उपेक्षा या लापरवाही से जैसे कुछ उल्टा सीधा, गलत-
सलत
मंत्र याद हो जाय उसे ही जप उठना ठीक नहीं। मंत्र का शुद्ध
उच्चारण याद होना चाहिए। इस अंक के प्रारम्भ में गायत्री मंत्र
अंकित है उसे
शुद्धरूप से कंठाग्र कर लेना चाहिए। उच्चारण शुद्ध हुआ या नहीं इसकी परीक्षा किसी विज्ञ
पुरूष से करा लेनी चाहिए।
चौबीस अक्षर वाली गायत्री के आरम्भ में प्रणव और भूः भुवः
स्वः, यह तीन व्याहृतियाँ लगाई जाती हैं। पर तंत्र ग्रन्थों में
विविध साधनाओं के लिए अनेक प्रणव और तीन, पांच या सात व्याहृतियां
लगाने का भी विधान है। भूः, भुवः, स्वः, तपः, जनः, सत्यम् यह सात
व्याहृतियाँ भी किसी- किसी प्रयोजन के लिए गायत्री मंत्र से पूर्व
जोड़ी जाती हैं और ॐ का भी अधिक संख्या में प्रयोग किया जाता
है। पर यह तान्त्रिक साधना का विषय है। इसलिए उसकी चर्चा करना
वहाँ अप्रासंगिक होगा। पाठकों को साधारण प्रयोजन के लिए एक प्रणव
और तीन व्याहृतियों (ॐ भूर्भुवः स्वः) के साथ चौबीस अक्षर वाली
गायत्री का शुद्ध उच्चारण के साथ जप करना चाहिए। जप इस प्रकार
होना चाहिए कि होठ, जिह्वा या कंठ की क्रिया तो होती रहे पर
पास में बैठा हुआ मनुष्य उसे भली प्रकार सुन या समझ न सके।
कोई- कोई मनुष्य ऐसे होते हैं जो गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि
से द्विज होते हुए भी शिक्षा में पिछड़े होते हैं, कइयों की
जिह्वा तथा स्वर प्रणाली में ऐसे दोष होते हैं जिनके कारण शुद्ध
उच्चारण सहित मंत्र जप न हो सकता हो तो केवल प्रणव और तीन
व्याहृतियों का ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ इतने मात्र मंत्र का जप कि या जा सकता है। इसे पंचाक्षरी मंत्र य लघु गायत्री कहते हैं।
जप विधिपूर्वक, स्नान शुद्धि आदि से भली प्रकार साधन न किया जा
सके, जब सूतक चल रहा हो या बीमारी यात्रा, आपत्ति के असाधारण
अवसरों पर यथा क्रम उपासना न हो सके, शुद्धि और स्वस्थता की
अवस्था न हो सके, ऐसी स्थिति में लघु गायत्री से काम चलाया जा
सकता है। स्त्रियों
के लिए पूरा मंत्र शुद्ध रूप से याद करना और आवश्यक शुद्धता
रखना प्रायः कठिन होता है वे लघु गायत्री के जप से लाभ उठा
सकती हैं।
इस पंचाक्षरी लघु गायत्री से ब्रह्म सन्ध्या, सवालक्ष, अनुष्ठान, प्रायश्चित, शक्ति स्मरण आदि हो सकते हैं। वृहद् गायत्री और लघु गायत्री के फल में कुछ न्यूनाधिकता तो है ही अन्यथा वृहद्
गायत्री की आवश्यकता ही क्यों पड़ती ?? पर जिनके लिए पूरी
गायत्री का साधन यथा विधि करना कठिन है उनके लिए लघु गायत्री
एक बड़ा ही उत्तम मार्ग है। (१) सुगमता से याद हो जाना (२) थोड़े समय में जप पूरा हो जाना (३) पूर्ण शुद्धि और पूर्ण विधि विधान में थोड़ी छूट रहने की भी गुंजायश- यह तीन विशेषताएं
कम महत्त्व की नहीं हैं। इनके कारण छोटे बालकों को भी स्नान
कराके लघु गायत्री का जप कराया जा सकता है और सामूहिक रूप से
उसका कीर्तन किया जा सकता है। कीर्तन के लिए एक ध्यान लहरी इस
प्रकार बड़ी मधुर बन जाती है।
‘‘ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ ॐ ।।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ’’ ॥
