गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

अर्थ- भावना का साधन

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गायत्री मन्त्र के अर्थ पर विचार करते हुए उसका ध्यान करना, तदनुकूल मानसिक चित्रों का बनाना एक उत्तम आध्यात्मिक साधना है। इस साधना से मनःक्षेत्र में मन्त्रोक्त विचार बीजों की स्थापना होती है। ऐसी स्थापना जब नियमित क्रम से नित्य की जाती है तो वे बीज अंकुरित होते हैं और अपना स्वरूप प्रकट करते हैं। अर्थ समेत गायत्री की ध्यान धारणा के प्रभाव से अन्तःकरण की सात्विकता में लगातार वृद्धि होती जाती है और साधक धीरे- धीरे अपने चरम लक्ष्य के समीप पहुँचता जाता है।

अर्थ की भावना के लिए किसी विशेष साधन विधि की आवश्यकता नहीं है और न कोई समय नियत करना ही अनिवार्य है। जब सुविधा हो जब थोड़ा अवकाश हो तभी थोड़े बहुत समय के लिए इसे करते रहना चाहिए। इस साधन में शरीर को शिथिल करने की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए आराम- कुर्सी का प्रबन्ध हो जाय तो सबसे अच्छा, अन्यथा साधारण हत्थेदार कुर्सी अथवा मसनद के सहारे से काम चल सकता है।

प्रसन्नचित्त होकर साधन के लिए बैठें और पीठ को कुर्सी या मसनद का सहारा देकर शरीर को ढीला छोड़ देना। चाहिए नेत्रों को बन्द या अधखुले रख कर ऐसी भावना करनी चाहिए कि शरीर बिलकुल ढीला, निष्प्राण हो रहा है। कुछ मिनटों तक यह भावना करने से शरीर की मांस पेशियां शिथिल हो जाती हैं। इस शिथिलता के कारण मस्तिष्क बहुत हल्का हो जाता है और ध्यान में सुविधा पड़ती है। खिंची हुई पेशियां मस्तिष्क पर अधिक दबाव डाले रहती हैं, शरीर के अंग जितने उत्तेजित एवं क्रिया लग्न होंगे उतनी ही मस्तिष्क में अस्थिरता रहेगी। इसलिए ध्यान के समय सदा ही शरीर की शिथिलता आवश्यक होती है, चाहे वह पद्मासन द्वारा लाई जाय या शिथिलासन द्वारा। हमें व्यक्तिगत रूप से शिथिलासन अधिक रूचिकर हुआ है, इसलिए अपने साधकों को उसी की सलाह दे रहे हैं। जिन्हें पद्मासन अनुकूल पड़े वे उसका प्रयोग कर सकते हैं।

जब शरीर ढीला होने लगे तो चार बार गहरी सांसें लेनी चाहिए। पहली सांस को खींचने के समय ॐ का दूसरी के साथ ‘भूः’ का तीसरी के साथ ‘भुवः’ का, चौथी के साथ ‘स्वः’ का मानसिक जप करते जाना चाहिए। इसके बाद मन्त्र के अर्थ की भावना नेत्र बन्द करके करनी चाहिए।

‘‘- मैं अपने अन्तःकरण में उस प्राण स्वरूप ब्रह्म को धारण कर रहा हूँ जो दुःख नाशक, सुख स्वरूप तेजवान्, श्रेष्ठ पाप नाशक और दिव्य है ।। ’’

‘‘- यह प्राण स्वरूप ब्रह्म मेरी बुद्धि को सत् मार्ग पर प्रेरित कर रहा है ।। ’’

मन्त्र में कहे हुए शब्दों को अर्थ के साथ- साथ जोड़ते चलना चाहिए। जिस शब्द का जो अर्थ है इस शब्द और अर्थ दोनों का ही चिन्तन होना चाहिए। ‘उस अर्थ के साथ ‘तत्, शब्द ‘ब्रह्म’ अर्थ के साथ ‘ॐ’ शब्द, ‘प्राण, अर्थ के साथ भूः शब्द, दुःख नाशक अर्थ के साथ भुवः शब्द की। इसी प्रकार अर्थ के साथ शब्द की भावना भी मन में करते चलना चाहिए। कुछ दिनों के अभ्यास में अर्थ और शब्द यह दो बातें अलग- अलग नहीं रह जाती ।। वरन् मन्त्र में क हे हुए शब्द से ही अर्थ का भाव मन में उत्पन्न हो जाता है। आरम्भ में अंग्रेजी पढ़ने वाले के मन में ‘cat’ शब्द से बिल्ली की मूर्ति का ध्यान स्पष्ट रूप में नहीं आता, किन्तु बिल्ली शब्द के साथ बिल्ली की मूर्ति का मनः चित्र उत्पन्न् होता है। किन्तु अंग्रजी का अभ्यास हो जाने पर ‘cat’ शब्द से भी बिल्ली की मूर्ति मन में उठ आती है। अर्थ की भावना अधिक दिनों तक करने के पश्चात् अर्थ और शब्द दोनों का साथ- साथ भावना करने का झंझट छूट जाता है और केवल मन्त्र के शब्दों की भावना के साथ- साथ अर्थ का मानसिक चित्र उत्पन्न होने लगता है। जब तक वह स्थिति प्राप्त नहीं हो तब तब शब्द और अर्थ दोनों साथ- साथ चलने चाहिए।

