गायत्री मन्त्र में समस्त संसार को धारण, पोषण और अभिवर्धन करने वाले परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना की गयी है। श्रद्धाविश्वास पूर्वक की गयी यह उपासना साधक की अन्तश्चेतना को, उसके मन, अन्तःकरण, मस्तिष्क, विचारों और भावनाओं को सन्मार्ग की ओर अग्रसर होने को प्रेरित करती है। साधक जब इस महामन्त्र के अर्थ पर विचार करता है, तो वह समझ जाता है, कि संसार की सर्वोपरि समृद्धि और जीवन की सबसे बड़ी सफलता सद्बुद्धि को प्राप्त करना है।
यह मान्यता स्थिर हो जाने पर साधक की इच्छा- शक्ति इसी तत्त्व को प्राप्त करने के लिए लालायित होती है। इस आकांक्षा से अन्तरंग क्षेत्र में एक प्रकार चुम्बकत्व उत्पन्न होता है, उसके आकर्षण से निखिल आकाश के ईश्वर तत्त्व में विद्यमान सत् तत्त्व, सत् विचार, भावनायें और प्रेरणायें उस स्थान पर एकत्रित होने लगती हैं। विचारों की चुम्बकीय शक्ति का विज्ञान सर्वविदित है। एक जाति के विचार अपने सजातीय विचारों को आकाश से खींचते हैं, फलस्वरूप संसार के भूत और जीवित सत्पुरुषों के फैलाये हुए अविनाशी संकल्प जो शून्य में सदैव भ्रमण करते रहते हैं, गायत्री साधक के पास दैवी वरदान की तरह अनायास ही आकर जमा होते रहते हैं और संचित पूँजी की भाँति उनका एक बड़ा भण्डार जमा हो जाता है।
शरीर में सत् तत्त्व की अभिवृद्धि होने से शरीर चर्या की गतिविधि में काफी हेर- फेर हो जाता है। इन्द्रियों के भोगों में भटकने की गति मन्द हो जाती है। चटोरेपन ,, तरह- तरह के स्वादों के पदार्थ खाने के लिए मन ललचाने रहना, बार- बार खाने की इच्छा होना, अधिक मात्रा में खाना, भक्षाभक्ष का विचार न रहना, सात्त्विक पदार्थों में अरुचि और चटपटे, मीठे, गरिष्ठ पदार्थों में रुचि, जैसी बुरी आदत धीरे- धीरे कम होने लगती है। हल्के, सुपाच्य, सरस, सात्त्विक भोजनों से उसे तृप्ति मिलती है और राजसी, तामसी खाद्यों से घृणा हो जाती है। इसी प्रकार कामेन्द्रियों की उत्तेजना सतोगुणी विचारों के कारण संयमित हो जाती है। कुमार्ग में, व्यभिचार- वासना में मन कम दौड़ता है, ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा बढ़ती है। फलस्वरूप वीर्य- रक्षा और शरीर- वृद्धि का प्रधान हेतु है। इनके साथ- साथ परिश्रम, स्नान, निद्रा, सोना- जागना, सफाई, सादगी और अन्य दिनचर्याएँ भी सतोगुणी हो जाती हैं, जिनके कारण आरोग्य और दीर्घ जीवन की जड़ें मजबूत होती हैं।
मानसिक क्षेत्र में सद्गुणों की वृद्धि के कारण दोष- दुर्गुण कम होने लगते हैं तथा सद्गुण बढ़ने लगते हैं। इस मानसिक कायाकल्प का परिणाम यह होता है कि दैनिक जीवन में प्रायः नित्य ही आती रहने वाले अनेकों दुःखों का सहज ही समाधान हो जाता है। इन्द्रिय संयम और दिनचर्या के कारण शारीरिक रोगों का भी निराकरण हो जाता है। विवेक जाग्रत होते ही अज्ञान- जन्य चिन्ता, शोक, भय, आशंका, मोह- ममता हानि के दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। ईश्वर- विश्वास के कारण मति स्थिर रहती है और भावी जीवन के बारे में निश्चिन्तता बनी रहती है। धर्म- प्रवृत्ति के कारण पाप, अन्याय, अनाचार नहीं