न कुछ से, कुछ अच्छा
जो सज्जन नियमित साधना नहीं कर सकते, किसी विधि विधान का
नियमित रूप से पालन करना उनसे नहीं बन पड़ता। उनसे हमारी
प्रार्थना है कि सर्वथा साधना विमुख होने की अपेक्षा वे मन ही
मन (बिना होठ और जिव्हा हिलाए) उंगली के पोरूओं
पर संख्या की गणना करते हुए जितना हो सके गायत्री का जप कर
लिया करें। इसके लिए किसी स्थान, माला, आसन आदि की आवश्यकता नहीं
है। जब अवसर मिले तभी जप आरम्भ कर दें और साथ ही माता के ज्योतिमान
स्वरूप का हृदय में या मस्तिष्क के मध्य भाग में ध्यान करते
रहें। इससे भी उन्हें बहुत शान्ति मिलेगी और दिन प्रतिदिन इस
मार्ग में उनकी श्रद्धा बढ़ेगी ।।
नित्य पाठ
नित्य पाठ के लिए ‘‘वेद शास्त्रों का निचोड़ गायत्री’’ बड़ी
ही महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। उसमें गायत्री गीता, गायत्री स्मृति,
गायत्री अष्टक, गायत्री स्तवन, गायत्री चालीसा और गायत्री की आरती
संकलित है। आध घण्टे में इस सबका पाठ हो सकता है। जिन्हें इतना
भी अवकाश न हो वे केवल गायत्री- गीता या गायत्री- चालीसा का पाठ
भी काम चला सकते हैं। इस नित्य पाठ का भी बड़ा माहात्म्य है।
नित्य की साधना में जप, ध्यान के अतिरिक्त पाठ करना भी आवश्यक
है।
सर्व सुलभ प्रारम्भ
नौ दिन में २४ हजार का आरम्भिक अनुष्ठान बहुत ही सुगम है। प्रतिदिन २६६७ मंत्र जपने होते हैं। इनकी २५ मालाएं
होती हैं। यह ढाई घण्टे में जपी जा सकती हैं। नौ दिन तक
प्रातःकाल ढाई घण्टा समय निकाल लेना कुछ कठिन काम नहीं हैं। एक
समय में इतना समय न मिल सके तो प्रातः डेढ़ घण्टा और सायं एक
घण्टा निकाला जा सकता है। आरम्भ में नौ दिन का छोटा अनुष्ठान
करके फिर नियमित गायत्री उपासना कर देना गायत्री साधना का सर्व
सुलभ मार्ग है।
यह दिव्य प्रसाद औरों को भी बाँटिये
पुण्य कर्मों के साथ प्रसाद बाँटना एक आवश्यक धर्मकृत्य माना
गया है। सत्यनारायण की कथा में अन्त में पंचामृत, पंजीरी बाँटी
जाती है, यज्ञ के अन्त में उपस्थित व्यक्तियों को हलुआ या अन्य मिष्ठान
बाँटते हैं। गीता- मंगल, पूजा- कीर्तन आदि के पश्चात् प्रसाद बाँटा
जाता है, देवता पीर- मुरीद आदि की प्रसन्नता के लिये बतासे, रेबड़ी
या अन्य प्रसाद बाँटा जाता है। मन्दिरों में जहाँ अधिक भीड़
होती है और अधिक धन खर्चने को नहीं होता वहाँ जल में तुलसी
पत्र डालकर चरणामृत को ही प्रसाद के रूप में बाँटते हैं।
तात्पर्य यह है कि शुभ कार्यों के पश्चात् कोई न कोई प्रसाद
बाँटना आवश्यक होता है। इसका कारण यह है कि शुभ कार्य के साथ
जो शुभ वातावरण पैदा होता है उसे खाद्य पदार्थों के साथ सम्बद्ध
करके उपस्थित व्यक्तियों को देते हैं ताकि वे भी उन शुभ
तत्त्वों को ग्रहण करके आत्मसात् कर सकें। दूसरी बात यह है कि
उस प्रसाद के साथ दिव्य तत्वों
के प्रति श्रद्धा की धारणा होती है और मधुर पदार्थ को ग्रहण
करते समय प्रसन्नता का आविर्भाव होता है। इन दोनों तत्त्वों की
अभिवृद्धि से प्रसाद ग्रहण करने वाला आध्यात्म की ओर आकर्षित
होता है और यह आकर्षण अन्ततः उसके लिए सर्वतोमुखी कल्याण को
प्राप्त कराने वाला सिद्ध होता है। यह परम्परा एक से दूसरे में,
