गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

गायत्री का अर्थ चिन्तन-

<<   |   <   | |   >   |   >>

गायत्री मन्त्र का अर्थ निम्न प्रकार है-

ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यः (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात (प्रेरित करें)

अर्थात् - उस प्राण स्वरूप, दुखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।

इस अर्थ का विचार करने से उसके अन्तर्गत तीन तथ्य प्रकट होते है : - ईश्वर के दिव्य गुणों कार चिन्तन, - ईश्वर को अपने अन्दर धारण करना, - सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिए प्रार्थना। यह तीनों ही बातें असाधारण महत्त्व की हैं।

() ईश्वर के प्राणवान् दुःख रहित, आनन्द स्वरूप, तेजस्वी, श्रेष्ठ, पाप रहित, देव गुण- सम्पन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपयुक्त विशेषताएँ हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्य पद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन- दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती है।

() गायत्री मन्त्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने, अपने रोम- रोम में बसा लेने, परमात्मा को संसार के कण- कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर- दर्शन का आनन्द प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में ही रहना अनुभव करता है।

() मन्त्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्त्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिये, क्योंकि यह एक ऐसी महान् भगवत कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख सम्पदायें अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।

इस मन्त्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य गुणों को प्राप्त करने, दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है कि अपनी बुद्धि को सात्विक बनाओ, आदर्शों को ऊँचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिए हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे- जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जायेगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनन्दों की अभिवृद्धि होती जायेगी।

गायत्री मन्त्र के गर्भ में सन्निहित उपयुक्त तथ्य में ज्ञान,भक्ति, कर्म, उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिन्तन ज्ञानयोग है। ब्रह्म की धारण भक्ति योग है और बुद्धि क सात्विकता एवं अनासक्ति कर्म योग है। वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना यह तीन विषय हैं। गायत्री में भी बीज रूप में यह तीनों ही तथ्य सर्वांगपूर्ण ढंग से प्रतिपादित हैं।

इन भावनाओं का एकान्त में बैठकर नित्य अर्थ चिन्तन करना चाहिए। यह ध्यान साधना मनन के लिये अतीव उपयोगी है। मनन के लिए तीन संकल्प नीचे दिये जाते हैं। इन संकल्पों के शब्दों को शान्त चित्त से, स्थिर आसन पर बैठकर, नेत्र बन्द रखकर, मन ही मन दुहराना चाहिए और कल्पना शक्ति की सहायता से इन संकल्पों का ध्यान चित्र मनः क्षेत्र में भली प्रकार अंकित करना चाहिए।

() परमात्मा का ही पवित्र अंश- अविनाशी राजकुमार मैं आत्मा हूँ। परमात्मा प्राण स्वरूप है, मैं भी अपने को प्राणवान् आत्मशक्ति सम्पन्न बनाऊँगा। प्रभु दुख रहित है- मैं दुःखदायी मार्ग पर न चलूँगा ।। ईश्वर आनन्द स्वरूप है- अपने जीवन को आनन्दमय बनाना तथा दूसरों के आनन्द की वृद्धि करना मेरा कर्तव्य है। भगवान तेजस्वी हैं- मैं भी निर्भीक, साहसी वीर, पुरूषार्थी और प्रतिभावान बनूँगा। ब्रह्म श्रेष्ठ है- श्रेष्ठता, महानता, आदर्शवादिता एवं सिद्धान्तमय जीवन नीति अपनाकर मैं भी श्रेष्ठ ही बनूँगा। वह जगदीश्वर निष्पाप है- मैं भी पापों से, कुविचारों और कुकर्मों से बच कर रहूँगा। ईश्वर दिव्य है- मैं भी अपने को दिव्य गुणों से सुसज्जित करूँगा। संसार को कुछ देते रहने की देव नीति अपनाऊँगा। इसी मार्ग पर चलने से मेरा मनुष्य जीवन सफल हो सकता है।

() उपरोक्त गुणों वाले परमात्मा को मैं अपने अन्दर धारण करता हूँ। इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण- कण में प्रभु समाये हुए हैं। मैं उन्हीं में रमण करूँगा, उन्हीं के साथ हँसूँगा, खेलूँगा। वे ही मेरे चिर सहचर हैं। लोभ, मोह, वासना और तृष्णा का प्रलोभन दिखाकर पतन के गहरे गर्त में धकेल देने वाली कुबुद्धि से, माया से बचकर अपने को अन्तर्यामी परमात्मा की शरण में सौंपता हूँ। उन्हें ही अपने हृदयासन पर अवस्थित करता हूँ। अब वे ही मेरे हैं और मैं केवल उन्हीं का हूँ। ईश्वरीय आदर्शों का पालन करना और विश्व मानव- परमात्मा की सेवा करना ही अब मेरा लक्ष्य रहेगा।