बन पड़ते। फलस्वरूप राज- दण्ड समाज- दण्ड, आत्म- दण्ड और ईश्वर- दण्ड की चोटों से पीड़ित नहीं होना पड़ता। सेवा, नम्रता, उदारता, दान, ईमानदारी, लोकहित आदि गुणों के कारण दूसरों को लाभ पहुँचता है, हानि की आशंका नहीं रहती। इससे प्रायः सभी लोग उनके कृतज्ञ, प्रशंसक, सहायक भक्त एवं रक्षक होते हैं। पारस्परिक सद्भावनाओं के परिवर्तन से आत्मा की तृप्ति करने वाले प्रेम और सन्तोष नामक रस दिन- दिन अधिक मात्रा में उपलब्ध होकर जीवन को आनन्दमय बनाते चलते हैं। इस प्रकार शारीरिक और मानसिक क्षेत्रों में सत्व- तत्त्व की वृद्धि होने से दोनों ओर आनन्द का स्रोत उमड़ता है और गायत्री साधक उसमें निमग्न रहकर आत्म- सन्तोष का, परमानन्द का रसास्वादन करता है।
आत्मा ईश्वर का अंश होने से उन सब शक्तियों को बीज रूप से अन्दर छिपाये रहता है, जो ईश्वर में होती हैं। वे शक्तियाँ सुप्तावस्था में रहती हैं और मानसिक तापों के विषय- विकारों के, दोष- दुर्गुणों के ढेर में दबी हुई अज्ञान रूप से पड़ी रहती हैं। लोग समझते हैं कि हम दीन- हीन और अशक्त हैं, पर जो साधक मनोविकारों का पर्दा हटाकर निर्मल आत्म- ज्योति के दर्शन करने में समर्थ होते हैं, वे जानते हैं कि सर्व शक्तिमान ईश्वरीय ज्योति उनकी आत्मा में मौजूद है और वे परमात्मा के सच्चे अधिकारी हैं। अग्नि के ऊपर से राख हटा दी जाये तो फिर दहकता अंगार प्रकट हो जाता है। वह अंगार छोटा होते हुए भी भयंकर अग्निकांडों की सम्भावना से युक्त होता है। यह पर्दा फटते ही तुच्छ मनुष्य महान आत्मा (महात्मा) बन जाता है
। चूँकि आत्मा में अनेकों ज्ञान, विज्ञान, साधारण- असाधारण अद्भुत, आश्चर्यजनक शक्ति के भण्डार छिपे पड़े हैं, वे खुल जाते हैं और वह सिद्ध योगी के रूप में दिखाई पड़ता है। सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिये बाहर से कुछ लाना नहीं पड़ता, किसी देव- दानव की कृपा की जरूरत नहीं पड़ती, केवल अन्तःकरण पर पड़े हुए आवरणों को हटाना पड़ता है। गायत्री की सतोगुणी साधना का सूर्य तामसिक अन्धकार के पर्दे को हटा देता है और आत्मा का सहज ईश्वरीय रूप प्रकट हो जाता है ।। आत्मा का यह निर्मल रूम सभी ऋद्धि- सिद्धियों से परिपूर्ण होता है ।
गायत्री द्वारा सतोगुणों की वृद्धि अनेक प्रकार की आध्यात्मिक और सांसारिक समृद्धियों की जननी है, शरीर और मन की शुद्धि सांसारिक जीवन को अनेक दृष्टियों से सुख- शांतिमय बनाती है। आत्मा में विवेक और आत्मबल की मात्रा बढ़ जाने से अनेक ऐसी कठिनाइयाँ जो दूसरों को पर्वत के समान भारी मालूम पड़ती हैं, उस आत्मवान् व्यक्ति के लिए तिनके के समान हल्की बन जाती हैं। उसका कोई काम रुका नहीं रहता या तो उसकी इच्छा के अनुसार परिस्थिति बदल जाती है या परिस्थिति के अनुसार अपनी इच्छाओं को बदल लेता है। क्लेश का कारण इच्छा और परिस्थिति के बीच प्रतिकूलता का होना ही तो है। विवेकवान इन दोनों में से किसी को अपनाकर उस संघर्ष को टाल देता है और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। उसके लिये इस पृथ्वी पर भी स्वर्गीय आनन्द की सुरसरि बहने लगती है।
