गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

पापनाशक प्रायश्चित

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गायत्री- शक्ति के आधार पर की गई तपश्चर्या बड़े से बड़े पापों को भी निष्पाप बनाने, उसके पाप- पुंजों को नष्ट करने तथा भविष्य के लिए उसे निष्पाप रहने योग्य बना सकती है। नीचे कुछ ऐसे ही तपश्चर्याएँ लिखी जाती हैं जो आत्म- तेज की अभिवृद्धि करने और पाप वृत्ति से बचने तथा पापनाशन में बहुत ही उपयोगी हैं-

() उपवास- इसको तपों में प्रथम स्थान दिया गया है। अनेक व्रतों में उपवास की प्रधानता है। गीता में कहा गया है कि- ‘निराहार रहने से- विषयों से निवृत्ति होती है।’ उपवास एक स्वतंत्र विज्ञान है। उस पर एक स्वतंत्र पुस्तक अलग से छापने की तैयारी की जा रही है। यहां तो इतना ही कहा जा सकता है कि अपनी सामर्थ्य के अनुरूप एक समय का भोजन छोड़ देना, भोजन में से नमक, मिर्च, मसाले या मिठाई छोड़ देना, फलाहार करते रहना, केवल जल पीकर रहना अपने- अपने ढंग के उपवास हैं। आरम्भ में इन्हें थोड़े समय के लिए करना चाहिए पीछे चान्द्रायण जैसे एक मास के बड़े उपवास भी किये जा सकते हैं।

() पंच गव्य लेना- किसी अशुद्धि के प्रायश्चित्य स्वरूप, उपवास करके गो दुग्ध, गो दधि, गो घृत, गो तक्र और शहद इन पांच- पांच चीजों को मिलाकर लेना चाहिए। घृत और शहद की मात्रा दुग्ध आदि की अपेक्षा, पंचमांश होनी चाहिए। कोई- कोई गोबर और गो- मूत्र के लिए भी जोर देते हैं पर उनकी साधारण प्रायश्चित्तों में आवश्यकता नहीं, विशेष प्रायश्चित्यों में कपड़े निचोड़ कर गोबर की दो- चार बूँदें और इतना ही गो- मूत्र डाला जा सकता है।

() व्रत- कुछ समय के लिए कुछ आवश्यकताओं को छोड़कर उनके अभाव का कष्ट सहते हुए रहना व्रत कहलाता है। काम सेवन त्याग कर ब्रह्मचर्य से रहना, जूता न पहन कर नंगे पैर रहना या खड़ाऊं पहनना- पलंग पर न सोकर तख्त या भूमि पर शयन करना, स्वल्प वस्त्र धारण करना, खाद्य पदार्थों में थोड़ी चीजों को स्वीकार करके शेष को त्याग देना, धातु के पात्रों में भोजन न करके पत्तल पर या हाथ पर भोजन करना, हजामत बनाने की मर्यादा निर्धारित कर लेना, पशुओं की सवारी पर न चढ़ना, खादी पहनना आदि अनेकों प्रकार के व्रत हो सकते हैं।

() कष्ट सहना- हठयोगी बड़ी- बड़ी कठिन कष्ट साध्य साधनाएँ करते हैं, एक बाहु को ऊपर उठाये रहना, चौरासी धूनी तपना, एक आसन से बैठना, रात्रि को न सोना जैसे साधनों को करते हैं पर हम अपने पाठकों को बिना किसी अनुभवी गुरू की आज्ञा के इस प्रकार के तीव्र कष्ट सहन का निषेध करते हैं क्योंकि इनमें थोड़ी भी भूल हो जाने से अनिष्ट का काफी खतरा रहता है। साधारणतः निम्न कष्ट सहन ऐसे हैं जिनमें से अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार किसी को अपनाया जा सकता है। गर्मी में पंखा, छाता और बर्फ का त्याग, सर्दी में बिना गरम (ताजे) जल से स्नान, प्रातःकाल एक दो घंटा रात रहे उठकर नित्य कर्म में लग जाना, सर्दी में अधिक वस्त्रों का उपयोग अथवा अग्नि पर तपने का त्याग, अपने हाथ से भोजन बनाना, एक हाथ से कुएं से जल खींचकर अपने लिए पीने को रखना, पैदल तीर्थ यात्रा करना, अपने हाथ से अपने सब काम- वस्त्र सीना, धोना झाड़ू लगाना बर्तन मलना आदि काम करना, दूसरों की सेवा और सहायता कम से कम लेना आदि ऐसे कष्ट सहन किये जा सकते हैं जिनमें उस कष्ट सहिष्णुता का कुछ प्रत्यक्ष लाभ भी होता हो ।।

