गायत्री उपासना अनिवार्य है - आवश्यक है

उपासना क्यों ? और किसकी ?

<<   |   <   | |   >   |   >>

ईश्वर इस ब्रह्माण्ड में संव्याप्त वह दिव्य चेतना है, जिसका एक छोटा- सा अंश जीवनयापन करने के लिए जितना आवश्यक है, उतनी मात्रा में हर किसी को मिला हुआ है । सभी प्राणी उतने मात्र से ही अपना काम चलाते हैं और उन्हें इसी अर्थ में ईश्वर का अंश जीव कहा जाता है कि उन्हें वह चेतना आवश्यक मात्रा में सहज रूम से उपलब्ध है । सामान्यतः यह उपलब्धि शरीर में क्रियाशीलता और मन में विचारणा की प्रक्रिया चलती रहे इतने मात्र तक सीमित है । इस उपलब्धि के आधार पर सामान्य रूप से ही जीवन- क्रम चल सकता है ।

इससे आगे जीवन मुक्ति, आत्म साक्षात्कार परमसिद्धि, जैसी उपलब्धियों के लिए चेतना के उस विशाल सागर से प्रयत्न पूर्वक अधिक मात्रा में विशिष्ट चेतना अर्जित और धारण करनी पड़ती है। इसी प्रयास पुरुषार्थ को उपासना कहा जाता है । सूर्य की किरणें सभी स्थानों पर एक समान पड़ती हैं, लेकिन इन किरणों को एकत्रित किया जाये तो जलने जैसी गर्मी भी उत्पन्न हो सकती है । उपासना के माध्यम से बिखरी हुई भागवत् चेतना को उसी प्रकार आकर्षित एवं एकत्रित किया जाता है जिससे व्यक्ति की आत्मिक क्षमता बढ़ सकती है और उस संचय के बल पर भौतिक दृष्टि से सुसम्पन्न तथा आत्मिक दृष्टि से सुसंस्कृत बना जा सकता है ।

बिजली घर में शक्ति का भण्डार भरा रहता है उस के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाले सूत्र जितने समर्थ या दुर्बल होते हैं, उसी अनुपात से बिजली की मात्रा का आगमन होता है और उससे मशीनें चलती हैं। हलका फिटिंग तो हर किसी में है और उतने में से थोड़ी शक्ति के कुछ ही बल्ब जल सकते हैं। पर यदि मीटर तथा सम्बन्ध- सूत्रों को बलिष्ठ बना दिया जाये तो उसी स्थान पर शक्तिशाली कारखाना धड़धडाने लगता है। यह बिजली की अधिक मात्रा प्राप्त होने का परिणाम है। कई व्यक्तियों में दिव्य चेतना से सम्पर्क प्रायः टूटा ही रहता है और वे क्रियाशीलता, मानवीय चेतना की दृष्टि से रिक्त ही बने रहते हैं । बिजली घर के साथ सम्बन्ध जुड़ा रहे तभी घर के बल्ब, पंखे, हीटर, रेडियो आदि चलते रहते हैं। सम्बन्ध कट जाने पर यह सब तंत्र ठीक रहते हुए भी निष्क्रिय बन जाते हैं। ईश्वर से सम्बन्ध कट जाने पर भी वैसी ही स्थिति होती है। आकार- प्रकार, स्वरूप सब ठीक- ठाक रहते हुए भी जीवन्तता की दृष्टि से वहाँ शून्यता ही बनी रहती है। इस शून्यता को मिटाने दिव्य चेतना से सम्बन्ध रहने तथा ईश्वरीय सामर्थ्य को एकत्रित करने के लिए उपासना एक अत्यन्त आवश्यक अनिवार्य कृत्य है।

दैनिक क्रियाकलापों में उपासना के लिए भी स्थान रखना एक दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता भरा निर्धारण है। आत्मा का परमात्मा से , जीव का ब्रह्म से सम्पर्क सान्निध्य वैसी ही आवश्यकता है जैसी कि बैट्री चार्ज करने के लिए समय- समय पर उसे आवश्यक यांत्रिक प्रक्रियाओं से जोड़ा- गुजारा जाता है। भूख लगती है तो भोजन कर लिया जाता है, ग्रहण किये गये आहार से दिन भर काम चल सके, इतना पोषण दो या तीन बार किये जाने वाले भोजन से मिल जाता है। भोजन से प्राप्त हुई शक्ति खर्च हो जाने के बाद फिर भोजन की आवश्यकता पड़ती है। उसी प्रकार आत्मिक- प्रगति प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भी नियमित रूप से उपासना का क्रम चलाना चाहिए ।

नियमित उपासना, नियत समय पर नियत समय तक नियत स्थान पर होना चाहिए । इस नियमितता से वह स्थान संस्कारित हो जाता है और मन भी ठीक तरह लगता है । जिस प्रकार नियत समय पर सिगरेट आदि की तलब उठती है, उसी तरह पूजा के लिए भी मन में उत्साह जगता है। जिस स्थान पर बहुत दिन से सो रहे हैं, उस स्थान पर नींद ठीक आती है। नयी जगह पर स्थान पर अक्सर नींद में अड़चन पड़ती है। इसी प्रकार पूजा का नियत स्थान ही उपयुक्त रहता है। व्यायाम की सफलता तब है जब दण्ड- बैठक आदि को नियत संख्या में नियत समय पर किया जाये। कभी बहुत कम, कभी बहुत ज्यादा कभी सवेरे, कभी दोपहर को व्यायाम करने से लाभ नहीं मिलता

 