वास्तव में सुख और आनन्द का आधार किसी बाहरी साधन- सामग्री पर नहीं किन्तु मनुष्य की मनःस्थिति पर निर्भर करता है। मन की साधना से जो मनुष्य एक समय राजसी भोजनों और रेशमी गद्दे- तकियों से भी संतुष्ट नहीं होता, वह किसी सन्त के उपदेश से त्याग और संन्यासी व्रत ग्रहण कर लेने पर जंगल की भूमि को ही सबसे उत्तम शैया, वन के कन्द- मूल फलों को ही सर्वोत्तम आहार समझने लगता है। यह सब अन्तर मनोभाव और विचारों के बदल जाने से ही उत्पन्न होता है।
गायत्री सद्बुद्धि की, ऋतम्भरा प्रज्ञा की अधिष्ठात्री देवी है और उससे साधक सद्बुद्धि की याचना करता है। इस सद्बुद्धि के द्वारा सभी प्रकार के दुःखों को कारण मूल से दूर किया जा सकता है। सद्बुद्धि के प्रकाश में वे सभी सुझाई देने लगते हैं, जिनको काम में लाने पर दुःखों के कारण दूर हो जाते हैं। यों संसार में कई प्रकार के दुःख हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी- अपनी समस्यायें और कठिनाइयाँ हैं । सबकी अलग- अलग उलझनें हैं। इस दृष्टि से तो सबके दुःखों का कारण भी अलग- अलग होना चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं। गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाये तो प्रतीत होगा कि जीवन और जगत में विद्यमान समस्त दुःखों के कारण तीन हैं -(१) अज्ञान (२) अशक्ति और (३) अभाव । जो इन तीन कारणों को जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा, वह इतना ही सुखी बन सकेगा।
अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, वह तत्त्व- ज्ञान से अपरिचित होने के कारण उल्टा- पुल्टा सोचता है और उल्टे काम करता है, तदनुसार उलझनों में अधिक फँसता जाता है और दुःखी बनता है। स्वार्थ- भोग, लोभ, अहंकार, अनुदारता और काम की भावनायें मनुष्य को कर्तव्यच्युत करती हैं और वह दूरदर्शिता को छोड़कर क्षणिक, क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है। फलस्वरूप उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते हैं। पापों का निश्चित परिणाम दुःख है। दूसरी ओर अज्ञान के कारण वह अपने और दूसरे की सांसारिक गतिविधि में मूल हेतुओं को नहीं समझ पाता। फलस्वरूप असम्भव आशायें, तृष्णायें कल्पनायें किया करता है। इन उल्टे दृष्टिकोणों के कारण साधारण सी बातें उसे बड़ी दुःखमय दिखाई देती हैं। जिसके कारण वह रोता- चिल्लाता रहता है। आत्मीयों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार- चढ़ाव स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि मैं जो चाहता हूँ वह सदा होता रहे, प्रतिकूल बात सामने आवे ही नहीं। इस असम्भव आशा के विपरीत घटनाएँ जब भी घटित होती हैं तभी वह रोता चिल्लाता है। तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती हैं। समीपस्थ, सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है, यह भी दुःख का हेतु है। इस प्रकार अनेकों दुःख मनुष्य को अज्ञान के कारण प्राप्त होते हैंअशक्ति का अर्थ है- निर्बलता । शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलताओं के कारण, मनुष्य अपने स्वाभाविक, जन्मसिद्ध अधिकारों का भार अपने कन्धों