गायत्री उपासना अनिवार्य है - आवश्यक है

परम प्रेरणाप्रद गायत्री उपासना

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गायत्री महामंत्र की शक्ति असाधारण है ।। उसमें भरी हुई शिक्षा को यदि हृदयंगम किया जा सके, विचारणा को सद्बुद्धि में, ऋतम्भरा प्रज्ञा में परिणत किया जा सके तो समझना चाहिए कि नर को नारायण रूप में परिणत होने की सम्भावना का पथ प्रशस्त हो गया। इन अक्षरों का गुन्थन शब्द- विद्या के उस रहस्यमय सूत्रों के आधार पर किया गया, जिनके कारण षटचक्र, तीन ग्रन्थियाँ, बावन उपत्यिकायें जैसे प्रसुप्त शक्ति- केन्द्रों का जागरण होता है और मनुष्य सामान्य से असामान्य बनने की दिशा मे बढ़ चलता है। गायत्री साधना की उत्कृष्टता के सम्बन्ध में किसी भारतीय धर्मानुयायी को संदेह करने की गुंजायश नहीं है। सन्ध्या के रूप में दैनिक आवश्यक धर्म- कर्तव्य निर्धारित किया गया है। शिखा और यज्ञोपवीत के रूप में मस्तक और हृदय जैसे आधार अंकों पर गायत्री की ही प्रतिष्ठापना है। प्रायः सभी अवतार , ऋषि, योगी और तत्त्वेता गायत्री उपासना के माध्यम से आत्मबल अभिवर्धन और भावनात्मक उत्कर्ष का प्रयोजन पूरा करते रहे हैं । निस्संदेह योगाभ्यास के मंत्र साधना के क्षेत्र में गायत्री मंत्र की गरिमा सर्वोपरि है । जीवन- शोधन की परिष्कार साधनाओं में उसका स्थान सबसे अगला और सबसे ऊँचा है ।

प्रत्यावर्तन- प्रक्रिया में गायत्री- उपासकों को पवित्रीकरण, आचमन, शिखा- बन्धन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी पूजन- इन षट् कर्मों की ब्रह्म संध्या के उपरान्त आधा घण्टे तक गायत्री जप करना होता है। इतने समय में पाँच मालाएँ हो जाती हैं । मालाएँ फेरना अनिवार्य नहीं है। आधा घण्टा समय की अवधि घड़ी देखकर भी पूरी की जा सकती है। जप- साधना में नियत समय, नियत स्थान, नियत संख्या का जो नियम है, उसका यहाँ पूरा- पूरा ध्यान रखा गया है। कंठ, होंठ, जीभ तीनों ही चलते रहें पर ध्वनि इतनी मन्द हो कि पास बैठा मनुष्य उसे ठीक तरह से सुन न सके, मात्र स्फुट गुँजन ही होता रहे।

जप के समय ध्यान आवश्यक है। मन को काम न मिले तो वह भागेगा ही। जीभ से शब्दोच्चार होता है, उँगलियों से माला जपी जाती है, किन्तु आमतौर से मन को खाली छोड़ दिया जाता है, ऐसी दशा में उसका अनियंत्रित और अव्यवस्थित रूप से इधर- उधर भागना स्वाभाविक ही है। मन कहीं, क्रिया कहीं वाली स्थिति ही हो, तो बात कुछ नहीं है। उपासना में तन्मयता और श्रद्धा का गहरा पुट होना चाहिए, तभी उसका कुछ प्रयोजन है अन्यथा कुछ शब्दों की पुनरावृत्ति करते रहने मात्र से कुछ बड़ा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।