दूसरे से तीसरे में चलती रहे और धर्म- वृद्धि का यह क्रम बराबर
बढ़ता रहे, इस लाभ को ध्यान में रखते हुए आध्यात्म विद्या के आचार्यों ने यह आदेश किया है कि
प्रत्येक शुभ कार्य के अन्त में प्रसाद बाँटना आवश्यक है। विवाह
आदि संस्कारों के उपरान्त उत्सव, कथा, व्रत, उपवास आदि के उपरान्त
ब्रह्मभोजों तथा प्रीतिभोजों
का आयोजन किया जाता है। शास्त्रों में ऐसे आदेश मिलता है
जिनमें कहा गया है कि अन्त में प्रसाद वितरण न करने से यज्ञ
कर्म निष्फल हो जाता है। इसका तात्पर्य प्रसाद के महत्त्व की ओर
लोगों को सावधान करने का है।
गायत्री साधन भी एक यज्ञ है। यह असाधारण यज्ञ है। अग्नि में सामग्री की आहुति देना स्थूल कर्मकाण्ड है पर आत्मा में परमात्मा की स्थापना, सूक्ष्म यज्ञ है। जिसकी महत्ता स्थूल अग्निहोत्र की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक है। इतने महान् धर्मकृत्य के साथ- साथ प्रसाद का वितरण भी ऐसा ही होना चाहिए जो उसकी महत्ता के अनुरूप हो। रेबड़ी, बतासे, लड्डू या हलुआ पूड़ी बाँट देने मात्र से यह कार्य पूरा नहीं हो सकता। गायत्री का प्रसाद तो ऐसा होना चाहिए, जिसे ग्रहण करने वाले को स्वर्गीय स्वाद मिले, जिसे खाकर उसकी आत्मा तृप्त हो जाय। गायत्री ब्राह्मी शक्ति है, उसका प्रसाद भी ब्राह्मी प्रसाद ही होना चाहिए। तभी वह उपयुक्त गौरव का कार्य होगा।
मिठाई आदि के प्रसादों का स्थूल भाग मल बनकर दूसरे दिन विसर्जित हो जाता है और उसका सूक्ष्म भाग भी यदि उसे अधिक पोषण न मिले तो अपना प्रभाव खो देता है, इतने हलके दर्जे की स्थूल वस्तुओं को गायत्री का प्रसाद नहीं बनाया जा सकता उसके लिए तो कोई गहरा आनन्द देने वाली वस्तु चाहिए। इस प्रकार का प्रसाद हो सकता है- ब्रह्म दान, ब्राह्मी स्थिति की ओर चलाने का आकर्षण, प्रोत्साहन। जिस व्यक्ति को ब्रह्म प्रसाद देना है उसे आत्म- कल्याण की दशा में आकर्षित करना और उस ओ चलने के लिए उसे प्रोत्साहन करना सही ब्रह्म प्रसाद है।
यह प्रकट है कि भौतिक और आत्मिक आनन्दों के समस्त स्रोत मानव प्राणी के अन्तःकरण में छिपे हुए है। सम्पत्तियाँ संसार में बाहर नहीं हैं, बाहर तो पत्थर, धातुओं के टुकड़े और निर्जीव पदार्थ, भरे पड़े हैं, सम्पत्तियों के समस्त कोष आत्मा में सन्निहित हैं, जिनके दर्शन मात्र से मनुष्य को तृप्ति मिल जाती है और उनके उपभोग करने पर आनन्द का पारावार नहीं रहता। उन आनन्द- भण्डारों को खोलने की कुंजी आध्यात्मिक साधनों में है और उन समस्त साधनाओं में गायत्री- साधन सर्वश्रेष्ठ है। यह श्रेष्ठता अतुलनीय है, असाधारण है, उसकी सिद्धियों और चमत्कारों का कोई पारावार नहीं। ऐसी श्रेष्ठ साधना के मार्ग पर यदि किसी को आकर्षित किया जाय, प्रोत्साहित किया जाय और जुटा दिया जाय तो इससे बढ़कर उस व्यक्ति का और कोई उपकार नहीं हो सकता। जैसे- जैसे उसके अन्दर सात्त्विक तत्त्वों की वृद्धि होगी, वैसे- वैसे उसके विचार और कार्यपुण्यमय होते जावेंगे और उसका प्रभाव दूसरों पर पड़ने से वे भी सन्मार्ग का अवलम्बन करेंगे, यह शृंखला जैसे- जैसे बढ़ेगी वैसे ही वैसे संसार