इसी प्रकार दवा की मात्रा भी समय और तौल को ध्यान में रखकर निर्धारित समय और परिमाण में प्रयुक्त की जाये तो उससे उपयुक्त लाभ मिलेगा अन्यथा नहीं। यही बात उपासना के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। यथासम्भव नियमितता ही बरतनी चाहिए। रेलवे की रनिंग ड्यूटी करने वाले, यात्रा में रहने वाले, फौजी, पुलिस वाले जिन्हें अक्सर समय- कुसमय यहाँ वहाँ जाना पड़ता है, उनकी बात दूसरी है। वे मजबूरी में अपना क्रम जब भी जितना भी बन पड़े रख सकते हैं। न कुछ से कुछ अच्छा। पर जिन्हें ऐसी असुविधा नहीं, उन्हें यथासम्भव नियमितता ही बरतनी चाहिए । कभी मजबूरी की स्थिति आ पड़े तो वैसा हेर- फेर किया जा सकता है ।

पूजा उपचार के लिये प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम है । स्थान और पूजा उपकरणों की सफाई नित्य करनी चाहिए। जहाँ तक हो सके नित्य कर्म से- शौच स्नानादि से निवृत्त हो कर पूजा पर बैठना चाहिए। रुग्ण या अशक्त होने की दशा में हाथ, पैर, मुँह आदि धोकर भी बैठा जा सकता है । पूजा का न्यूनतम कार्य निर्धारित ही रखना चाहिए, उतना तो पूरा कर ही लिया जाय। यदि प्रातः समय न मिले तो सोने तक पूर्व निर्धारित कार्यक्रम की पूर्ति की जाये। बाहर प्रवास पर रहना पड़े तो मानसिक ध्यान पूजा आदि की जा सकती है। ध्यान में नित्य की पूजा का स्मरण और भाव कर लेने को मानसिक पूजा कहते हैं। विवशता में ऐसी पूजा से भी काम चल सकता है।

अब प्रश्न चह उठता है कि उपासना कौन सी और किस पद्धति से की जाये। उपासना अनेकानेक प्रचलित है। सम्प्रदाय भेद से अनेकों मान्यता दी जाती रहे तो दार्शनिक और भावनात्मक विशृंखलता बनी ही रहेगी। अगला युग एकता का है। इसके बिना विग्रह बढ़ेंगे और संकट खड़े होंगे। एक राष्ट्र एवं एक संस्कृति अपनाये बिना विश्व मानव का स्वरूप नहीं निखरेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना शब्दाडम्बर बनकर ही रह जायगी मानवी संस्कृति- आचार व्यवहार में एकता स्थापित करनी होगी। साथ ही आस्तिकता का स्वरूप और व्यवहार भी एकता के केन्द्र पर ही केन्द्रित करना होगा। समस्त विश्व में प्रचलित आस्तिकतावादी मान्यताओं और उपासनाओं का सारतत्त्व ढूँढ़ना हो तो वह गायत्री मंत्र में बीज रूप से विद्यमान पाया जा सकता है । इसमें सर्वजनीन एवं सार्वभौम बनने योग्य सभी विशिष्टतायें विद्यमान हैं। इन चौबीस अक्षरों में बीज रूप से वह तत्व दर्शन भरा पड़ा है जिसे व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था के लिए एक उच्चस्तरीय आचार संहिता कहा जा सके। इसी प्रकार साधना उपासना से जिन सिद्धियों और विभूतियों की अपेक्षा की जाती है उन समस्त सम्भावनाओं का आधार एक महामन्त्र में मौजूद है ।

शास्त्रों में गायत्री की उपासना सर्वोत्कृष्ट मानी गयी है। इसलिए उसकी स्थापना को प्रमुखता देनी चाहिए । यदि किसी का दूसरे देवताओं के लिए आग्रह हो तो उन देवता का चित्र भी रखा जा सकता है। शास्त्रों में गायत्री के बिना अन्य सब साधनाओं का निष्फल होना लिखा है । इसलिए यदि अन्य देवता को इष्ट माना जाय और उसकी प्रतिमा स्थापित की जाय तो भी गायत्री का चित्र प्रत्येक दशा में साथ रहना ही चाहिए ।

अच्छा तो यह है कि एक ही इष्ट गायत्री महाशक्ति को माना जाय और एक ही चित्र स्थापित किया जाय। उससे एक निष्ठा और एकाग्रता का लाभ होता है यदि अन्य देवताओं की स्थापना का भी आग्रह हो तो उनकी संख्या कम रखनी चाहिए । जितने देवता स्थापित किये जायेंगे, जितनी प्रतिमायें बढ़ायी जायेंगी, निष्ठा उसी अनुपात में विभाजित होती जायेगी। इसलिये यथासम्भव एक अन्यथा कम से कम छवियाँ पूजास्थली पर प्रतिष्ठापित करनी चाहिए ।

उपासना का विस्तृत विधि- विधान अलग स्थानों पर बताया गया है, यहाँ उस सम्बन्ध में संकेत कितना ही पर्याप्त होगा । इस विधि से की गयी नियमित उपासना अखिल ब्रह्माण्ड संव्याप्त दिव्य चेतना के सागर से अपने लिए अभीष्ट शक्ति अर्जित करने के लिए पर्याप्त सहायक सिद्ध होती है। अधिकस्य अधिक फलम् वाली उक्ति यहाँ भी लागू होती है। उपासना जितनी भावभरी श्रद्धा निष्ठा के साथ की जायेगी, उसका उतना ही लाभ प्राप्त, होगा और मनुष्य नर से नारायण तथा पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की दिशा में अग्रसर हो सकेगा।



<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118