गायत्री उपासना के समय ध्यान नितान्त आवश्यक है। यह दो प्रकार का हो सकता है, एक साकार, दूसरा निराकार। दोनों में से इच्छानुसार किसी को भी चुना जा सकता है। किन्तु प्राण- प्रत्यावर्तन साधना के अन्तर्गत चल रहे सत्रों में परामर्श यही दिया जाता है कि साकार उपासना में भावना- उत्कर्ष की गुंजायश रहती है, उससे लाभ उठायें। यह लाभ प्रायः निराकार साधना में नहीं मिल पाता। निराकार साधना के लिए दूसरी कई विधियाँ मौजूद हैं, अस्तु। यही उपयुक्त समझा गया है कि निर्धारित साकार ध्यान को ही प्रथम दिया जाये।

प्रचलित ध्यान साधनाओं में एकांगी अतिवाद का बाहुल्य रहता है। यों तो ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’ के रूप में अपने को चित्रित किया जाता है, या फिर शिवोऽहम् सच्चिदानंदोऽहम् की ध्वनि लगाई जाती है। ये दोनों ही स्थितियाँ मनुष्य की हो तो सकती हैं, पर उत्थान और पतन की चरम परिणति है। पतित होते- होते मनुष्य, पशु अथवा नर- पिशाच हो सकता है और उत्कर्ष की ऊँची सीढ़ी पर चढ़ते हुए उसका नर नारायण बन जाना नितान्त संभव है, परन्तु सामान्य स्थिति में वह इन दोनों ओर छोरों के बीच का मध्य बिन्दु है। देव अपनी ओर खींचते हैं, असुर अपनी ओर। दोनों में यह जिधर भी चल पड़े ,, उधर ही आशाजनक प्रगति कर सकता है।

हमें वस्तुस्थिति समझनी चाहिए और तामसी असुरता को निरस्त करके सतोगुणी करके सतोगुणी देवत्व की ओर प्रगति करनी चाहिए। ध्यान- धारणा का लक्ष्य भी यही होना चाहिए। उसमें ऐसे भाव- चित्र प्रस्तुत किये जाने चाहिए जिनमें अपनी अवांछनीय स्थिति की ओर समुचित ध्यान देने, उसकी हानियों को समझने और उन्हें निरस्त करके उच्चस्तरीय स्थिति प्राप्त करने की प्रेरणा भरी पड़ी हो। इस प्रकार के उभय पक्षीय प्रयोजन सिद्ध करने वाली ध्यान- धारणाओं को ही शृंखला प्रत्यावर्तन- सत्र की विभिन्न विधि व्यवस्थाओं में भरी पड़ी है। बिन्दुयोग -त्राटक प्राणयोग- (सोऽहम्- साधना) , आत्मबोध (छाया- दर्पण), तत्त्वबोध (प्रथक्करण)- इन चारों साधनाओं में इसी तथ्य को ध्यान में रखा गया है। जितना समय इन साधनाओं में है, उसका आधा समय विकृतियों को समझने और निरस्त करने में लगाया है। आधा समय भावी उत्कृष्टता की स्थिति के स्वर्णिम चित्र मूर्तिमान करने के लिए हैं। अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना, दुष्कृतों का नाश और साधुता का परित्राण, यही तो भगवान के अवतार का उद्देश्य है। उपर्युक्त ध्यान- धारणाओं का स्वरूप निर्धारण भी इसीदृष्टिकोण के आधार पर रखा गया है।

गायत्री उपासना के लिए आधा घंटा पाँच माला- जप निर्धारित है। इसमें पन्द्रह मिनट निषेधात्मक और पन्द्रह मिनट विधेयात्मक चिन्तन के लिए हैं। बिजली की ऋण और धन धाराएँ मिलकर ही प्रवाह उत्पन्न करती हैं। इस प्रकार ध्यान धारणा में उभय पक्षीय संतुलन मिलने से ही उसकी पूर्णता और प्रभावशीलता बनती है। इसी तथ्य को प्रस्तुत क्रम में समाविष्ट किया गया है।