ब्रह्म की धारणा और बुद्धि की प्रेरणा यह दो भाग मन्त्र के हैं। ब्रह्म की धारणा पर एक बीच का ठहराव है। इसे भली प्रकार मन में स्थान देकर तब दूसरे भाग, बुद्धि की प्रेरणा का ध्यान करना चाहिए। एक- एक शब्द पर थोड़ा- थोड़ा ठहर कर उसका मूर्तिमान चित्र मनः पटल स्पष्ट रूप से अंकित करने का प्रयत्न करना चाहिए। जब यह शब्द मन में आवे ‘‘मैं अपने अन्तःकरण में -’’ तो अपने हृदय का चित्र कल्पना नेत्रों से ध्यान पूर्वक देखना चाहिए। जब ‘‘उस प्राण स्वरूप ब्रह्म को धारण करता हूँ- ’’ इन शब्दों की भावना की जाय तो ऐसा ध्यान करना चाहिए कि एक दिव्य विद्युत शक्ति को अन्तरिक्ष में से खींचकर हृदय में स्थापित किया जा रहा है। फिर उस स्थापित हुई विद्युत शक्ति के गुणों की भावना करनी चाहिए। अपने सब दुखदायक परमाणुओं को इस विद्युत शक्ति ने जला दिया उसकी स्थापना होते ही अणु- अणु में सुख का, आनन्द का सोता उमड़ रहा है, शरीर की कान्ति बढ़ रही है। मनःलोक का अन्धकार दूर होकर तेजस्वी प्रकाश उदय हुआ है, अपने अन्दर आत्मिक श्रेष्ठता, सत्य, प्रेम, न्याय की महानता बढ़ रही है, उस प्राण स्वरूप ब्रह्म की स्थापना होते ही पापों का नाश हो गया है और दिव्यता, देवत्व की प्रकृति अपने अन्दर बढ़ गई है।’’ इस प्रकार शब्दों की मूर्ति का अपने अन्दर प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिए। जैसे किसी मूर्ति का अपने अन्दर प्रत्यक्ष दर्शन किया जाता है। जैसे किसी मूर्ति को व आभूषण पहने हुए देखते हैं। उसी प्रकार अपने आप को मानस नेत्रों से श्रेष्ठता दिव्यता तेजस्विता, प्रफुल्लता आदि आत्मिक आभूषणों से सुसज्जित देखने का प्रयत्न करना चाहिए। यह ध्यान जितना स्पष्ट और गहरा होगा उतने ही दृढ़ संस्कार जमेंगे

ब्रह्म की धारणा का ध्यान करने के उपरान्त सद्बुद्धि के सन्मार्ग की ओर प्रेरित होने की भावना करनी चाहिए। मस्तिष्क में निवास करने वाली बुद्धि, शक्ति, अपनी मूर्छा, अचेतनता, उदासीनता त्याग कर उत्साह और जागरूकता के साथ उत्तम मनुष्योचित विचार और कार्यों की ओर रूचि पूर्वक प्रेरित हो रही है। ऐसा प्रेरक गायत्री के अन्तिम चरण की भावना में होना चाहिए।

जब मन ऊब जाय एक- एक शब्द पर अधिक से अधिक देर तक ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अर्थ भावना के ध्यान में इस बात का महत्त्व नहीं कि यन्त्र को कई बार दुहराया गया है वरन् इस बात का महत्त्व है कि ध्यान कितना साफ, स्पष्ट, गहरा और विश्वासपूर्वक हुआ है। ऐसा ध्यान यदि एक बार भी विशेष मनोयोग के साथ प्रतिदिन किया जावे तो आशातीत लाभ मिलता है।

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