गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

पूजा सामग्री का विसर्जन

<<   |   <   | |   >   |   >>

समग्रामपि सामग्रीमनुष्ठानस्य पूजिताम् ।।

स्थाने पवित्र एवैसां कुत्रचिद्धि विसर्जयेत्

(अनुष्ठानस्य) अनुष्ठान की (समग्रामपि) समस्त (पूजितां) पूजित (एतां) उस (सामग्रीं) सामग्री को (कुत्रचित्) कहीं (पवित्रे) पवित्र (स्थाने एव) स्थान पर ही (विसर्जयेत) विसर्जित करें ।।

साधना के उपरान्त पूजा के पदार्थ बचते हैं। अक्षत्, धूप, नैवेद्य, दूर्वा, कलावा, फूल, जल, भोग, दीपक की बत्ती, यज्ञ की भस्म, इधर- ऊधर गिरी हुई हवन सामग्री, बची हुई समिधाएं आदि पदार्थ ऐसे हैं जो दुबारा प्रयोग में नहीं आ सकते ,, सुरक्षित रखने की आवश्यकता नहीं, इसलिए उनको किसी न किसी प्रकार हटाना ही पड़ता है। कहीं न कहीं उनका अन्त करना ही होता है। कई बार इस विसर्जन में असावधानी बरती जाती है और झाड़बुहार कर कूड़े कचरे के साथ गंदे स्थानों में फेंक दिया जाता है। यह ठीक नहीं। क्योंकि जिन पदार्थों का उच्च भावनाओं के साथ सम्मान किया गया है उनके साथ अन्त तक सम्मान प्रदर्शित किया जाना चाहिए। अपने किसी आत्मीय के मर जाने पर उसके शरीर को हम यों ही चाहे नहीं फेंक आते, उसकी दुर्दशा होना पसंद नहीं करते। यद्यपि वह मरा हुआ शरीर अब बेकार है उसका कुछ उपयोग नहीं तो भी मृत व्यक्ति के साथ जो प्रेम और सद्भाव था उसका अन्त भी उसी प्रकार करने की इच्छा उठना स्वाभाविक है। इसीलिए लोग अपने स्वजन सम्बन्धियों के शरीर की अन्त्येष्टि- क्रिया श्रद्धा और सम्मान के साथ करते हैं और उसकी भस्म, अस्थि आदि अवशेषों को गंगा, त्रिवेणी, हरिद्वार आदि पुण्य तीर्थों में विसर्जित करते हैं। साधना से बची हुई सामग्री के साथ भी हमारे यही भाव होने चाहिए। उसे किसी पवित्र नदी, कूप, सरोवर, जलाशय, देव मन्दिर, निर्जन क्षेत्र आदि में विसर्जन करना चाहिए जिससे किसी के पैरों के नीचे वह कुचली न जाय और गंदे पदार्थों के साथ मिलकर उसकी दुर्दशा न हो। जल को सूर्य के सम्मुख अर्घ्य देते हुए पवित्र भूमि में इस प्रकार चढ़ाना चाहिए कि किसी गंदी नाली आदि में पहुंचने से पहले ही सूख जाय। चावल आदि खाद्य पदार्थ को या गाय को खिला देने चाहिए।

साधना अवशिष्ट पदार्थों में साधक की आध्यात्मिक भावनाओं का सम्मिश्रण रहता है। वह अगर गंदे पदार्थों के साथ पटक दी जाती है और उसकी दुर्दशा होती है तो उसकी प्रतिक्रियास्वरूप साधक को कष्ट होता है। दूरस्थ पुत्र पर संकट आने से माता को अज्ञान रूप से बेचैनी होती है, भय और आशंका से उसका हृदय धड़कने लगता है। जिन पत्नियों का अपने पतियों से घनिष्ठ प्रेम होता है तो उन्हें भी ऐसे ही अनुभव होते हैं। कारण यह है कि उस व्यक्ति का माता या पत्नी के साथ घनिष्ठ आत्म सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध उन दोनों को वैसे ही टेलीफोन या रेडियो की तरह एक अदृश्य सम्बन्ध सूत्र में बाँधे रहता है जिसके कारण एक का सुख- दुख दूसरे तक पहुंचता है। यही बात साधन सामग्री और साधक के सम्बन्ध में है। उस सामग्री की दुर्दशा हो तो पूर्व स्थापित आत्मिक सम्बन्धों के कारण साधक का चित्त भी उससे दुःखी होता है।

यदि उस सामग्री को किसी पवित्र स्थान में विसर्जित किया जाता है तो सामग्री के साथ लिपटी हुई सात्विकता उस पुण्य स्थान में घुल मिल जाती है और फिर उस स्थान या जलाशय का उपयोग करने वालों को सतोगुणी प्रेरणा के अधिक मात्रा में देने का कारण बनती है। उस प्रेरणा उपयोग करने वाले उत्तम लाभ प्राप्त करते हैं। इस प्रकार उस विसर्जन कर्ता को एक पुण्य फल भी प्राप्त होता है। इस प्रकार एक पंथ दो काज की कहावत चरितार्थ हो जाती है।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118