जप आरम्भ करने के साथ- साथ ध्यान- धारणा में अपने स्वरूप की स्थापना इस रूप में करनी चाहिए कि मैं एक छोटा बालक हूँ, टट्टी और गन्दगी में लिपटा हुआ। हाथ- पैर सभी को उस गन्दगी से पोत कर घिनौना बना लिया है। माता की गोदी में लेने का अनुरोध करता हूँ, पर वह सुनती ही नहीं और भवें तरेरते हुए स्पष्ट कर देती है, कि जब तक गन्दगी को धोकर सफाई न कर ली जायेगी तब तक गोद में लेने की, प्यार करने की बात नहीं बनेगी। ठीक भी है, बच्चे की गन्दगी के कारण मां अपने कपड़े और शरीर को गंदा क्यों करे? गोदी में लेने का आग्रह रोते- बिलखते किया जा रहा है, पर माता की ओर से इसकी कोई सुनवाई नहीं की जा रही है ।

ध्यान का उत्तरार्द्ध पन्द्रह मिनट का यह है कि माँ ने अपने छोटे बच्चे शरीर को स्नान कराया, मलीनता के कणों को धोकर साफ किया, गोदी में उठाया, अच्छे कपड़े पहनाये, प्यार किया, दूध पिलाया। अपनी सहज करुणा का भाव भरे वात्सल्य का परिचय दिया और मनोकामना पूर्ण करके हर्षोल्लास का अनुदान प्रदान किया।



गायत्री जप के समय का यही द्विपक्षीय ध्यान है। इसमें उस कारण का स्पष्टीकरण है जिससे साधकों को इष्टदेव का अनुग्रह प्राप्त करने से वंचित रहना पड़ता है। उस सुझाव का भी निर्देश है, जिसे अपनाने पर ईश्वर- प्राप्ति जैसा महान सौभाग्य मिल सकता है। जब तक हम कषाय- कल्मष दोष- दुर्गुणों में सिर से पैर तक डूबे पड़े हैं, तब तक कैसे आशा कर सकते हैं कि भगवान हमें अपना अतिरिक्त स्नेह- अनुग्रह प्रदान करेंगे। भगवान का प्यार पूजा- पत्री के छुट- पुट कर्मकाण्डों पर अवलम्बित नहीं है। वे नियम- रूप हैं और मर्यादा एवं व्यवस्था के अन्तर्गत ही किसी की कुछ सहायता कर सकते हैं। खुशामद और रिश्वत देकर भगवान से लम्बी- चौड़ी याचनाएँ करना और मनोकामनाओं के सपने देखना निरर्थक हैं। इस बाल- कल्पना का वस्तुतः कोई मूल्य है भी नहीं। मनुष्य अपने चिन्तन और कर्तृत्व का स्तर ऊँचा उठा सकता है। इसी तथ्य के लिए आवश्यक अन्तः प्रेरणाएँ प्राप्त करना साधना- उपक्रम का उद्देश्य होता है।

गायत्री मंत्र का, जप का अपना महत्त्व है। उपर्युक्त ध्यान- धारण के साथ में जुड़ जाने का अतिरिक्त महत्त्व है। एक तो चिन्तन के लिए, कल्पना के लिए विस्तृत क्षेत्र मिल जाता है और मन को उसमें उलझा रहने का अवसर मिलता है। मन को एक नियत- निर्धारित काम मिल जाने से उसकी अनावश्यक और अवांछनीय घुड़दौड़ बन्द हो जाती है। चित्तवृत्तियों के निरोध की आवश्यकता बहुत हद तक इससे पूरी होती है। इसके अतिरिक्त आत्म- शोधन का, परिष्कृत जीवन- क्रम अपनाने पर ही पूर्णता का, भगवत् प्राप्ति का लक्ष्य प्राप्त हो सकने की सचाई हृदयंगम होती है। दोनों ही प्रयोजन इस ध्यान- उपक्रम के साथ गायत्री उपासना करने से पूरे होते हैं।