पर उठाने में समर्थ नहीं होता, फलस्वरूप उसे वंचित रहना पड़ता है। स्वास्थ्य खराब हो, बीमारी ने घेर- रखा हो तो स्वादिष्ट भोजन, रूपवती तरूणी, मधुर गीत, बाह्य, सुन्दर दृश्य निरर्थक हैं। धन- दौलत का कोई कहने लायक सुख उसे नहीं मिल सकता । बौद्धिक निर्बलता हो तो साहित्य, काव्य, दर्शन- मनन, चिन्तन का रस प्राप्त नहीं हो सकता। आत्मिक निर्बलता हो तो सत्संग, प्रेम, भक्ति आदि का आत्मानन्द दुर्लभ है। इतना ही नहीं, निर्बलों को मिटा डालने के लिये प्रकृति का ‘उत्तम की रक्षा’ सिद्धान्त काम करता है। कमजोर को सताने और मिटाने के लिये अनेकों तथ्य प्रकट हो जाते हैं। निर्दोष, भले और सीधे- साधे तत्त्व भी उसके प्रतिकूल पड़ते हैं। सर्दी, जो बलवानों की बलवृद्धि करती है, रसिकों को रस देती है, वह कमजोरों को निमोनियाँ, गठिया आदि का कारण बन जाती है । जो तत्त्व निर्बलों के लिये प्राणघातक हैं, वे ही बलवानों को सहायक सिद्ध होते हैं। बेचारी निर्बल बकरी को जंगली जानवरों से लेकर जगत्माता भवानी दुर्गा तक चट कर जाती है और सिंह को वन्य पशु भी नहीं, बड़े- बड़े सम्राट तक राज- चिह्न में धारण करते हैं। अशक्त हमेशा दुःख पाते हैं, उनके लिये भले तत्त्व भी आशाप्रद सिद्ध नहीं होते हैं।
अभावजन्य दुःख है- पदार्थों का अभाव। अन्न- वस्त्र, मकान, पशु, भूमि, सहायक, मित्र, धन, औषधि, पुस्तक, शस्त्र, शिक्षक आदि के अभाव में विविध प्रकार की पीड़ायें कठिनाइयाँ भुगतनी पड़ती हैं। उचित आवश्यकताओं को कुचल कर मन मारकर बैठना पड़ता है और जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों को मिट्टी के मोल नष्ट करना पड़ता है। योग्य और समर्थ व्यक्ति भी साधनों के अभाव मे अपने को लुंज- पुंज अनुभव करते हैं और दुःख उठाते हैं।
गायत्री कामधेनु है, जो उसकी, पूजा, उपासना आराधना और अभिभावना करता है, वह प्रतिक्षण माता का अमृतोपम दुग्धपान करने का आनन्द लेता है और समस्त अज्ञानों, आशक्तियों और अभावों के कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों से छुटकारा पाकर मनोवांछित फल प्राप्त करता है। योग्य गुरू के पथ- प्रदर्शन में की गयी गायत्री साधना अभीष्ट लाभ पहुँचाती है। इन साधनाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए भले ही थोड़ा- बहुत अधिक समय व श्रम लगाना पड़े पर अन्य कष्टपूर्ण साधनाओं की अपेक्षा उन साधनाओं में जल्दी ही सफलता मिलती है। योगी जनों का कष्ट साध्य लम्बा मार्ग गायत्री द्वारा बहुत सरल हो जाता है और घर में रहते हुए गृहस्थ व्यक्ति भी वनवासी तपस्वियों जैसी सफलता प्राप्त कर लेता है।
कष्टप्रद भव बन्धनों, माया- मोह की शृंखला से छुटकारा पाकर परम लक्ष्य को प्राप्त करना इस मार्ग से जितना सरल है, उतना और किसी मार्ग से संभव नहीं, गायत्री साधना द्वारा मानसिक परिष्कार व्यक्तित्व के विकास, दुःखों के निवारण और आत्मिक विकास के दिव्य लाभों के अतिरिक्त कई सिद्धियाँ, विशेष शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। इन शक्तियों को क्रमशः अर्जित करते हुए व्यक्ति अनुपम और अद्वितीय, असाधारण व्यक्तित्व का स्वामी बन जाता है।