में सुख- शान्ति की, पुण्य की, मात्रा बढ़ेगी और इस धर्म के पुण्य फल में उस व्यक्ति का भी भाग होगा, जिसने किसी को आत्म- मार्ग प्रोत्साहित किया था। जिस प्रकार किसी राजा को एक बार प्रसन्न कर देने से जागीर मिल जाती है और जागीर की आमदनी सदा ही आती रहती है, इसी प्रकार एक व्यक्ति को आत्म- कल्याण के मार्ग में लगा देने से, उसे लगा देने वाले को, उसके पुण्य फलों में से एक भाग सदा ही मिलता है। इस प्रकार वह निश्चय ही अक्षय पुण्य का भागीदार बन जाता है।
जो व्यक्ति गायत्री की साधना करे उसे प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि मैं भगवती को प्रसन्न करने के लिए उसका महाप्रसाद, ब्रह्म प्रसाद अवश्य वितरण करूँगा। यह वितरण इस प्रकार होना चाहिए कि अपने परिचितों में अपरिचितों में ऐसे व्यक्ति तलाश करने चाहिए जिनमें पहले से कुछ शुभ संस्कारों के बीज मौजूद हों। उन्हें धीरे- धीरे गायत्री का माहात्म्य, रहस्य लाभ समझाते रहा जाय। जो लोग आध्यात्मिक उन्नति के महत्त्व को नहीं समझते उन्हें गायत्री से होने वाले भौतिक लाभों का सविस्तार वर्णन किया जाय, अखण्ड- ज्योति द्वारा प्रकाशित गायत्री साहित्य पढ़ाया जाय इस प्रकार उनकी रुचि को इस दिशा में मोड़ा जाय जिससे वे आरम्भ में भले ही सकाम भावना से सही वेदमाता का आश्रय ग्रहण करें, पीछे तो वे स्वयं ही इस महालाभ पर मुग्ध होकर छोड़ने का नाम न लेंगे। एक बार रास्ते पर डाल देने से गाड़ी अपने आप ठीक मार्ग पर चलती जाती है। जिन्हें किसी प्रकार एक बार गायत्री माता के अंचल की शीतल छाया में गोदी में बैठने का आनन्द मिल गया, वे उसे जीवन भर छोड़ने का नाम भी नहीं लेंगे और सहज ही उनका आत्मकल्याण हो जायेगा।
किसी व्यक्ति की मित्रता किसी श्रेष्ठ समर्थ प्रभावशाली व्यक्ति से करा देना उसके विकास के हजार मार्ग खोल देने से जितना लाभप्रद होता है। आदि शक्ति- माता वेदमाता से सच्चा सम्बन्ध स्थापित कराना, किसी भी जीव को सही दिशा प्रदान करना, किसी भी पुण्य परमार्थ से कम ही नहीं अधिक ही फलदायक होता है।
माँ से सम्बन्ध जोड़ने का कार्य विवेकपूर्वक किया जाता है। किसी को पहलवान बनाना हो तो उससे प्रारम्भ में हल्के व्यायाम ही कराये जाते हैं। प्रारम्भ में सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी- गायत्री को छवि रूप में या मन्त्र रूप में संस्थापित करके उनके प्रति श्रद्धा भाव बढ़ाना भर पर्याप्त है पर अपना कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व उसके सामने बैठकर अथवा खड़े होकर ही ५- ७ मंत्र जपें तथा माँ से अधिक निकटता का अवसर देने की प्रार्थना करें। जीवन में सही दिशा प्रदान करने का भाव भरा आह्वान करें। यह २- ४ मिनट का क्रम भी एक अच्छी शुरूआत हो सकती है। बाद में क्रमशः व्यवस्थित उपासना क्रम में प्रवेश कराया जा सकता है।
यह ब्रह्म प्रसाद अन्य साधारण स्थूल पदार्थों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। आइये इस धन से नहीं, प्रयत्न से ही वितरण हो सकने वाले ब्रह्म प्रसाद को वितरण करके वेदमाता की कृपा प्राप्त कीजिए और अक्षय पुण्य के भागी बनिये।