गायत्री- जप के अनन्तर उसकी पूर्णाहुति सूर्य अर्घ्य- दान के रूप में होती है। गायत्री का देवता सविता- सूर्य है। गायत्री को सूर्य- मंत्र भी कहा जाता है। साकार हो अथवा निराकार, गायत्री की प्रतिमा सूर्य सहित ही बनती है। गायत्री माता का साकार रूप होगा तो उसके मुख मण्डल के इर्द- गिर्द सूर्य जैसा तेजोवलय चित्रित किया जायेगा। ‘‘सूर्य मण्डल मध्यस्था’’ शास्त्र वचन के अनुरूप ऐसे चित्र भी बने हैं जिनमें सूर्य- मण्डल के बीच गायत्री माता का पूरा शरीर है। निराकार उपासक सूर्य जैसे प्रकाश बिन्दु को अपने ध्यान का आधार बनाते हैं। सूर्योपस्थान संध्यावन्दन की बात भी जुड़ी है। गायत्री- जप के समय जल- कलश एक लोटे में स्थापित किया जाता है और जप पूर्ण होने पर सूर्य के सम्मुख खड़े होकर जल की धार उस कलश से छोड़ते हुए अर्घ्यदान किया जाता है।

यह पूर्णाहुति यद्यपि है तनिक सी, पर उनका महत्त्व बहुत है। जल अपनी आत्मसत्ता का प्रतीक है और सूर्य समष्टि गत सर्वगत ब्रह्मसत्ता का प्रतिनिधि है। जल को अर्थात् अपने व्यक्तित्व की धार बाँध कर अनवरत गति से भगवान के चरणों पर लोकमङ्गल के पुण्य- प्रयोजनों पर समर्पित किया जाता है, इसी के साथ परमार्थ जीवन की दिशा में बढ़ चलने का भाव संकेत सूर्यार्घ्यदान में सन्निहित है। सूर्य भगवान के सम्मुख जल चढ़ाते हुए यही भावनायें उमड़नी चाहिए कि समर्पण- योग की उच्चतम स्थिति प्राप्त करके रहेंगे। भगवान को जो महानतम देना था, सो वे मानव शरीर के रूप में दे चुके ।। इससे बड़ी सम्पदा उनके पास कुछ थी भी नहीं। अब अपनी बारी है कि अनुदान का प्रतिपादन प्रस्तुत करें। अपनी विभूतियों और सम्पत्तियों को उनके चरणों पर, उनके उद्यान विश्व को सुन्दर- समुन्नत बनाने के लिए नियोजित करें।

वस्तुतः समर्पण ही योग- साधना की सबसे ऊँची और सबसे प्रभावी स्थिति है। जब मनुष्य समस्त ऐषणायें, तृष्णायें, लिप्सायें भगवान के चरणों पर समर्पित करके कामना- रहित बन जाता है और ईश्वरीय निर्देशों पर चलने की बात ही अन्तःकरण के मर्मस्थल में बसा लेता है, स्वभावतः उसका चिन्तन उत्कृष्ट और कर्तृत्व आदर्श स्तर का बन जाता है। उसी को ब्रह्म- ज्ञानी को, ईश्वर भक्ति की यथार्थ भूमिका कह सकते हैं। इसे जो आत्मा सम्पन्न कर सके, समझना चाहिए उसने ईश्वर के साथ अपना विवाह कर लिया। सर्व विदित है कि पतिव्रता पत्नी अपना शरीर और मन सर्वतोभावेन पति के चरणों पर समर्पित करती है और उसी की इच्छा के अनुरूप अपनी इच्छा, प्रकृति एवं क्रिया का निर्माण निर्धारण करती है। फलस्वरूप पत्नीव्रता पति भी उस पर अपने प्राण निछावर करता है और अपने सर्वस्व की स्वामिनी घोषित करता है।