() सद्बुद्धि से बढ़कर और कोई दैवी वरदान नहीं। इस दिव्य सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए मैं घोर तप करूँगा। आत्मा- चिन्तन करके अपने अन्तःकरण चतुष्टय में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में छिपकर मैं बैठी हुई कुबुद्धि को बारीकी के साथ ढूँढूँगा और उसे बहिष्कृत करने में कोई क सर न रहने दूँगा। अपनी आदतों, मान्यताओं, भावनाओं, विचारधाराओं में जहाँ भी कुबुद्धि पाऊँगा वहीं से उसे हटाऊं गा। असत्य को त्यागने और सत्य को ग्रहण करने में रत्ती भी भी दुराग्रह न रखूँगा। अपनी भूलें मानने और विवेक संगत बातों को मानने में तनिक भी दुराग्रह न करूँगा। अपने स्वभावों, विचारों और स्वभावों की सफाई करना, सड़े- गले कूड़े- कचरे को हटाकर सत्य शिव सुन्दर भावनाओं से अपनी मनोभूमि को सजाना अब मेरी प्रधान पूजा पद्धति होगी। इसी पूजा पद्धति से प्रसन्न होकर भगवान मेरे अन्तःकरण में निवास करेंगे तब मैं उनकी कृपा से जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होऊँगा।

इस संकल्पों में अपने रुचि के अनुसार शब्दों का हेर- फेर किया जा सकता है। पर भाव यही होने चाहिए। नित्यप्रति शान्त चित्त से भावना पूर्वक इन संकल्पों को देर तक अपने हृदय में स्थान दिया जाय तो गायत्री के मन्त्रार्थ की सच्ची अनुभूति हो सकती है। उस अनुभूति से मनुष्य दिन- दिन अध्यात्म मार्ग में ऊँचा उठ सकता है।

उपर्युक्त तरीके से गायत्री- मन्त्र के अर्थ पर मनन एवं चिन्तन करने से अन्तःकरण में उन तत्वों की वृद्धि होती है जो मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाते हैं। वह भाव बड़े ही शक्तिदायक, उत्साहप्रद, सतोगुणी, अन्नायक एवं आत्मबल बढ़ाने वाले हैं। इन भावों का नित्यप्रति कुछ समय मनन करना चाहिए।

मनन के लिए कुछ संकल्प आगे दिए जाते हैं। इन शब्दों को नेत्र बंद करके मन ही मन दुहराना चाहिए और कल्पना शक्ति की सहायता से इनका मानस चित्र मनःलोक में भली प्रकार अंकित करना चाहिए-

१.‘‘भूः लोक, भुवः लोक, स्वः- तीनों लोकों में ॐ परमात्मा समाया हुआ है। यह जितना भी विश्व ब्रह्मण्ड है, परमात्मा की साकार प्रतिमा है। कण- कण में भगवान समाये हुये हैं। इस सर्वव्यापक परमात्मा को सर्वत्र देखते हुए कुविचारों और कुकर्मों से सदा दूर रहना चाहिए एवं संसार की सुख- शांति तथा शोभा बढ़ाने में सहयोग देकर प्रभु की सच्ची पूजा करनी चाहिए।’’

२. ‘‘तत्- वह परमात्मा, सवितुः- तेजस्वी, वरेण्य- श्रेष्ठ, भर्गो- पाप रहित और देवस्य- दिव्य है। इसको मैं अन्तःकरण में धारण करता हूँ। इन गुणों वाले भगवान मेरे अन्तःकरण में प्रतिष्ठित होकर मुझे भी तेजस्वी, श्रेष्ठ, पाप रहित एवं दिव्य बनाते हैं। मैं प्रतिक्षण इन गुणों युक्त होता जात हूँ। इन दोनों की मात्रा मेरे मस्तिष्क और शरीर के कण- कण में बढ़ती जाती है। मैं इन गुणों से ओत- प्रोत होता जाता हूँ।’’

३. ‘‘वह परमात्मा, नः- हमारी, धियो- बुद्धि को, प्रचोदयात्- ’’ सन्मार्ग में प्रेरित करे। हम सब की हमारे स्वजन परिजनों की बुद्धि सन्मार्गगामी हो। संसार की सबसे बड़ी विभूति सुखों की आदि माता सद्बुद्धि को पाकर हम इस जीवन में ही स्वर्गीय आनन्द का उपभोग करें। मानव जन्म को सफल बनावें।’’

उपर्युक्त तीन चिन्तन संकल्प धीरे- धीरे संकल्प मनन करने चाहिए। एक- एक शब्द कुछ क्षण रुकना चाहिए और उस शब्द का कल्पना चित्र मन में बनाना चाहिए।