() दान- अपने पास जो हो उसमें से अपने लिए कम मात्रा में रखकर दूसरों को अधिक मात्रा मे देना, समय, बुद्धि, दान, विद्या, सहयोग, उधार आदि का देना भी दान ही है। धन दान तो प्रसिद्ध है ही। सत्कार्यों में जीवन को नियोजित करने वाले ब्रह्म परायण लोकसेवी, सेवा संस्थाएं तथा आपत्ति ग्रस्त, दान के अधिकारी हैं। इसके अतिरिक्त अपनी उदार वृत्ति को चरितार्थ करने के लिए अनेकों प्रकार के ऐसे कार्य किये जा सकते हैं जिनसे उपयोगी प्राणियों की सुखवृद्धि होती हो। अन्न दान, पुस्तक दान, पाठशाला, औषधालय, अनाथालय ,अबलाश्रय, पुस्तकालय, गौशाला, धर्मशाला, कुँवा, बावड़ी, प्याऊ, बगीचा आदि के लिए धन या समय देना। भाषण, लेखन, सत्संग आदि द्वारा सद्ज्ञान का प्रसार करना आदि अनेकों लोकोपयोगी कार्य हैं। विद्या धनवाले भी सेवा समिति आदि लोक सेवा संस्थाओं को अपना समय देकर या स्वतंत्र रूप से स्थानीय आवश्यकता के अनुरूप सेवा करके दान का पुण्य फल प्राप्त कर सकते हैं। गौ, चींटी, चिड़ियां, कछुए, मछली आदि को थोड़ा बहुत भोजन देकर दान की भावना को अल्प व्यय में चरितार्थ किया जा सकता है और भी अनेकों मार्ग हो सकते हैं।

() दोष प्रकाशन- अपनी बुराइयों को या गुप्त पापों को छिपाये रहने से मन भारी रहता है और उसमें कलुषित भाव भरे रहते हैं। जिस प्रकार उदर में गंदा मल भरा रहे तो स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता, इस दोष के निवारण के लिए जुलाब देकर पेट साफ कराया जाता है, तब स्वास्थ्य ठीक होता है। इसी प्रकार अपनी भूलों और पापों को छिपाये बैठे रहा जाय तो वह विषैला मल आध्यात्मिक स्वास्थ्य को ठीक नहीं होने देता। इसलिए प्रायश्चित्यों में दोष प्रकाशन का महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। गौ हत्या हो जाने का प्रायश्चित शास्त्रों ने यह बताया है कि मरी गौ की पूँछ हाथ में लेकर एक सौ गाँवों में वह व्यक्ति उच्च स्वर से चिल्ला- चिल्ला कर यह कहे कि मुझसे गौ हत्या हो गई है। इस प्रकार दोष प्रकाशन से गौ हत्या का दोष छूट जाता है। हमने जिसके साथ बुराई की हो उससे क्षमा मांगनी चाहिए। उसकी क्षति- पूर्ति करनी चाहिए , और जिस प्रकार वह संतुष्ट हो वह करने का यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिए। यह न हो सके तो कम से कम अपने किन्हीं अभिन्न सच्चे विश्वासी मित्रों अथवा गुरू के सन्मुख अपने प्रत्येक दोष को सविस्तार प्रकट कर देना चाहिए। इससे भी बहुत हद तक मन स्वच्छ हो जाता है और अन्तरात्मा पर रखा हुआ एक भारी बोझ हल्का हो जाता है।

() साधना- गायत्री अनुष्ठान, ब्रह्मसंध्या, गायत्री हवन, पुरश्चरण गायत्री योग आदि साधनों से आत्मबल सतेज किया जा सकता है।
अन्य उद्देश्यों के लिए अन्य अनेकों प्रायश्चित हो सकते हैं, पर यहां तो सर्व साधारण के उपयोगी सामान्य तपश्चर्याओं का ही वर्णन किया जा रहा है। पाठक किसी विज्ञ पुरूष से सलाह लेकर ही अपनी स्थिति को ध्यान में रख कर इस दिशा में कदम बढ़ावें, यदि आवश्यकता प्रतीत हो तो केन्द्र से भी इस सम्बन्ध में सलाह ले सकते हैं और गायत्री तत्वों की तपश्चर्या एवं प्रायश्चित्तों द्वारा पतितावस्था से उच्चता की ओर अग्रसर हो सकते हैं और पापों का नाश कर सकते हैं।
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