पत्नी को बेशक बहुत क्या, सब कुछ ही देना पड़ता है, पर बदले में उसे अपने से भी सुयोग्य सहचर को कौड़ी- मोल खरीद लेने का अवसर मिलता है। ठीक यही बात भक्त और भगवान के पारस्परिक सम्बन्धों पर लागू होती है। जब भक्त अपना चिन्तन और कर्तृत्व भगवान की आकांक्षा के अनुरूप ढालने वाला सच्चा समर्पण प्रस्तुत करता है, तो बदले में भगवान भी उसे अपनी समग्र सत्ता समर्पित कर देते हैं, यही बात पति- पत्नी के सम्बन्ध में भी लागू होती है। इस सघनता का, एकता का एकमात्र आधार पारस्परिक समर्पण- भाव ही है, यदि वे इससे बचें और सस्ती वाचालता से एक दूसरे को बहकावे, स्वार्थ अपने- अपने अलग रखें तो फिर वेश्यावृत्ति जैसे स्थिति बन जायेगी। भक्त और भगवान के बीच सच्चा समर्पण ही सार्थक होता है। छद्म या बहकावे को भगवान भली प्रकार समझते हैं और ऐसे जाल- जंजाल की धूर्तता से कोसों दूर रहते हैं।

सूर्यार्घ्यदान के पीछे समग्र रूप में यही तत्त्वज्ञान सन्निहित है। यज्ञ में घृत की धार बाँध कर वसोर्धारा विधा किया जाता है। अर्घ्य में भी वही भाव है। यज्ञ- भगवान के प्रति अपना भावभरा स्नेह बहुमूल्य पदार्थ वैभव समर्पित करने का संकेत वसोर्धारा में है। सूर्य रूपी ब्रह्मयज्ञ में अपने सलिल- व्यक्तित्व को समर्पित करके तुच्छता की परिधि तोड़कर महानता की भूमिका में विचरण करने वाला साधक वहाँ पहुँचता है, जहाँ पहुँचना जीवन का चरम लक्ष्य है। सूर्योपासना बाह्य दृष्टि से अन्यान्य कर्म- काण्डों की तरह ही एक साधारण उपचार प्रक्रिया प्रतीत होती है, पर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उसमें वे सभी लक्ष्य जुड़े हुए दृष्यमान होंगे, जिन पर चरम आत्मोत्कर्ष की सम्भावनायें आधारित होती हैं।


‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ सूत्र के अन्तर्गत अन्धकार से बच कर प्रकाश की ओर चलने का जो संकल्प व्यक्त किया गया है, उसे अधिक स्पष्टतापूर्वक भाव भूमिका में उभारने के लिए सूर्य देवता की दिव्यज्योति से सहायता ले सकते हैं। प्रकाश के सम्मुख अन्धकार नहीं ठहरता। सद्ज्ञान रूपी सूर्य अन्तःकरण में उदय है तो उन अन्धकारों में भटकने का काई कारण नहीं रह जाता जिनकी भूल- भुलैयों में उलझे रहने से दिग्भ्रान्त रहते हुए हम अपने प्रयाण- पथ से ही भटक गये। इस भटकाव को दूर करके ईश्वर के अंशधारी राजकुमार को सत्य और तथ्य का दर्शन करा सकने योग्य प्रकाश की आवश्यकता है। कोई भी भावुक- अन्तःकरण सूर्य, परमात्मा के प्रत्यक्ष और प्रचण्ड प्रकाश को सामने उपस्थित देखकर उसके सहारे जीवन- यात्रा के सही मार्ग को समझने और उस पर चल पड़ने की प्रेरणा प्राप्त कर सकता है।