जब यह शब्द पढ़े जा रहे हों कि परमात्मा भूः भुवः स्वः तीनों लोकों में व्याप्त है, तब ऐसी कल्पना करनी चाहिये, जैसे हम पाताल, पृथ्वी, स्वर्ग को भली प्रकार देख रहे हैं और उसमें गर्मी, प्रकाश, बिजली, शक्ति या प्राण की तरह परमात्मा सर्वत्र समाया हुआ है। यह विराट ब्रह्माण्ड ईश्वर की एक जीवित जाग्रत साकार प्रतिमा है। गीता में अर्जुन को जिस प्रकार भगवान न अपना विराट रूप दिखाया है, वैसे ही विराट् पुरूष के दर्शन अपने कल्पना- लोक में मानस चक्षुओं से करने चाहिए। खूब जी भरकर इस विराट ब्रह्म के (विश्व पुरूष) के दर्शन करना चाहिए कि मैं इस विश्व पुरूष की पेट में बैठा हूँ। मेरे चारों ओर परमात्मा ही परमात्मा है ऐसी महाशक्ति की उपस्थिति में कुविचारों और कुकर्मों को मैं किस प्रकार अंगीकार कर सकता हूँ। इस विश्व पुरूष का कण- कण मेरे लिए पूजनीय है। उसकी सेवा, सुरक्षा एवं शोभा बढ़ाने में प्रवृत्त रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है।

संकल्प के दूसरे भाग का चिन्तन करते हुए अपने हृदय को भगवान का सिंहासन अनुभव करना चाहिए और उस परम तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ, निर्विकार, दिव्य गुणों वाले परमात्मा को विराजमान देखना चाहिए। भगवान् की झाँकी तीन रूप में की जा सकती है () विराट् पुरूष के रूप में () राम, कृष्ण, विष्णु, गायत्री, सरस्वती, आदि के रूप में () दीपक की ज्योति के रूप में, यह अपनी भावना, इच्छा और रूचि के ऊपर है। परमात्मा को पुरूष रूप में या गायत्री को मातृ रूप में अपनी रूचि के अनुसार ध्यान किया जा सकता है। परमात्मा स्त्रि भी है और पुरुष भी। गायत्री साधकों को माता गायत्री के रूप में ब्रह्म का ध्यान करना अधिक रूचता है। सुन्दर छवि का ध्यान करते हुए उसमें सूर्य के समान तेजस्विता, सर्वोपरि श्रेष्ठता, परम पवित्र निर्मलता और दिव्य सतोगुण की झाँकी करनी चाहिए। इस प्रकार गुण और रूप वाली ब्रह्म शक्ति को अपने हृदय में स्थायी रूप से बस जाने की, अपने रोम- रोम में रम जाने की भावना करनी चाहिये।

संकल्प के तीसरे भाग का चिन्तन करते हुए ऐसा अनुभव करना चाहिए कि वह गायत्री ब्रह्म शक्ति हमारे हृदय में निवास करने वाली भावना तथा मस्तिष्क में रहने वाली बुद्धि को पकड़ कर सात्विकता के, धर्म के, धर्म के ‘कर्तव्य के, सेवा के सत्पथ पर घसीटे लिए जा रही है। बुद्धि और भावना को इसी दिशा में चलाने का अभ्यास तथा प्रेम उत्पन्न कर रही है तथा वे दोनों बड़े आनन्द, उत्साह तथा सन्तोष का अनुभव करते हुए माता गायत्री के साथ- साथ चल रही है।

गायत्री में दी हुई यह तीन भावनायें क्रमशः ज्ञान- योग भक्ति- योग और कर्म- योग की प्रतीक हैं। इन्हीं तीन भावनाओं का विस्तार होकर योग के ज्ञान, भक्ति और कर्म यह तीन आधार बने हैं। गायत्री का अर्थ चिन्तन बीज रूप से अपनी अन्तरात्मा को तीनों योगों क त्रिवेणी में स्नान कराने के समान है।

इस प्रकार चिन्तन करने से गायत्री मन्त्र का अर्थ भली प्रकार हृदयंगम हो जाता है और उसकी प्रत्येक भावना मन पर अपनी छाप जमा लेती है, जिससे यह परिणाम कुछ ही दिनों में दिखाई देने लगता है कि मन कुविचारों और कुकर्मों की ओर से हट गया है और मनुष्योचित सद्विचारों एवं सत्कर्मों में उत्साहपूर्वक रस लेने लगा है। यह प्रवृत्ति आरम्भ में चाहे कितनी ही मन्द क्यों न हो, यह निश्चित है कि यदि वह बनी रहे, बुझने न पावे तो निश्चय ही आत्मा दिन- दिन समुन्नत होती जाती है और जीवन का चरम लक्ष्य समीप खिसकता चला आता है।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118