना चाहिए और उत्साहपूर्वक कार्य आरम्भ कर देना चाहिए। उस अनिष्ट निवारक प्रयोग के साथ बुरी घड़ियों में किये हुए काम भी सफल होते हैं। स्वभावतः साधारण कामों को भी इस रीति के साथ आरम्भ किया जाय तो ब्राह्मी शक्ति की सहायता का मार्ग अधिक सुलभ हो जाता है।


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