सूर्य अनुशासन का नियमित क्रम- व्यवस्था का प्रतीक है। कर्मयोग उसकी विशेषता है। अपने आकर्षण में सौर- मण्डल के ग्रह- उपग्रहों को बाँधे हुए है और प्रकाशवान भी कर रहा है, उन्हें गति भी दे रहा है। इसी मार्ग का हमें भी अनुसरण करना चाहिए। अपने को नियमित क्रमबद्ध, कर्तव्य परायण, प्रकाश पुञ्ज, मनस्वी और तपस्वी बनाकर, लोक मंगल के लिए, अहर्निश संलग्न रहने के लिए तत्पर कर सकते हैं। अपने आकर्षण में असंख्य प्रतिभावों को आबद्ध किये रह सकते हैं। अगणितों को प्रकाश दे सकते हैं। इस स्तर का व्यक्तित्व विनिर्मित किया जा सके तो समझना चाहिए कि सूर्य भक्ति सार्थक हो गई। भक्ति का तात्पर्य ही इष्टदेव का अनुकरण अनुगमन करना है। हनुमान की भक्ति सच्ची थी, वे इधर ही चले जिधर भगवान राम ने चरण बढ़ाये। अर्जुन ने कृष्ण के अंगुलि- निर्देश को ध्यान में रखकर ही अपनी समग्र रीति- नीति निर्धारित की। भक्ति का तरीका ही यह है। मात्र पूजा- पत्री की टण्ट- घण्ट से भक्ति का उद्देश्य कहाँ पूरा होता है। गायत्री मन्त्र के देवता सविता की आराधना का संक्षिप्त किन्तु अति प्रेरणाप्रद उपक्रम सूर्यार्घ्यदान है।

अध्यात्म की भाषा में प्रकाश शब्द का उपयोग सद्ज्ञान के अर्थ में होता है। ज्ञान अपने आप में परम ज्योति है, उससे अज्ञानान्धकार दूर होता है। सूर्य को माध्यम मान कर उसकी, परमज्ञान की, तत्त्वज्ञान- ब्रह्मज्ञान की आराधना की जाती है, जिससे अपने विविध विधि अज्ञानान्धकारों का निराकरण हो सके और दूर- दूर तक के क्षेत्र को प्रकाशित- प्रभावित करने की क्षमता प्राप्त हो सके। आसमान में चमकने वाला अग्नि पिण्ड- भौतिक सूर्य तो मात्र अन्धेरा ही दूर कर सकता है और सर्दी को हटाकर तापमान बढ़ा सकता है। जिस परम तेजस्वी सविता की हम उपासना करते हैं, अर्घ्य चढ़ाते हैं, वह उससे ऊँचा है ,, आगे है, वह प्रेरणा भरे सद्ज्ञान से ओतप्रोत सविता है। वही हमारा परम उपास्य आराध्य है। उदय- अस्त होने वाला सूर्य तो उसकी प्रतिमा भर कहा जा सकता है। दृश्य प्रतिमाओं के आधार पर जिस प्रकार परब्रह्म की शक्तियों के प्रति आस्था उभारी जाती है, उसी प्रकार अग्नि- पिण्ड सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हुए परब्रह्म सविता देवता की प्राण- प्रेरणा का आह्वान करते हैं और जलधारा चढ़ाते हुए उसमें अपना उत्सर्ग का संकल्प व्यक्त करते हैं।

चढ़ाया हुआ जल भूमि पर गिरता है और सूर्य की गर्मी से भाप बनकर अनन्त आकाश में बिखर जाता है। पीछे वह ओस, बादल आदि बनकर भूमि की तृषा और वनस्पतियों की आवश्यकता पूरी करते हुए अपने को धन्य बनाता है। उपास्य सविता देवता हमारे क्षुद्र कलश में भरे हुए सलिल व्यक्तित्व को यदि अर्घ्य रूप में स्वीकार कर सके तो निश्चय ही वे हमें बादल बनकर अनन्त मंष बिखर जाने और वर्षा बिन्दुओं में परिणित होकर इस वसुधा की तृष्णा शान्त करने की प्रेरणा देंगे। यदि ऐसा अनुदान, वरदान मिल सके तो समझना चाहिए कि गायत्री- उपासना के अन्त में प्रस्तुत की जाने वाली पूर्णाहुति सूर्यार्घ्यदान- प्रक्रिया सार्थक एवं फलित हो गई।



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